विचार

मृणाल पाण्डे का लेखः चुनावी चर्चा, गाय से गोली तक

जब से दिल्ली में दबंगई जरूरत से ज्यादा बढ़ी, तब से छात्रों और महिलाओं पर अत्याचार देखकर जनता का मुंह सारे डर के बावजूद खुल गया। दरअसल हमारे यहां लोगों में धीरज तो है, पर तभी तक जब तक राजनीति में नए आक्रामक दस्तों के साथ नई सोच नहीं आती।

इलस्ट्रेशनः अतुल वर्धन
इलस्ट्रेशनः अतुल वर्धन 

दिल्ली चुनावों के नतीजे अपेक्षित रहे। अब पंडितगण महीनों तक टीवी पर इस पर चर्चे करेंगे। लेकिन हार-जीत के परे जाने पर दिखेगा कि दिल्ली विधानसभा का चुनाव एक नन्हे केंद्रशासित प्रदेश का चुनाव ही नहीं था। यह एक लंबी कड़ी का हिस्सा था, जिसकी कड़ियां अनुच्छेद 370 हटाकर कश्मीर के दो टुकड़े करने के दु:स्साहसी प्रयोग से जुड़ी हैं।

जिस तरह घाटी में घुसपैठ को कश्मीर की जननिर्वाचित राजनीतिक पार्टियों से जोड़कर सूबे का विभाजन कर एक हिस्से को तालाबंद कर दिया गया। लगभग उसी तरह शाहीनबाग और बिरियानी, जेएनयू और जामिया की मनोवैज्ञानिक युतियां बना कर गैरदक्षिणपंथी युवा छात्र संगठनों और अल्पसंख्य समुदाय को देश की एकता और संप्रभुता के लिए खतरनाक साबित करने की कोशिशें की गईं।

कुछ छुटभैये और कम अक्ल नेताओं को तो छोड़ दें, बीजेपी के पोढ़े, ओहदेदार और प्रौढ़ नेताओं के भाषण सुनते हुए भी कई बार लगा मानो उनके मुख से किसी हिंदी अपराध सीरियल के मवाली पात्र बोल रहे हों। सत्ता पर येन-केन काबिज होने की ऐसी, एक लगभग अश्लील उतावली उस सत्तासीन दल के लिए खास तौर से अशोभन है जो अभी कुछ महीने पहले रिकॉर्ड तोड़ मतों से निर्वाचित होकर केंद्र में आई है।

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हिंदी पट्टी चूंकि देश की राजनीति की धुरी रही है और इस बार दिल्ली यानी उसके मर्म का चुनाव जीतने की चुनौती थी। फिर भी सांप्रदायिक आधार पर राष्ट्र स्तरीय फूट का संदेश किसी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता। पहले असम के नागरिकता रजिस्टर को उस नए नागरिकता कानून से सार्वजनिक रूप से जोड़ा गया जो धर्मनिरपेक्ष संविधान में धार्मिकता को पैमाना बनाता है। उसके बाद हलचल मचने पर अल्पसंख्य समुदाय के बीच लगातार यह कह कर डर जगाया गया कि उनको अपनी नागरिकता साबित करने वाले कागज दिखाने ही पड़ेंगे, वरना वे शरणार्थी शिविर जाने को तैयार रहें।

फिर शांतिमय धरनों पर बैठी उम्रदराज और युवा माताओं, अपने विश्वविद्यालय परिसर में जबरन घुसे गुंडों को रोक रही अथवा कॉलेज कैंपस में सालाना फेस्ट मनाती छात्राओं पर लगातार हमले हुए, जिनके साथ की गई नारेबाजी से उनको अंजाम देने वालों की सांप्रदायिक मानसिकता की बाबत कोई शक नहीं रहने देती थी। इस सबके साथ ऐसी तमाम वारदातों के बीच केंद्रीय शासन के अधीन पुलिस खुली हिंसा का नाच चुपचाप देखती रही। जब अनेक बार हुआ, तो उम्मीद के उलट दिल्ली के मतदाताओं को लगने लगा कि टूट का ऐसा मंत्र पढ़ने वाले सत्ता में आकर जोड़ का मंत्र पढ़ पाएंगे या नहीं?

