विचार

बीजेपी की नीयत कश्मीर और कश्मीरी पंडितों की समस्या सुलझाने में नहीं बल्कि बाकी देश में उसका फायदा उठाने की है

बीजेपी कश्मीर समस्या को सुलझाने के बजाए उसको उलझाए रखने की कोशिशें ही कर रही हैं। साथ ही यह भी कि उसका बाकी देश में ध्रुवीकरण कराने के लिए कितना दोहन किया जा सके। इस रास्ते से न कश्मीर की समस्या सुलझने वाली है, न पंडितों की वापसी की कोई उम्मीद है।

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कश्मीर में हिन्दूऔर मुसलमान दोनों मारे गए। अगर जनसंख्या अनुपात के प्रतिशत के रूप में देखेंगे, तो 370 की संख्या जो सरकार क्लेम करती है या 600 से अधिक की संख्या जो कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति क्लेम करती है, वह कोई छोटी नहीं, बड़ी संख्या है। शुरुआती दौर में निश्चित रूप से ऐसा हुआ था कि हिन्दुओं और मुसलमानों में जिसके बारे में भी लगा कि वह सरकार के साथ है, उसे मारा गया। बाद में पंडितों की टारगेटेड किलिंग हुई, इसमें दो राय नहीं। चूंकि वे घाटी छोड़कर चले गए या ऐसी स्थितियां बनीं कि उनको घाटी छोड़ना पड़ा, इसीलिए उन्हें ही पीड़ित के रूप में देखा जाता है। मीडिया के लिए यह सहूलियत थी कि वह हिन्दुओं की बात करे। फिर, धीरे-धीरे जिस तरह से सारे मामले को हिन्दू बनाम मुसलमान में बदला गया, उस समय भी उनके लिए यह सहूलियत थी कि पंडितों की हत्या की बात करें। मुसलमानों की ज्यों ही बात करते, उस दौर के बारे में सच्चाई बयान करनी पड़ती। लेकिन बताना था कि यह मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं पर किया गया अत्याचार है। इस बात को भूल गए कि आतंकवादियों के हाथ जो पहला आदमी मारा गया था- मोहम्मद यूसुफ हलवाई, वह मुसलमान था, नेशनल कॉन्फ्रेंस का सदस्य। इसके अलावा भी बड़ी संख्या में कश्मीरी मुसलमानों की हत्या हुई।

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यह कहना कि कश्मीरी पंडितों को जानबूझकर निकाल दिया गया, अतिशयोक्ति होगी। हां, इसमें दो राय नहीं है कि पंडितों और पूरे कश्मीर को जिस तरह की सुरक्षा की जरूरत थी, नहीं दी गई। जगमोहन ने जैसी नीतियां अपनाईं, उसने माहौल को और ज्यादा बिगाड़ दिया। जब कश्मीरी पंडित वहां से निकलने लगे, तो उन्हें रोकने की जगह जाने की सुविधाएं दी गईं। लेकिन यह कहना भी कि केवल जगमोहन की वजह से सारे कश्मीरी पंडित चले गए, एक एक्सट्रीम है। दूसरा यह कहना कि जगमोहन की कोई भूमिका ही नहीं थी, यह दूसरा एक्सट्रीम है। सच्चाई इन दोनों के बीच में है। सरकार ने मामले को गंभीरता से लिया ही नहीं। वी पी सिंह की सरकार की कश्मीर पर कोई समझदारी दिखती ही नहीं। एक तरफ मुफ्ती मुहम्मद सईद थे, दूसरी तरफ बीजेपी। दोनों की अपनी-अपनी पॉलिसी। मुफ्ती साहब येन केन प्रकारेण मुख्यमंत्री बनना चाहते थे, इसीलिए कांग्रेस छोड़कर जनमोर्चा में गए और बाद में अपनी पार्टी बनाई।

