हाल में ही मेक्सिको से खबर आई है कि पूर्व राष्ट्रपति मैनुएल लोपेज ऑबराडोर, यानि अमलो, के 2018 से 2024 के 6 वर्षों के कार्यकाल में वहां अत्यधिक गरीबों की संख्या में 1.34 करोड़ की कमी दर्ज की गई है। मेक्सिको के इतिहास में किसी भी राष्ट्रपति के कार्यकाल में इतनी बड़ी संख्या में गरीबों की स्थिति नहीं सुधरी है। इसका श्रेय अमलो की जनकल्याणकारी नीतियों को दिया जा रहा है, जिसमें 65 वर्ष से अधिक आयु के बुजुर्गों को सीधा कैश ट्रांसफर, युवाओं को अप्रेन्टिसशिप के नाम पर कैश सहायता, खाद्यान्न सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा और न्यूनतम वेतन को चार-गुणा तक बढ़ाना शामिल है।
अमलो ने न्यूनतम वेतन को 4.75 डॉलर प्रतिदिन से बढ़ाकर 15 डॉलर प्रतिदिन कर दिया था। पर, कुछ स्वतंत्र विश्लेषकों का आकलन है कि आंकड़ों से दूर जमीनी स्तर पर गरीबी में, विशेष तौर पर अत्यधिक गरीबी में, अंतर नहीं दिखता और स्वास्थ्य सुरक्षा की स्थिति पहले से बदतर हो गई है। वर्ष 2018 में लगभग 2 करोड़ आबादी को स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ नहीं मिल रहा था, वर्ष 2024 तक यह संख्या बढ़कर 4.4 करोड़ तक पहुंच चुकी है।
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हमारे देश में भी गरीबी हटाने के आंकड़े, विशेष तौर पर चुनावों के ठीक पहले, खूब प्रचारित किए जाते हैं और अनेक विशेषज्ञ इन्हें निराधार बताते हैं। सरकार की अपनी नीतियां भी इन आंकड़ों पर प्रश्न खड़ा करती हैं। वर्ष 2021 से 81 करोड़ से भी अधिक आबादी को हरेक महीने मुफ्त अनाज दिया जा रहा है और वर्ष 2028 तक यह सिलसिला चलता रहेगा। इन आंकड़ों से तो यही स्पष्ट होता है कि गरीबों की संख्या कम करने के दावों से सत्ता स्वयं आश्वस्त नहीं है। प्रधानमंत्री ने जनवरी 2024 में लोकसभा में वक्तव्य दिया था कि 25 करोड़ लोग पिछले 9 वर्षों में गरीबी रेखा से बाहर आकर मध्यम वर्ग में पहुंच गए हैं, पर उन्हें पहले जैसा ही सरकार द्वारा मुफ्त अनाज मिलता रहेगा। इससे इतना तो स्पष्ट है कि मध्यम वर्ग भी गरीब है और उसे भी हरेक महीने 5 किलो मुफ्त अनाज देकर जिन्दा रखने की जरूरत है।
मोदी जी द्वारा 25 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर करने का आधार जनवरी 2024 में नीति आयोग द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट है। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2005-06 में देश की 55.34 प्रतिशत आबादी गरीब थी, पर वर्ष 2013-14 तक यह संख्या 29.17 प्रतिशत ही रह गयी। इस पूरे दौर में डॉ मनमोहन सिंह की सरकार रही और इस रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2005 से 2014 के बीच 26.17 प्रतिशत आबादी गरीबी से बाहर आ गयी। इसके बाद 2022-23 में गरीबों की आबादी 11.28 प्रतिशत ही रह गयी। जाहिर है वर्ष 2014 से 2023 के बीच महज 17.89 प्रतिशत आबादी, यानि 24.82 करोड़ आबादी, ही गरीबी रेखा को लांघ पाई। यह पूरा दौर नरेंद्र मोदी का रहा, जिसमें आजाद भारत के किसी भी दौर से अधिक तेजी से गरीबी कम करने के लगातार दावे किये जाते रहे। पर, नीति आयोग की ही रिपोर्ट इस दावे को झूठा करार देती है।
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चीन की सरकार और विश्व बैंक लगातार प्रचारित करते रहे हैं कि 1980 और 1990 के दशक में वहां अर्थव्यवस्था के पूंजीवादी सुधार के असर से 80 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से बाहर आ गए और अब चीन में कोई भी गरीब नहीं है। अनेक अर्थशास्त्री भी इस दावे को खूब प्रचारित करते हैं और इसे पूंजीवादी व्यवस्था की एक बड़ी उपलब्धि बतालाते हैं। पर, न्यू पोलिटिकल ईकनॉमी नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार विश्व बैंक ने गरीबी हटाने का जो आकलन किया है वह भ्रामक है।
