विचार

खिसकती राजनीतिक ज़मीन में दलित वोट कब्ज़ाने की कसमसाहट का नतीजा है चंद्रशेखर रावण की रिहाई का परवाना

<b>2014 में बीजेपी को सत्ता के सिंहासन तक पहुंचाने में उत्तर प्रदेश की मुख्य भूमिका थी, जो दलित वोटों को बीजेपी के पाले में लाने के लिए संघ की कसरत का नतीजा था। लेकिन अब जमीन खिसक रही है, और उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनावों में विपक्षी महागठबंधन से मिला घाव अभी सूखा नहीं है।</b>

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

“नेताओं को समाज के सताए हुए लोगों के जख्मों पर मरहम लगाना चाहिए, न कि सिर्फ वोटों के लिए उनका इस्तेमाल करना चाहिए।“ यह बात कोई दो साल पहले उस समय भीम आर्मी की इकलौती महिला सदस्य कुमारी ममता ने एक न्यूज वेबसाइट से बातचीत में कही थी। इस एक छोटे से वाक्य ने दलित वोटों को लेकर मची सियासी छीनाझपटी की असलियत बयां कर दी थी।

अब चुनाव का मौसम आ गया है, 5 राज्यों (तेलंगाना को मिलाकर) में इसी साल विधानसभा चुनाव हैं और अगले साल के शुरुआती महीनों में ही देश पर शासन करने वाली सरकार चुनने के लिए लोकसभा चुनाव होने हैं। ऐसे मौके पर उत्तर प्रदेश सरकार ने भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर की रिहाई का परवाना जारी किया है। जो आदेश जारी किया गया है उसमें सरकार ने कहा है कि, “उनकी माता का प्रत्यावेदन और वर्तमान परिस्थितियों के दृष्टिगत उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सहानुभूतिपूर्वक विचारोपरांत रावण की समयपूर्व रिहाई करने का निर्णय लिया है।”

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सवाल यहीं उठता है कि वे कौन सी वर्तमान परिस्थितियां है, जिनपर सरकार ने विचार किया और यह फैसला लिया। रावण की रिहाई के लिए तो तभी से आवाज़ उठाई जा रही थी, जब से उन्हें गिरफ्तार किया गया था। तमाम राजनीतिक और सामाजिक संगठन चंद्रशेखर को जेल में रखे जाने का विरोध कर रहे थे।

लेकिन, राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि रावण की रिहाई के परवाने की पटकथा पिछले दिनों दिल्ली में हुई बीजेपी की दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में लिखी गई थी। इसका आभास उस समय हुआ था कार्यकारिणी बैठक के पहले दिन बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी के सवर्ण नेताओं पर आंखे तरेरते हुए ‘दुत्कार’ दिया था और कहा था कि एससी-एसटी एक्ट में केंद्र की मोदी सरकार द्वारा किए संशोधन को सरकार की उपलब्धि के तौर पर पेश किया जाए। सवर्ण नेताओं ने आवाज़ उठाने की कोशिश की थी कि इस संशोधन के बाद पार्टी का सवर्ण तबका नाराज है, लेकिन उन्होंने लगभग डांटने वाले अंदाज़ में इन आवाज़ों को खामोश करा दिया था।

दरअसल चंद्रशेखर रावण, दलितों की ऐसी आवाज़ बनकर उभरे थे, जो अत्याचार करने वालों से न सिर्फ आंख में आंख डालकर मुकाबला करने को तैयार था, बल्कि राजनीतिक हित के लिए इस्तेमाल होने का भी प्रतिरोध कर रहा था। तो फिर ऐसे नेता को जेल से क्यों निकाला जा रहा है जो मुख्यत: उच्च जातियों की राजनीति करने वाली बीजेपी को चुनौती देने निकला था?

इसके लिए सबसे पहले कुछ आंकड़ों को देखना होगा। देश में अनुसूचित जाति 16.63 फीसदी और अनुसूचित जनजाति 8.6 फीसदी हैं। इन दोनों को मिला दें तो आंकड़ा 25 फीसदी से अधिक होता है। ये आंकड़े 2011 के जनगणना के हैं। लोकसभा की कुल 543 में से करीब 28 फीसदी यानी 150 से ज्यादा सीटें एससी-एसटी बहुल मानी जाती हैं। साथ ही सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में करीब 47,000 गांवों में दलितों की आबादी 50 फीसदी से ज्यादा और करीब 76,000 गांवों में उनकी आबादी 40 फीसदी से ज्यादा है। इसी आधार पर लोकसभा की 131 सीटें इन दोनों जातियों के लिए आरक्षित हैं। इनमें एससी के लिए 84, जबकि एससी के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं। यही वह वोट बैंक है जिसके भरोस राम विलास पासवान, रामदास अठावले, मायावती, उदितराज और जिग्नेश मेवाणी जैसे नेता उभरे हैं।