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बीजेपी (पहले जनसंघ) 1947-48 के बाद से ही इस मसले को हिन्दू-मुसलमान का तमाशा करने के लिए इस्तेमाल कर रही थी। जगमोहन पहले भी वहां रह चुके थे। उस अनुभव के आधार पर फारुक अब्दुल्ला ने कहा था कि अगर जगमोहन आते हैं तो मैं तुरंत इस्तीफा दे दूंगा। वहां के चीफ सेक्रेटरी ने बाद में अपने संस्मरण में लिखा कि जब वह मुफ्ती मुहम्मद सईद के पास गए कि फारुक साहब ऐसा-ऐसा कह रहे हैं और यह दिक्कत तलब हो सकता है, तो उन्होंने कहा कि फारुक तो ऐसे ही बोलते रहते हैं। वह इस्तीफा नहीं देंगे। सच्चाई यह है कि जिस दिन जगमोहन की नियुक्ति की घोषणा हुई, फारुक ने तुरंत इस्तीफा दे दिया, जगमोहन के आने तक पद संभालने के लिए भी तैयार नहीं हुए। बीजेपी ने कश्मीर में ऐसे आदमी को भिजवाया जिस पर पूरे कश्मीर में कोई भरोसा नहीं करता था।

सीधे कहा जाए, तो 50,000 कश्मीरी मुसलमानों का पलायन हुआ, पर उनकी कोई चर्चा नहीं होती। उनको भी वही सुविधाएं मिली थीं जो कश्मीरी पंडितों को दी गई थीं। लौटने को इच्छुक पंडितों को मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री राहत योजना के तहत नौकरी आदि की सुविधाएं दीं। उसके पीछे सोच यह थी कि अगर नौकरी और रहने की सुविधा मिले, तो शायद वे लौटकर आ सकें। लोग आए भी। धर्म के आधार पर सुविधाओं का कोई मामला नहीं था। लेकिन बड़े लाभार्थी तो कश्मीरी पंडित ही थे क्योंकि बड़ी संख्या में वही कश्मीर से बाहर गए थे।

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एक भी कदम का फायदा नहीं

अभी यह बता पाना बहुत मुश्किल है कि घाटी के पंडित चाहते क्या हैं। लेकिन एक बात तो साफ है कि विवेक अग्निहोत्री और अशोक पंडित आदि को कश्मीरी पंडितों से कोई लेना-देना नहीं है। वे बाहर बस गए हैं। विवेक तो खैर कश्मीरी पंडित हैं भी नहीं और अशोक पंडित बाहर बस चुके हैं। अनुपम खेर का विस्थापन हुआ ही नहीं था। उनके पिता 60 के दशक में ही शिमला में बस गए थे। एक हिस्सा कश्मीरी पंडितों का ऐसा है जो सिर्फ इस मुद्दे का इस्तेमाल बीजेपी-आरएसएस के मोहरे के रूप में करता रहा है। मुसलमानों के प्रति नफरत को केन्द्र में रखकर उन्हें सारा काम करना है। लेकिन जो कश्मीरी पंडित वास्तव में लौटना चाहते हैं जो अब भी कैंपों में रह रहे हैं या फिर वे पंडित जिन्होंने घाटी नहीं छोड़ी, वे इस तमाशे से परेशान हैं। वे जानते हैं कि ये तमाशा जितना ज्यादा होगा, एक तो लोगों के लौटने को मुश्किल करता जाएगा। दूसरा, जो वहां रह रहे हैं, उनके लिए भी मुश्किलें बढ़ेंगी।

पिछले दो साल में जितने दावे किए गए, अगर उनमें से एक भी पूरा होने की तरफ बढ़ता दिखाई दे, तो माना जाए कि यह फायदा है। हां, ये जरूर हुआ कि जो हिन्दुस्तान का झंडा उठाते थे, वहां संविधान की राजनीति करते थे, उनके लिए बोलना मुश्किल हो गया। कश्मीरियों के अहम को चोट पहुंचाने लिए कश्मीर को किसी तरह कंट्रोल करने के लिए वहां पर स्थानीय जो नेतृत्व है, उसको पूरी तरह से दबा देने के लिए ये सारी चीजें हुईं। आज वहां जाएंगे तो ऐसे लोग बड़ी मुश्किल से मिलते हैं जो नाराज न हों, दुखी न हों, परेशान न हों। अगर दुखी, नाराज, परेशान करना उद्देश्य था, तो वह जरूर पूरा हुआ है।

