विचार

‘मोदीकरण’ के लिए था बीजेपी-पीडीपी गठबंधन, अब फल भोगना पड़ रहा है

यह समझने की जरूरत है कि जम्मू-कश्मीर की समस्या का समाधान आम तरीके से नहीं हो सकता। और अब तो केंद्र सरकार ने बातचीत का पूरा रास्ता ही बंद कर दिया है। ऐसे में, कश्मीर समस्या के हल की संभावना दूर दूर तक नहीं दिख रही है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

कश्मीर घाटी में विकास पर शोर मचाने वाले केंद्र के दक्षिणपंथी शासकों के पास तब पर्याप्त समय और अवसर था जब उन्होंने जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ गठबंधन कर सरकार बनाई थी। ध्यान रहे, पीडीपी विधायकों की बड़ी संख्या इस गठबंधन को लेकर असहज थी, लेकिन मुफ्ती परिवार के लोग- मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती, विकास की उन बातों से प्रभावित लगते थे, जिसके जरिये नई दिल्ली ने उन लोगों को लुभाया था। हालांकि, यह घाटी का ’मोदीकरण’ करने के लिए था।

यह गठबंधन करने के लिए पीडीपी के फैसले ने कई असहज स्थितियां भी पैदा की थीं। पीडीपी के प्रमुख नेता तारिक हमीद कर्रा इस हद तक दुखी हुए कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उनके इस्तीफे के काफी दिनों बाद सितंबर, 2016 में मैंने उनसे मुलाकात की और उनका इंटरव्यू किया। जैसा कि अपेक्षित था, इस पूर्व सांसद से मेरा पहला ही सवाल था- जब आप बने रह सकते थे और संसद में अपनी आवाज उठा सकते थे, तब भी आपने इस्तीफा क्यों दिया?

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उन्होंने मुझसे कहा, “पिछले कई महीनों से मैं पार्टी की किसी भी बैठक में शरीक नहीं हो रहा था... । जब से पीडीपी ने बीजेपी के साथ गठबंधन करने का फैसला किया, मैं घुटन महसूस कर रहा था। पीडीपी से इस्तीफा देने का यह फैसला मेरे लिए कठिन था क्योंकि मैं पीडीपी के संस्थापक सदस्यों में हूं, लेकिन मैंने अंतरात्मा की आवाज सुनी। मैं अपने लोगों के सामने इस बात का औचित्य किस तरह साबित कर सकता था कि हमने एक सांप्रदायिक पार्टी- बीजेपी के साथ गठबंधन कर लिया है? घाटी में स्थिति जिस तरह संभाली जा रही थी, उसने मुझ में गुस्सा भर दिया था। इतने सारे कश्मीरी मारे गए... मानवाधिकार हनन का सबसे बुरा रूप था यह। जुमे और यहां तक कि ईद की नमाज के वक्त भी सरकार ने मस्जिदों में ताले डलवा दिए और उन्हें बंद रखा। मैं उस सरकार का हिस्सा नहीं बना रहना चाहता था। मैं बीजेपी जैसी पार्टी के साथ पीडीपी के गठबंधन के खिलाफ पहले दिन से था।”

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उस वक्त भी कर्रा ने दो टूक कहा था, “यह उचित वक्त है कि सरकार कश्मीर को क्षेत्रीय मुद्दे के तौर पर देखने की आदत रोके। यह राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की बात है। इसके पास अपना झंडा और संविधान है। इस सच्चाई को आर्थिक, विकास या प्रशासनिक मुद्दों के जरिये मिटाया नहीं जा सकता। और वह कथित विकास कहां हो रहा है? कहीं नहीं। क्या आप घाटी में विकास का कोई चिह्न देख सकते हैं?”

और जब मैं घाटी गई, मुझे विकास के कोई चिह्न नहीं दिखे। सिर्फ दुख और निराशा चारों तरफ थी। विकास की जगह जमीन पर जो कुछ दिख रहा था, वे दुखद घटनाएं थीं। घाटी में विरक्ति और गुस्सा हर रोज बढ़ रहा था। न सिर्फ घाटी के नागरिक जो मारे जाने वालों की बढ़ती संख्या से प्रभावित थे बल्कि नौकरशाही के लोग भी इसमें शामिल थे। शाह फैसल ने 2010 सिविल सर्विस परीक्षा में टाॅप किया था और उन्होंने अभी इसी साल सर्दियों में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) से इस्तीफा दिया है।