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इस जनता का एक बड़ा हिस्सा किसी न किसी वजह से विस्थापित होकर ही दिल्ली आया है। इसलिए फिर एक विस्थापन उसका सबसे बड़ा डर है और स्थिरता तथा एकजुटता उसकी सबसे गहरी कामना। इसीलिए 11 फरवरी को नतीजे आए तो पता चला कि गृहमंत्री जी से लेकर मनोज तिवारी तक के दावों के विपरीत दिल्ली के मतदाता ने अंत में सारी ऊहापोह छोड़कर केजरीवाल नीत ‘आप’ को घनघोर बहुमत देकर दिल्ली की सूबाई सत्ता तिबारा सौंप दी है। बीजेपी के नेतृत्व को यह होना सीधा संकेत दे रहा है कि आप सफल हो न हो, अगर आप स्वस्थ मानसिकता और सामाजिक समरसता बनाए रखने की क्षमता का प्रमाण नहीं दे पाए तो लोग आपको वोट नहीं देंगे।

यह भी गौरतलब है कि केजरीवाल, हेमंत सोरेन और उद्धव ठाकरे की ही तरह एक निर्माणाधीन नेता हैं, जिनको पूर्णाहुति से पहले केंद्रीय सिंहासन पर जा विराजने की अभी कोई आकांक्षा नहीं। पर वह उस आने वाले भारत की सोच और प्राथमिकताओं का आईना जरूर हैं, जिसके लिए धर्म का मतलब धारण करना तो हो सकता है, लेकिन झेलना नहीं। आगे बिहार और बंगाल के चुनाव हैं। निश्चय ही वहां बैठा इसी प्रजाति का नया मतदाता भी महज मुफ्त की भेंटों (फ्रीबी) या शब्दों के जादू से, रैलियों के सर्कस से, धमकी भरी पुलिसिया पहलवानी से आश्वस्त नहीं होगा।

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दिल्ली वालों की ही तरह वहां की सत्तासीन सरकार को गत पांच बरसों में राज्य की यथास्थिति से सफलतापूर्वक दो-चार होने के प्रमाणपत्र दिखाने पड़ेंगे जिनमें महंगाई और बेरोजगारी बहुत बड़ा मुद्दा होंगे। हो सकता है इनमें से कई विपक्षी मुख्यमंत्री निरर्थक साबित हों, लेकिन लोग उनको नकारने की राह खोज लेंगे। फिलहाल उनको अपने सूबे के लिए एक ऐसे प्रतीक चिन्ह सरीखे नेता की जरूरत है जो राज्य को एक बार फिर सांप्रदायिक और जातिवादी दंगों की तरफ न धकेले, बल्कि ठोस विकास का काम करे।

दिल्ली चुनावों के बीच अपनाई गई शीर्ष राजनेताओं की ‘गोली मारो…...को’ या ‘कागज नहीं दिखाया तो हम तुमको जूता दिखाएंगे’ या ‘बोली से नहीं माने तो गोली से मनवाएंगे’ जैसे फिकरों से भरी भाषा लोकधर्मिता का नहीं बल्कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा देने वालों के दल के भीतर बसी एक बीमार उत्पीड़न कामना और संवेदनशीलता की सिरे से गैरहाजिरी हो जाने का लक्षण था। इस तरह की गाली गलौज के पीछे लिंग, जाति और धर्म से जुड़े कई मध्यकालीन पूर्वाग्रह साफ झलकते हैं, जिनका लोकतंत्र में घुसना खतरनाक है। उम्मीद है बिहार और बंगाल में, जहां जनता लोकभाषा की धनी है, यह बात मन में रख कर ही राजनेता अपने श्रीमुख खोलेंगे।

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जब से दिल्ली में दबंगई जरूरत से ज्यादा बढ़ी तब से छात्रों, महिलाओं पर अत्याचार देख कर जनता का मुंह सारे डर के बावजूद खुल गया। दरअसल हमारे यहां लोगों में धीरज तो है, पर तभी तक जब तक राजनीति में नए आक्रामक दस्तों के साथ नई सोच नहीं आती। जब एक बार जनता को कष्ट देती रही सत्ता पीछे खिसकी तो दबे वर्गों को एक नया खुलापन और साहस मिल जाता है। उनकी भाषा, उनकी रणनीति नए रूप पकड़ती है।