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परिसीमन अन्यायपूर्ण

सिद्धांत यह है कि जनता का प्रतिनिधि होना चाहिए विधानसभा को- जहां लोग ज्यादा हों, वहां सीटें ज्यादा होनी चाहिए। इसीलिए क्षेत्रफल में बड़ा होने के बावजूद मध्य प्रदेश में यूपी से कम सीटें हैं। कश्मीर की जनसंख्या ज्यादा है, जम्मू की जनसंख्या कम है। लेकिन वहां पर ला रहे हैं कि एरिया दोनों की बराबर है, इसलिए सीटें बराबर होनी चाहिए। ये अन्याय हो रहा कि नहीं? पूरी कोशिश ही बहुत साफ दिख रही है कि कैसे भी घाटी का प्रभुत्व, घाटी की राजनीति, घाटी का आत्मसम्मान- इन सबको चोट पहुंचाई जाए।

साफ दिख रहा है कि ऐसे लोग हैं जो चाहते ही नहीं हैं कि कश्मीर के लोग शांति से रहें। मैं पिछले चुनाव के पहले हरियाणा गया था। वहां अनुच्छेद 370 हटाने के स्वागत के बोर्ड लगे थे। कश्मीर में 370 रहे न रहे, उससे हरियाणा के लोगों के जीवन पर क्याअसर पड़ेगा? सीधा मामला है कि कश्मीर में 370 आदि का उपयोग सिर्फ बाकी देश में ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को तेज करने के लिए किया गया।

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आगे का रास्ता

कश्मीरी पंडितों की वापसी भी तभी संभव है जब वहां शांति हो। रोजगार तभी संभव है जब वहां शांति हो। कौन पूंजीपति होगा जो ऐसी घाटी में पैसा लगाएगा जहां कहीं भी कभी भी बम फूट जाता है। जाहिर तौर पर वहां सबसे पहले जरूरत शांति की है। इसके लिए जरूरी है कि वहां के लोगों से बातचीत हो। एक ऐसा सोल्यूशन निकाला जाए जिससे कोई भी अपने आप को ठगा महसूस न करे। शांति स्थापित होने के बाद ही कश्मीरी पंडितों की वापसी की प्रक्रिया तेज हो सकती है। पांच से दस वर्ष का लंबा एक्शन प्लान बनाना होगा।

अभी तक के ट्रेन्ड को देखते हुए कहा जा सकता है कि वहां जो किया जाएगा, वह इसके उलट ही होगा। शायद चुनाव तब कराने की कोशिश की जाए, जब यह विश्वास हो जाए कि चुनाव जीता जा सकता है। लेकिन ऐसी सरकार जनता की सरकार तो होगी नहीं। घाटी के लोगों का अविश्वास और बढ़ेगा। बीजेपी और उसकी सरकार कश्मीर समस्या को सुलझाने की कोई ईमानदार कोशिश करने की जगह उसको उलझाए रखने की कोशिशें ही कर रही हैं। कोशिश की जा रही है कि उसका बाकी देश में ध्रुवीकरण कराने के लिए जितना दोहन किया जा सके, किया जाए। इस रास्ते से तो न कश्मीर की समस्या सुलझने वाली है, न पंडितों की वापसी की कोई उम्मीद है। तीस साल से अधिक हो गया, यह तो समझ ही लेना चाहिए कि सिर्फ सेना के बल पर यह समस्या नहीं हल हो सकती।

(राम शिरोमणि शुक्ला के साथ बातचीत के आधार पर)

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