विचार

आजादी की लड़ाई में महती भूमिका निभाने वाले बिहार में CWC की बैठक करेगी 'दूसरे स्वतंत्रता संग्राम' का आगाज

ऐसे राज्य में जहां जातीय गणित जातिगत जनगणना से टकराते हैं, उस राज्य होने वाली कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक सुनिश्चित करती नजर आती है कि कांग्रेस समावेशन पर फलती-फूलती है, बहिष्कार पर नहीं।

फोटो सौजन्य एक्स - @INCIndia
फोटो सौजन्य एक्स - @INCIndia 

कांग्रेस आज फिर उसी बिहार में अपनी कार्यसमिति की बैठक करने जा रही है जहां अविरल बहती गंगा के प्रवाह में स्वतंत्रता संग्राम की गूंज अभी भी सुनाई देती है। ऐतिहासिक सदाकत आश्रम में होने वाली कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक एक तरह से कांग्रेस की अपनी जड़ों की तरफ वापसी है। बिहार में राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा के दो सप्ताह बाद ही होने वाली इस बैठक को बिहार विधानसभा चुनावों से भी जोड़ा जा रहा है।

इस चुनाव में महागठबंधन अपनी वापसी की उम्मीद के साथ ही, कार्यसमिति की बैठक से कांग्रेस के नए नैरेटिव के भी सामने आने की संभावना है। इस बैठक के लिए कांग्रेस नेताओं के पटना पहुंचने का सिलसिला कल ही शुरु हो चुका है। कार्यकर्ताओं में उत्साह है और इतिहास गवाह है कि ऐसी बैठकों ने ही कांग्रेस को एक वाद-विवाद करने वाले समाज से एक जन-आंदोलनकारी शक्ति में बदल दिया जिसकी विरासत का इस्तेमाल अब समकालीन लोकतांत्रिक खतरों से लड़ने के लिए किया जा रहा है।

बिहार में कांग्रेस का पहला अधिवेशन दिसंबर 1912 में बांकीपुर (अब पटना का हिस्सा) में हुआ था, जो देश के पूर्वी हिस्से में पार्टी के बढ़ते प्रभाव का प्रतीक था। सेंट्रल प्रॉविंस के एक उदारवादी वकील रघुनाथ नारायण मुधोलकर की अध्यक्षता में हुए इस 27वें वार्षिक अधिवेशन में समाज के विविध तबकों के लोगों ने हिस्सा लिया था। महासचिव डी.ई. वाचा और डी.ए. खरे के नेतृत्व में, इस आयोजन की अध्यक्षता स्थानीय स्तर पर मज़हरुल हक़ ने की, जो एक दूरदर्शी मुस्लिम नेता थे, जिनके स्वागत भाषण की गूंज स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में हमेशा गूंजती रहेगी।

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1905 के बंगाल विभाजन और मॉर्ले-मिंटो सुधारों के तहत देश के इस उत्तरी हिस्से में अलग-अलग वोटरों की व्यवस्था से आहत उस समय के नेताओं ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। उनकी मांगे थीं कि संविधान में सुधार किए जाएं जिससे शाही और प्रांतीय विधान परिषदों में निर्वाचित बहुमत हो। मज़हरुल हक के जोश से भरे भाषण ने नीतिगत मुद्दों से परे एक गहरा प्रभाव डाला। उन्होंने ऐलान किया कि, "उदार मुसलमानों की एक शक्तिशाली पार्टी का उदय हुआ है, जिसके लक्ष्य और आदर्श कांग्रेस के समान हैं।" उन्होंने बिहार के लोगों से अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की रणनीति के खिलाफ भाईचारे और प्रेम का आह्वान किया। यह सिर्फ एक हवाई अपील नहीं थी बल्कि हिंदू-मुस्लिम एकता का एक ऐसा खाका था, जो सांप्रदायिकता की दरारों से कराहते उस सूबे के लिए बेहद ज़रूरी था।

इस अधिवेशन का महत्व बिहार की राजनीतिक धरती पर समावेशी राष्ट्रवाद के बीज बोने वाले एक सेतु-निर्माता के रूप में इसकी भूमिका में निहित था। इसने कांग्रेस को बंबई (आज मुंबई) केंद्रित अभिजात वर्ग के मंच से एक अखिल भारतीय मंच में बदलने की जमीन तैयार की जिसमें बिहार के राजेंद्र प्रसाद जैसे क्षेत्रीय दिग्गज भी शामिल थे।

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बाद के दिनों में कोई एक दशक के बाद जब असहयोग आंदोलन का जोश चौरा-चौरी कांड के बाद ठंडा होने लगा था, दिसंबर 1922 में कांग्रेस का 37वां अधिवेशन गया में आयोजित किया गया। इस सत्र में आत्ममंथन हुआ जिसमें देशबंधु के नाम से लोकप्रिय चितरंजन दास अध्यक्ष के तौर पर मंच पर थे। महात्मा गांधी द्वारा अचानक जनांदोलन रोकने की घोषणा के बाद माहौल गर्म था और तीखी बहसें भी हुईं।