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ये आंकड़े समाज में सबसे कमजोर समझे जाने वाले इस वर्ग की सियासी ताकत का आइना हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि उनकी इस ताकत को हमेशा महज सत्ता के लिए सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है। पिछले महीनों में जब सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट को कमजोर किया था, जो दलितों का विरोध उबल पड़ा था, जिसकी तस्वीर 2 अप्रैल के भारत बंद में दिखी थी। इस बंद को तमाम राजनीतिक दलों का समर्थन भी था।

इस आंदोलन ने यह भी साबित कर दिया था कि 2019 के राजनीतिक युद्ध में दलित बड़ा मुद्दा होंगे। घबराई केंद्र सरकार ने आनन-फानन सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटा और एससी-एसटी एक्ट में बदलाव कर उसे मूल स्वरूप में वापस ले आई।

लेकिन, तीर निशाने से छूट चुका था। दलित वोट बैंक पर हर सियासी दल की नजर थी, सभी में कसमसाहट थी, लेकिन सबसे ज्यादा चिंता बीजेपी और आरएसएस में नजर आई। बीते कुछ महीनों में हुए लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों में बीजेपी की हार से उसकी चिंता हताशा में बदली और उसने दलितों को रिझाने के तमाम हथकंडे अपनाने का फैसला किया है।

बीएसपी सुप्रीमो को मोटे तौर पर दलित वोटों का स्वाभाविक हकदार माना जाता है और उत्तर प्रदेश में मुसलमानों और यादवों की राजनीतिक करने वाली समाजवादी पार्टी के साथ उसके गठबंधन की चोट गोरखपुर और फूलपुर से होती हुई कैराना तक बीजेपी पर दर्ज है। दलित वोटर लंबे समय तक कांग्रेस का भी कोर वोट बैंक रहा है, और देश के हर राज्य में कांग्रेस के क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन की आहट ने बीजेपी की चिंता और बढ़ा दी है।

राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अगर अमित शाह ने एससी-एसटी एक्ट को उपलब्धि के तौर पर जनता के सामने रखने के निर्देश दिए हैं, तो प्रधानमंत्री विपक्षी दलों के गठबंधन को लेकर परेशान दिखे। कार्यकारिणी के दूसरे दिन उनके भाषण में विपक्षी दलों के गठबंधन की छाया साफ नजर आई।

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बीजेपी की चिंता का एक कारण यह भी है कि दलितों का एक बड़ा धड़ा आरोप लगाता रहा है कि उनके उत्पीड़न के लिए आरएसएस जिम्मेदार है। इसीलिए जब सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट को कमजोर किया था तो संघ ने सफाई दी थी कि 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का न्यायालय के इस निर्णय से कोई संबंध नहीं है।' संघ ने कहा था कि "जाति के आधार पर किसी भी भेदभाव अथवा अत्याचार का संघ सदा से विरोध करता रहा है। इस प्रकार के अत्याचारों को रोकने के लिए बनाये गए कानूनों का कठोरता से पालन होना चाहिए।“

इसके बाद भीम आर्मी के गढ़ माने जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ में जुलाई माह में हुए संघ के राष्ट्रोदय सम्मेलन में भी संघ ने छुआछूत मिटाने पर जोर देते हुए जातीय भेद मिटाने का आह्वान किया था। उसी दौरान प्रधानमंत्री ने भी कहा था कि, “केंद्र सरकार आंबेडकर के रास्ते पर आगे बढ़ रही है।”

दरअसल 2014 में बीजेपी को सत्ता के सिंहासन तक पहुंचाने में उत्तर प्रदेश की मुख्य भूमिका थी, जो प्रधानमंत्री के अपने व्यक्तित्व से कहीं ज्यादा दलित वोटों को बीजेपी के पाले में लाने के लिए संघ की कसरत का नतीजा था। लेकिन अब जमीन खिसक रही है। उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनावों में विपक्षी महागठबंधन से मिला घाव अभी सूखा नहीं है। भीमा कोरेगांव हिंसा के नाम पर सामाजिक कार्यकर्ताओं पर नकेल कसने की कोशिशें नाकाम होने से बीजेपी की किरकिरी हो चुकी है और दलितों पर अत्याचार का मुद्दा फिर से जिंदा हो गया है। ऐसे में चंद्रशेखर रावण की रिहाई से अपने सांत्वना तलाश रही है बीजेपी।

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