इस अध्ययन में 1981 से 1990 के दशक में जब चीन में समाजवाद का अंत हो रहा था तब वहां अत्यधिक गरीबी अपने न्यूनतम स्तर पर थी। इस दौर में महज 5.6 प्रतिशत आबादी अत्यधिक गरीब की श्रेणी में थी। इसके बाद पूंजीवादी सुधारों की शुरुआत हुई और बाजारवाद का उदय हुआ। पूंजीवाद ने लोगों से भोजन और आवास जैसी मुफ़्त सुविधाएं छीन ली और आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ने लगे। 1990 के दशक में चीन की 68 प्रतिशत जनता अत्यधिक गरीब की श्रेणी में पहुंच गई।
एक तरफ मुफ़्त भोजन और आवास की सुविधा छीनकर पूरी आबादी को बाजार के हवाले कर दिया गया। जाहिर है, इन सबसे गरीबी बेतहाशा बढ़ती गई। इसके बाद के दशकों में जब सुधारों के बाद बाजार स्थिर हुआ तब गरीबी घटने लगी पर उस तेजी से नहीं जैसा चीन सरकार और विश्व बैंक प्रचारित करते हैं। बेहद गरीब आज भी चीन में हैं पर सरकार इस दावे को नकारती है।
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गरीबों की संख्या तो अब अमेरिका और यूरोपीय देशों में भी बढ़ रही है। हरेक जगह पूंजीवादी व्यवस्था है और पूंजीवाद में देशों की अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ता है और इसके साथ ही गरीबी भी बढ़ती है। विश्व बैंक वर्ष 2021 के मूल्यों के आधार पर 3 डॉलर प्रतिदिन से काम कमा पाने वाले लोगों को गरीब बताता है। पर, यूनिवर्सिटी ऑफ बार्सेलोना, मककुआरी यूनिवर्सिटी और मास्टरिचट यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्रियों ने सम्मिलित तौर पर एक लेख में बताया है कि विश्व बैंक द्वारा निर्धारित गरीबों की परिभाषा यह नहीं बताती है कि किसी देश में 3 डॉलर प्रतिदिन में आप अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी कर सम्मान की जिंदगी जी सकते हैं या नहीं। गरीबी मापने का सही पैमाना लोगों की वास्तविक आय के संदर्भ में बुनियादी आवश्यकता, जैसे आहार, आवास, वस्त्र और ऊर्जा के कीमतों का आकलन है। इसके लिए उपभोक्ता सर्वेक्षण और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का सहारा लिया जा सकता है। इस आकलन से स्पष्ट है कि वैश्विक स्तर पर गरीबों की संख्या बढ़ रही है।
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पूंजीवादी व्यवस्था की चपेट में पूरी दुनिया है। पूंजीवादी व्यवस्था में अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ता जाता है पर आर्थिक असमानता भी बढ़ती जाती है। पूंजीवाद सबसे पहले प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करता है। पर्यावरण के विनाश के बाद असमानता और बढ़ती है क्योंकि दुनिया की एक बड़ी आबादी सीधे तौर पर पर्यावरणीय संसाधनों पर आश्रित है, जिसे पूंजीवाद उनसे छीन लेता है। बढ़ती आर्थिक असमानता के दौर में दक्षिणपंथी ताकतें सत्ता पर काबिज होती हैं और यही विचारधारा पूंजीवाद का पहले से अधिक समर्थन करती है। यह एक ऐसा सामाजिक और राजनैतिक दुष्चक्र है जिससे पूरी दुनिया प्रभावित है। इस दुष्चक्र को फूड एण्ड ऐग्रिकल्चर ऑर्गनाइजेशन के आंकड़ों से समझा जा सकता है। वर्ष 2014 में दुनिया की 21 प्रतिशत आबादी ऐसी थी जिसके पोषण का कोई भी विश्वसनीय स्त्रोत नहीं था, वर्ष 2022 तक यह आबादी 30 प्रतिशत तक पहुंच गई। अत्यधिक खाद्य असुरक्षा की चपेट में 7.7 प्रतिशत आबादी 2014 में थी, जो वर्ष 2022 तक 11.3 प्रतिशत तक पहुंच गई।
लगातार बढ़ती वैश्विक अर्थव्यवस्था में हरेक व्यक्ति के स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, स्वच्छता, ऊर्जा, और सम्मानजनक जीवन व्यतीत करने के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराने का सामर्थ्य है पर ऐसा होता नहीं है। पूंजीवाद में सभी संसाधन लूटे जाते हैं, जाहिर है ताकतवर ही इसे लूट सकते हैं। गरीबों के संसाधन अमीर लूटते हैं- यही लूट इन्हें पहले से अधिक अमीर बनाती है, और गरीब को पहले से भी अधिक गरीब। पूंजीवाद हमेशा गरीबी घटाने पर विमर्श करता है, विमर्श जितना अधिक होता है गरीबों की संख्या उतनी ही बढ़ती है।
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