जातीय जनगणना कराने की मांग काफी पहले से समय-समय पर होती रही है। इस बार इसने नए सिरे से और प्रभावी तरीके से जोर पकड़ा है। केंद्र की मोदी सरकार इस पर खामोश है। जातीय जनगणना के पक्षधरों का एक तर्क यह भी है कि मोदी सरकार ने अपने मंत्रिमंडल विस्तार में इस बात को बहुत प्रचारित किया कि उनके मंत्रिमंडल में इतने दलित और इतने ओबीसी हैं। इसके पीछे प्रमुख कारण यही है कि कैसे इसका चुनावी लाभ लिया जाए। जब सरकार यह करती है, तो वह जातीय जनगणना से क्यों भाग रही है? वहीं, जातीय जनगणना के इस विमर्श में एक पहलू यह भी सामने आ रहा है कि इसका फायदा केवल उन जातियों और उन पार्टियों को होगा जिनका आधार ओबीसी की डॉमिनेन्ट जातियों में है। ओबीसी में जो नया उभरता प्रभावकारी वर्ग है, वह जातीय जनगणना की इस लड़ाई को आगे बढ़ा रहा है। लेकिन इसका कोई बहुत जमीनी आधार नहीं है। इस विषय पर पढ़िए दलित नेता उदित राज क्या कहते हैं।
जातीय जनगणना के मुद्दे को समझने के लिए अभी हाल के एक घटनाक्रम को देख लेना जरूरी है। अब से कुछ समय पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल का पुनर्गठन किया गया। हर किसी को पता है कि जब मंत्रिमंडल का पुनर्गठन किया गया, तो सरकार की ओर से जाति के आधार पर आंकड़े गिनाए गए। इसे बहुत प्रचारित किया गया कि मंत्रिमंडल में इतने दलित हैं, इतने ओबीसी हैं। अलग-अलग भी बताया गया कि कोई यादव है और कोई कुर्मी है। यह सब किया गया, तो इसके पीछे प्रमुख कारण यह है कि कैसे इसका चुनावी लाभ लिया जाए। इन जातियों में यह संदेश दिया जाए कि सरकार उनकी जाति के लोगों को बढ़ावा दे रही है और इस तरह उनके हित के लिए काम कर रही है। जब सरकार यह सब कर ही रही है, तो इसी के साथ उसे जाति भी गिन लेनी चाहिए।
भाजपा अपने चुनावी फायदे में तो जाति का नाम लेती है और खूब प्रचारित करती है कि वह विभिन्न जातियों के हितों के संरक्षण के लिए काम करती है। लेकिन जब उनको फायदा होता है तो कहने लगते हैं कि जातिवाद बढ़ेगा। जो संसाधन हैं, पद हैं, पोस्ट हैं, प्लानिंग है, योजना है, उसके बंटवारे या भागीदारी के लिए जातीय जनगणना होनी ही चाहिए। जब सब कुछ किया ही जा रहा है, तो जातीय गणना करने में समस्या नहीं होनी चाहिए। जाति एक सच्चाई है, वह है। जब जाति है, तो उसे छिपाने का क्या मतलब है। विद्यालयों में अभी इनरोलमेंट हुआ। जब उसका सर्वे किया गया तो जाति और आर्थिक, आदि आंकड़े निकाले गए। जब वहां जाति के आंकड़े निकाले जा सकते हैं, तो औसत तो बन ही जाता है। पता तो है मोटा-मोटी सबको।
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हमारे पास 1931 का आंकड़ा भी है। 2011 में भी आंकड़े इकट्ठे किए गए थे। वह भी है। कर्नाटक सरकार ने जातीय जनगणना करवाई। उसके आंकड़े हैं। अभी छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार इस पर काम कर रही है। यह भी एक उदाहरण है। जब हर चीज की गणना की जाती है, यह पता किया जाता है कि देश में कितने गरीब हैं, कितने दृष्टि बाधित हैं और भी बहुत कुछ किया जाता है, तो जाति की गणना किया जाना कोई गलत तो नहीं है। यह तो पता होना ही चाहिए कि किस जाति के कितने लोग हैं। अगर आंकड़ा ही नहीं होगा, तो उनके लिए किया क्या जाएगा।
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जातीय जनगणना को लेकर लगातार बातें होती रही हैं। हाल-फिलहाल यह मांग नए सिरे से उठ रही है जिसका साफ मतलब है कि इसकी जरूरत है। इस नई शुरू हुई सक्रियता का प्रभाव भी सरकार पर पड़ना ही चाहिए। अब केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार और सत्ताधारी पार्टी- भाजपा खुद इस मसले पर फंस गई है। जब मार पड़ी, तो जाहिर है, फंसना ही है। बंगाल के चुनाव के परिणामों से इन्हें करारा सबक मिला है। जब जातिवार तरीके से इन्होंने मंत्रिमंडल बनाया, तब चुनावी लाभ के चक्कर में यह नहीं देखा कि इससे दूसरा जिन्न निकल जाएगा। जिन्न तो निकला लेकिन अब उस जिन्न को फिर से बोतल में कैसे भरा जाए, यह सरकार और भाजपा- दोनों के लिए बड़ी समस्या हो सकती है। अगर सरकार इस मुद्दे पर कुछ आगे नहीं बढ़ती है, तो इसका बड़ा खामियाजा इनको भुगतना पड़ेगा क्योंकि यह मुद्दा आगे बढ़ता जा रहा है। यह रुकने वाला नहीं है। इसकी अनदेखी से काम चलने वाला नहीं है।
(राम शिरोमणि शुक्ल के साथ बातचीत पर आधारित)
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