विचार

जिस कवि गोपालदास नीरज की मौत पर बीजेपी ने जताया शोक, उसी बीजेपी की हुकूमत में उनकी नहीं हुई थी सुनवाई

लोकप्रिय कवि गोपालदास नीरज को यशभारती पुरस्कार के तहत मिलने वाली पेंशन उनके अंतिम दिनों में बंद हो गई थी। उन्होंने कई बार पेंशन जारी रखने के लिए बीजेपी सरकार से गुहार लगाई, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया कवि गोपालदास नीरज (फाइल फोटो)

पद्मभूषण और लोकप्रिय कवि गोपालदास नीरज की मौत को बहुत दिन नहीं हुए। उनकी मौत पर बीजेपी के तमाम नेताओं ने तुरंत काफी शोक जताया। पर एक ताजा लेख में आगरे के सिराज कुरेशी साहिब लिखते हैं कि यूपी सरकारी की तरफ से रचनात्मक कलाकारों को दिए जानेवाले सबसे बड़े (50 लाख रुपये के) यशभारती पुरस्कार विजेता को मुलायम सिंह यादव की सरकार से 50, 000 प्रतिमाह पेंशन मिलती रही थी। वह उनके अंतिम दिनों में बंद हो गई थी, क्योंकि अखिलेश यादव के सत्ता से बाहर होते ही (2017 में) नये मुख्यमंत्री योगी जी ने इस पुरस्कार को बंद ही नहीं कराया, पुरस्कार की तहत लेखकों के चयन की प्रक्रिया पर ही सरकारी जांच खोल दी। कई तरह की बीमारियों से जूझते हुए तंगदस्ती झेल रहे 'नीरज' ने लेखक को बताया कि पिछली जून से (मृत्यु से कुछ पहले तक) वे 2 बार इस बाबत सरकार को लिख चुके थे, पर कोई सुनवाई नहीं हुई। उनका कहना था कि चयन प्रक्रिया भले ही चलती रहती, लेकिन पेंशन किस लिए रोकी गई ? जिन उम्रदराज़ कलाकारों को यह पुरस्कार मिला था, लगभग सब सपरिवार इसी पेंशन राशि पर पूरी तरह से आश्रित थे |

आज से कोई डेढ़ सौ बरस पहले उर्दू फारसी के बेहतरीन शायर जनाब असदुल्लाह खाँ गालिब के साथ भी अंग्रेज़ शासन के दौरान ऐसा ही ज़ुल्म हुआ था। आगरे से 25 साल की उम्र में दिल्ली आये गालिब आर्थिक विवशता की वजह से आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फर के दरबार में मुलाज़िम बने। उदासी से उन्होंने लिखा :

'गालिब वज़ीफाख्वार हो, दो शाह को दुआ,

वो दिन गये कि कहते थे नौकर नहीं हूं मैं।

Published: 29 Jul 2018, 5:05 PM IST

1826 में गालिब परिवार के एक सदस्य की मौत के बाद घरेलू झगड़ों के कारण उनको अंग्रेज़ी सरकार से मिलनेवाली 10 हज़ार रुपये सालाना की पेंशन बंद हो गई। इसके बाद वे (तीन बरस तक चली) यात्रा पर तत्कालीन राजधानी कलकत्ता तक दौड़े गये। लखनऊ दरबार ने तरस खा कर जो पेंशन अपनी तरफ से उपलब्ध कराई वह भी नवाब वाजिद अली शाह के अपदस्थ होने से बंद हो गई। और दिल्ली दरबार का सहारा भी बहादुरशाह ज़फर को देश बदर किये जाने के बाद खत्म हुआ । अपने मित्र मुंशी हरगोपाल 'तफ्ता' को अंतिम दिनों में लिखते हैं :

..'एक खर्च है कि बस चला जाता है, जो कुछ होना है वो हुआ जाता है। ..मुझको देखो, न आज़ाद हूं ना मुकैय्यद, ना रंजूर हूं, न तंदुरुस्त, न खुश हूं, न नाखुश, न मुर्दा हूं न ज़िंदा। जिये जाता हूं, बातें किये जाता हूं। ..जब मौत आयेगी मर भी रहूंगा'।

यह नीरज और गालिब की नहीं, सत्ता के दो पाटों के बीच पिसते लेखकों की कालातीत कहानी है।

Published: 29 Jul 2018, 5:05 PM IST

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Published: 29 Jul 2018, 5:05 PM IST