विचार

नज़रिया: दिल्ली चुनाव के नतीजे कुछ भी हों, लेकिन राजधानी के अल्पसंख्यकों को क्या हासिल होगा !

दिल्ली चुनाव के नतीजे किसके पक्ष में गए यह तो 11 फरवरी को पता चलेगा, लेकिन क्या इससे देश की राजधानी और देश के अल्पसंख्यक तबके के लिए कोई संदेश निकलेगा? क्या लोकतंत्र में विश्वास रखने वालों को मायूसी नहीं होगी? 

फोटो : नवजीवन
फोटो : नवजीवन 

दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार गुरुवार शाम थम गया और इसके साथ ही थम गया दिल्ली की आबोहवा में राजनीतिक प्रचार के नाम पर जहर घोलने का काम। अब शनिवार को मतदान होगा। वैसे तो किसी भी लोकतंत्र की असली पहचान यह होती है कि मतदाता अच्छे उम्मीदवार और अच्छी पार्टी को चुनें, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद हमारे देश में इस बुनियादी नियमों का पालन नहीं होता। स्थिति यह है कि मतदाता वोट देते वक्त अपनी वफादारी, संबंध, सामुदायिक, धार्मिक और जातिवादी समीकरणों को ज्यादा महत्व देते हैं।

दिल्ली विधानसभा चुनाव में बी इसी तरह के संदेश नजर आ रहे हैं और मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जिन इलाकों का मैंने दौरा किया, वहां मतदाता ने बहुत ही स्पष्ट तरीके से कहा कि उनके इलाके में उम्मीदवार तो बहुत ही खराब है लेकिन वे वोट उस राजनीतिक दल के शीर्ष नेता को दे रहे हैं, फलां पार्टी बहुत अच्छी है, लेकिन हम उसे वोट नहीं दे सकते क्योंकि उससे हमारी नजदीकियां नहीं है आदि आदि। जब देश की राजधानी में शिक्षित समाज की यह स्थिति है और वह मतदाता इस तरह वोट दे रहा है तो लोकतंत्र के भविष्य पर सवाल लगते हैं।

जिस तरह देश के आम बजट महत्व खत्म होता जा रहा है क्योंकि अब सरकार पूरे साल आर्थिक नीतियों में बदलाव करती रहती है, उसी तरह अब राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणापत्र भी महज कागड का टुकड़ा रह गए हं क्योंकि वे अपने वादे पूरे करते ही नहीं हैं। दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी ने मतदान से 5 दिन पहले अपना घोषणापत्र जारी किया और इस दौरान किसी पत्रकार से कोई सवाल लिया ही नहीं। वहीं कांग्रेस पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में कुछ बेहद सकारात्मक वादे किए हैं, जैसे बेरोजगारी भत्ता आदि, लेकिन जिस तरह लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की न्याय योजना बालाकोट एयर स्ट्राइक में दब कर रह गई थी उसी तरह दिल्ली के लिए बेरोजगारी भत्ता शाहीन बाग के शोर में गुम हो गया। बीजेपी के घोषणापत्र में जो कुछ कहा गया है उसका खुद बीजेपी ही कहीं जिक्र नहीं कर रही और पार्टी के नेता सिर्फ शाहीन बाग और मुसलमान की बात करते रहे।

अमेरिका में जिस तरह दो मीडिया घराने फॉक्स और सीएनएन पार्टी लाइन पर बंटे नजर आते हैं, वैसा ही कुछ हाल देश के मीडिया का भी है, जहां एक खास तबका, सिर्फ ज़ी और रिपब्लिक को गीता समझता है, वहीं दूसरा तबका एनडीटीवी की खबरों की कस्में खाता है। ऐसे में सही को सही कहने और लिखने का तौर-तरीका खत्म होता जा रहा है और खुद को सही और विरोधी को गलत कहने का रिवाज बढ़ता जा रहा है।

दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे कुछ भी आएं और कोई भी पार्टी सरकार बनाए, लेकिन ये नतीजे देश के लोकतंत्र और देश के अल्पसंख्यकों के लिए एक बड़ा संदेश लेकर आएंगे।

खुले विचारों वाले लोग और देश के खौफजदा अल्पसंख्यक जहां यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि देश को बांटने वाला नागरिकता संशोधन कानून लाने वाली पार्टी इस चुनाव में हारे। और अगर दिल्ली की सत्तारूढ़ पार्टी जीतती है तो भी उदारवादी लोगों और अल्पसंख्यकों के लिए कोई अच्छी खबर नहीं होगी क्योंकि बीजेपी को हराने वाली पार्टी वह होगी जिसने इस लड़ाई में जीतने के लिए न सिर्फ समझौते किए बल्कि खुद को इस लड़ाई से इतना दूर रखा कि जेएनयू छात्रों पर नकाबपोशों के हमलों के बावजूद दिल्ली की सरकार ने रहस्मयी खामोशी बनाए रखी।

अगर नागरिकता संशोधन कानून बनाने वाली पार्टी शाहीन बाग के नाम पर सत्ता में आ जाती है तो फिर लोकतंत्र और देश के अल्पसंख्यकों की न सिर्फ शिकस्त होगी बल्कि उन्हें और भी ज्यादा मायूसी का शिकार होना पड़ेगा। दोनों पस्थितियों में लोकंत्र के बुनियादी उसूलों से समझौता और अल्पसंख्यकों से दूरी का फायदा सामने आएगा जो देश के बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के बीच और दूरियां बढ़ाएगा, क्योंकि राजनीतिक दलों को इस चुनाव से यह संदेश मिलेगा कि देश के अल्पसंख्यक और उनसे जुड़े मुद्दे चुनावी राजनीति के लिए महत्वहीन और अछूत हो गए हैं। और संभावना है कि जो राजनीतिक दल अभी तक लोकतंत्र में भरोसा करते हुए अल्पसंख्यकों की चिंता करती रही हैं, वे भी हार की स्थिति में खुद को इनसे दूर कर लें।

मुस्लिम बुद्धिजीवियों की अल्पसंख्यकों को मुद्दों से दूरी और उलेमा की राजनीतिक समझ और उसे खौफ के कारण अल्पसंख्यकों के सामने कोई राजनीतिक रणनीति नहीं थी, जिसके कारण खौफ के साए में जी रहे मतदाता के जहन में सिर्फ यह रहा कि वोट बंटने न पाए, कहीं बीजेपी सत्ता में न आ जाए। यानी, नेतृत्वहीनता, जज्बात और खौफ की वजह से अल्पसंख्यक बगैर सोच-समझे अपने हमदर्द और दुश्मन के अंतर को लेकर असमंजस में है और इसी कशमकश में वह ऐसे घेरे में जाता दिख रहा है जहां उसकी नागरिकता पर सवाल उठाने वाले उसे भेजना चाहते हैं।

देश के अल्पसंख्यकों के लिए और देश के लोकतंत्र के लिए आने वाले दिन तकलीफदे हो सकते हैं और अल्पसंख्यकों के पास इन हालात में खुद को तसल्ली देने के लिए इस जुमले से बड़ी रणनीति नहीं हो सकती, जिसमें कहा गया है, “दुनिया में मुसलमानों की मौजूदा स्थिति के लिए उसकी इस्लाम से दूरी और उसके आमाल (क्रियाकलाप) हैं।”

शाबाश ! यह होती रणनीति....

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