गया अधिवेशन के बाद 1923 में स्वराज पार्टी के गठन को गति मिली और शिथिल पड़ते आंदोलन में नई ऊर्जा भरी गई। इसने औपनिवेशिक कमज़ोरियों को उजागर करते हुए, खासतौर से बिहार के लिए स्थानीय आवाज़ों को बुलंद किया। और राजेंद्र प्रसाद की भागीदारी ने भारत छोड़ो आंदोलन में बिहार की निर्णायक भूमिका सुनिश्चित की। गया सत्र ने स्थापित किया कि आंदोलन अपने शबाब पर है और अब इसकी भूमिका सिर्फ प्रार्थना याचिकाओं तक सीमित नहीं होगी। गया ने ही याद दिलाया कि स्वतंत्रता के लिए केवल सत्याग्रह की ही नहीं, बल्कि रणनीति की भी आवश्यकता होती है।

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बाद में मार्च 1940 में जब दुनिया दूसरे विश्व युद्ध में उलझी हुई थी, तो रांची के एक छोटे से इलाके रामगढ़ में 53वां सत्र हुआ। इस सत्र में उस समय कांग्रेस अध्यक्ष  मौलाना अबुल कलाम आजाद थे जो 1939 से पार्टी की कमान संभाले हुए थे। हालांकि निरंतर जारी बारिश के चलते यह सत्र बीच में खत्म करना पड़ा था। इस सत्र में ब्रिटेन द्वारा भारत को युद्धरत घोषित करने के एकतरफा फैसले का विरोध किया गया।

यहां केवल एक ही प्रस्ताव पारित हुआ, लेकिन वह भूचाल लाने वाला था। प्रस्ताव में पूर्ण स्वतंत्रता की मांग थी। इस सत्र में आज़ाद ने अपने अध्यक्षीय भाषण में जो कुछ कहा वह "आज की असली समस्या" - ब्रिटिश हठधर्मिता - का विश्लेषण करता हुआ अल्पसंख्यकों के समावेश के सूत्र बुनता है। उन्होंने घोषणा की, "मैं एक मुसलमान हूँ... पिछले तेरह सौ वर्षों की गौरवशाली परंपराओं के प्रति पूरी तरह जागरूक हूँ।" उन्होंने भारतीय मुसलमानों से अलगाववादी सरगोशियों के झांसे में आने के बजाय राष्ट्रीय एकता को अपनाने का आग्रह किया। इस सत्र में महात्मा गाँधी, नेहरू, पटेल और प्रसाद भी मौजूद थे।

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कांग्रेस के पूर्ण अधिवेशनों की ही तरह 1920 के नागपुर अधिवेशन में कांग्रेस कार्यसमिति का गठन किया गया। सी. विजयराघवाचार्य को इसकी जिम्मेदारी दी गई और इस समिति को पार्टी आंदोलन की हाईकमान के रूप में कार्य करने का अधिकार मिला। पार्टी अध्यक्ष के नेतृत्व में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी द्वारा निर्वाचित 15 प्रतिष्ठित नेताओं से बनी कांग्रेस कार्यसमिति ने असहयोग आंदोलन की रूपरेखा से लेकर युद्धकालीन रणनीतियों तक, नीतियों का संचालन किया। हालांकि बिहार के स्वतंत्रता-पूर्व कैलेंडर में कांग्रेस कार्यसमिति की कोई पूर्ण बैठक नहीं हुई थी।

1947 के बाद, कांग्रेस कार्यसमिति एक रणनीतिक शक्ति के रूप में विकसित हुई, जिसने नेहरूवादी समाजवाद से लेकर गठबंधन युग की सियासत तक का सफ़र तय किया। पटना में डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा स्वतंत्रता के केंद्र के रूप में स्थापित सदाकत आश्रम में होने वाली आज की बैठक ऐतिहासिक है, जोकि 1947 के बाद बिहार में पहली बार हो रही है। महागठबंधन में सीट बंटवारे की सुगबुगाहट के बीच, यह हाल में हुई वोटर अधिकार यात्रा से मिले जनसंचार का विश्लेषण करेगी। और वोट चोरी के दौर में आने वाले विधानसभा चुनावों को “दूसरे स्वतंत्रता संग्राम” के रूप में पेश करने की रणनीति पर फैसला ले सकती है।

ऐसे राज्य में जहां जातीय गणित जातिगत जनगणना से टकराते हैं,  उस राज्य होने वाली कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक सुनिश्चित करती नजर आती है कि कांग्रेस समावेशन पर फलती-फूलती है, बहिष्कार पर नहीं। छठ और दिवाली के बाद होने वाले 2025 के विधानसभा चुनाव इस बात की परीक्षा भी होंगे कि क्या बिहार की क्रांतिकारी भावना उस गठबंधन को परास्त कर सकती जिसका तानाबाना नीतीश कुमार ने बुना था।

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