मसलन जब हमारे यहां इस्लामी हमलावर आए, जातिवादी शासन खिसका, तो देव भाषा संस्कृत का मोल घटा और उसकी जगह जनभाषाओं ने सर उठाया। भक्ति, श्रृंगार, निर्गुणोपासना और तमाम वेद बाह्य वर्गों ने अपने उपधर्म तथा उनके मठ और अखाड़े बनाए जिनके नेतृत्व ने जनता को नया स्वर और जीने का सलीका दिया। अन्याय विरोधी जो बातें वेद बाह्य और आर्येतर जातियां अब तक राजाओं और पंडितों से नहीं कह पाई थीं, अब जनभाषा में खूब जोर शोर से आक्रामकता के साथ कही जाने लगीं।

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आज हम उसी तरह की स्थिति के सामने खड़े हैं। नई सदी की शुरुआत में नई सूचना संचार तकनीकी आई। उसने भारत की जनभाषा और जनमानस को धरती को आसमान से जोड़ने के लिए दो ताकतवर बवंडर नीचे से ऊपर की तरफ छोड़ने की प्रेरणा दी। एक उछाल कला जगत की तरफ से हुई जब सत्ता के विरोध में अवार्ड वापसी होने लगी। और फिर नए मीडिया खासकर सोशल मीडिया मंचों ने भारतीय भाषा भाषी जनता के बीच समांतर सोच के लिए जमीन बनाई। उसी का फल है कि आज राजनीति में हेमंत सोरेन, केजरीवाल, ठाकरे, ओवैसी या चंद्रशेखर या कन्हैया कुमार सरीखे देसी जनाधार वाले राजनेता सामने आने लगे हैं। वे पढ़े-लिखे और कुशल वक्ता हैं, जो चुनाव काल में भाषा के बढ़िया इस्तेमाल से धर्मसापेक्ष हिंसा और जातिवाद के भगवा परिधान कपड़े पहनाने का तर्कसंगत विरोध कर सकते हैं।

मीडिया के कुछेक बंधु बातचीत और शासन का यह नया तरीका पुरानी सामाजिक और राजनीतिक वर्जनाओं और गुटबंदियों के टूटने का लक्षण बताते हैं। पर सच यह है कि मध्यकालीन भारत की ही तरह आज भारत खासकर हिंदी पट्टी फिर से युगसंधि पर खड़ी है। जहां पारंपरिक समाज और उसकी भाषा को भीतर और बाहर दोनों तरफ से फिर एक बार चुनौती मिल रही है। हमारा राज-समाज आज फिर दो उग्र खेमों के बीच बंट गया है। हमारे प्रधानमंत्री हिंदी के कुशल वक्ता हैं, पर उनकी उम्र के विपक्ष के पास विचारों की बहुलता होते हुए भी देसी भाषा में उनकी सक्षम काट करने वाले वक्ता बिलकुल नहीं बचे।

लिहाजा लोक के मुहावरों पर अच्छी पकड़ रखने वाले प्रधानमंत्री प्रतिपक्षी पर आक्रामक प्रहार करते हुए उनको निपट बेवकूफ बताने का मौका शायद ही कभी गंवाते हों। 2014 और 2019 में उनका यह तेवर उनकी पार्टी को खूब लह भी गया। लेकिन देश की दैनंदिन जिंदगी से वह कट से गए हैं। मीडिया से वह दूर रहते हैं, न ही प्रेस सम्मेलनों में उभयपक्षी बातचीत। लिहाजा आज उनकी तरफ से वही मीडिया बोल रहा है, जिसका बड़ा भाग एक अधूरा राग दरबारी गाए जा रहा है। अंग्रेजी को पुराने सत्तापक्ष की इकलौती पहचान बना कर हिंदी मीडिया में उसकी खिल्ली उड़ाना आम हो गया है, पर अंग्रेजी एक तकनीकी की तलवार उठाए उसे फिर भी मुंह बिरा रही है।

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