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उनके अनुसार, “कश्मीर में निरंतर लोगों के मारे जाने और केंद्र सरकार की तरफ से किसी विश्वसनीय राजनीतिक कदम की अनुपस्थिति के विरोध में मैंने आईएएस से इस्तीफा देने का फैसला किया है। कश्मीरी जीवन मेरे लिए महत्वपूर्ण है...।” उन्होंने देश में फैल रहे राजनीतिक प्रदूषण की भी निंदा करते हुए कहा, “हिंदुत्ववादी शक्तियों के हाथों लगभग 20 करोड़ भारतीय मुसलमानों को हाशिये में डालने और उन्हें नकारने, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बना देने, राज्य की विशिष्ट पहचान पर धूर्ततापूर्ण ढंग से आक्रमण और अतिराष्ट्रवाद के नाम पर भारत भर में असहिष्णुता और घृणा की बढ़ती संस्कृति है। मैं शासन को याद दिलाना चाहता हूं कि आरबीआई, सीबीआई और एनआईए जैसी सार्वजनिक संस्थाओं के क्षय से इस देश की संवैधानिक इमारत तहस-नहस होने की आशंका है और इसे रोकने की जरूरत है। मैं फिर कहना चाहूंगा कि इस देश की आवाज को लंबे समय तक नहीं दबाया जा सकता और अगर हम वास्तविक लोकतंत्र में फलना-फूलना चाहते हैं, तो अवरोध का वातावरण समाप्त करने की जरूरत होगी।”

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आप ही बताएं, कथित ’विकास’ घाटी में कभी भी कैसे पहुंच पाएगा जब इसके अपने वैध नागरिक वर्षों से गहरी पीड़ा और कष्टदायक स्थिति में फंसे हों। उनके लिए रोजाना के अपमान और यंत्रणा से कोई निजात नहीं। वस्तुतः, उनका कटु अनुभव 2016 से लगातार बढ़ता गया है, यह पहले से कहीं अधिक हो गया है।

कश्मीरी क्या चाहते हैं, क्या हमने कभी जानने की जहमत की है? उनकी क्या इच्छाएं और मांग और जरूरतें हैं? नहीं, हमने उनके साथ बातचीत बंद कर दी है। बढ़ते विराग और गुस्से के कारण जानने की हम कोशिश भी नहीं कर रहे हैं। हम राज्य के इतिहास के तथ्यों और महत्वपूर्ण घटनाक्रम से भी दूर हो गए हैं।

सच्चाइयां दबा दी गई हैं। कश्मीर को लेकर महत्वपूर्ण तथ्य अब सार्वजनिक जानकारी में नहीं हैं। प्रख्यात पत्रकार अजित भट्टाचार्जी ने टिप्पणी की थीः “लोग यह बात भूल जाना चाहते हैं कि जम्मू-कश्मीर के साथ किसी अन्य राज्य की तरह बर्ताव नहीं किया जा सकता। 27 अक्टूबर, 1947 को यह आंतरिक स्वायत्तता दिए जाने की शर्त पर भारत में शामिल हुआ था। हालांकि, यहां मुसलमान बहुमत में थे, उन्होंने विलय का समर्थन किया था और पाकिस्तान से लड़ाई में भारतीय सेना की मदद की थी। लेकिन राज्य की स्वायत्तता के क्रमिक क्षरण ने विराग के बीज बोए। अब, निश्चित तौर पर, हालत बिगड़ गई है...।”

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ध्यान रखें, तथ्यों और जमीनी सच्चाइयों को विचार में लिए बिना कश्मीरियों के साथ बहुत जरूरी बातचीत का कोई रास्ता नहीं है। कश्मीरी क्या चाहते हैं, उस संदर्भ में उसके लिए वातावरण बनाना पड़ेगा। न कि यह कि सैन्य बल के जरिये हम उन पर वह लाद दें जो हम सोचते हैं।

स्वर्गीय पत्रकार वेद भसीन के जीवन पर लिखी और अनुराधा भसीन जामवाल द्वारा संपादित किताब वेद जी एंड हिज टाइम्स- कश्मीरः द वे फाॅरवर्ड (सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ वेद भसीन- कश्मीर टाइम्स पब्लिकेशंसः 2017) में एक अध्याय हैः जम्मू एंड कश्मीरः रोड मैप फाॅर डायलाॅग। इसमें वेद भसीन ने यकीन दिलाने वाले कई कदमों की बातें बताई हैं जो बातचीत शुरू करने के लिए आधारभूमि तैयार कर सकती है। लेकिन इसमें सतर्क करने वाली एक टिप्पणी भी हैः ’इस बात पर जोर देने की जरूरत है कि विभाजन करने वाली रेखा के दोनों तरफ रहने वाले जम्मू-कश्मीर के सभी वर्गों के लोगों की पूरी और सक्रिय भागीदारी के बिना कश्मीर का ’’शांतिपूर्ण बातचीत से तय समाधान’’ संभव नहीं है।’

कश्मीर घाटी में बातचीत और विचार-विमर्श के बिना स्थिति पर नियंत्रण संभव नहीं है। संकट के राजनीतिक समाधान की तुरंत जरूरत है। केंद्र सरकार को पंडित जवाहलाल नेहरू के 7 अगस्त, 1952 को दिए भाषण पर ध्यान देने की जरूरत है जिसमें उन्होंने कश्मीर और कश्मीरियों पर बातें की थीं। उन्होंने लोकसभा में कहा था, “हम सशस्त्र बलों की मदद से उनकी इच्छाओं के खिलाफ लोगों को जीतना नहीं चाहते हैं।.... हम जबरिया विवाह, जबरिया संबंध नहीं चाहते हैं।”

(नवजीवन के लिए वरिष्ठ पत्रकार हुमरा कुरैशी का लेख)

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