उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा ‘कानून व्यवस्था से जुड़ी चिंताओं’ की आड़ में अयोध्या और उसके पड़ोसी बाराबंकी जिले में दो परंपरागत सालाना उर्स समारोहों में एक की अनुमति न देना और दूसरे की अनुमति देकर रद्द कर देना एक प्रसिद्ध लोककथा के भेड़िए के ‘तर्क’ याद दिलाता है, जो उसने एक निरीह मेमने को अपनी शिकार बनाने के बहाने ढूंढते हुए दिए थे।
लोककथा के अनुसार, एक सुबह प्यासा मेमना जंगल में नदी के निचले बहाव वाले तट पर पानी पी रहा था, तो दूसरे किनारे पर अपना शिकार तलाशते भूखे भेड़िए की नजर में आ गया। जंगल के नियम-कायदों के मुताबिक, यों तो, भेड़िए के लिए अपनी भूख मिटाने के लिए मेमनों की जान ले लेना आम बात थी, लेकिन इस मामले में एक तो भेड़िया थोड़ा ‘नैतिक’ दिखना चाहता था, दूसरे मेमना इतना असहाय और मासूम था कि भेड़िए को इतने सस्ते में उसकी जान ले लेना ठीक नहीं लगा।
ऐसे में स्वाभाविक ही था कि उसे अपने पक्ष में तर्क की तलाश होती। इसी तलाश में उसने गुस्साते हुए मेमने को घुड़क कर पूछा, ‘तेरी हिम्मत कैसे हुई कि नदी का मेरे पीने का पानी पीकर उसे जूठा करे! इसके लिए तू कड़ी सज़ा का हकदार है और वह सजा मैं तुझे देकर रहूंगा!’
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बेचारा मेमना पहले तो कांप उठा, फिर अपनी सफाई में बोला, ‘गुस्सा मत कीजिए, महाराज! नदी का पानी तो आपकी तरफ से मेरी तरफ आ रहा है, क्योंकि मैं उसके निचले तट पर हूं और आप ऊंचे पर। ऐसे में मैं आपके पीने का पानी जूठा कैसे कर सकता हूं।’
बात सही थी, इसलिए भेड़िए ने नया ‘तर्क’ पेश किया, ‘सजा के पात्र तो तुम फिर भी हो, क्योंकि मैंने सुना है कि तुमने पिछले साल मेरे बारे में झूठ बोला और मुझे गालियां दी थीं!’
बेचारा मेमना! वह तो पिछले साल पैदा ही नहीं हुआ था! उसने यह बात भेड़िए को बताई तो उसने कहा, ‘तब जिसने मुझे गालियां दीं, वह तेरा भाई रहा होगा।’
इस पर मेमने का कांपता हुआ सा जवाब था, ‘लेकिन हुजूर, मेरा तो कोई भाई ही नहीं है।’
लेकिन अब तक भेड़िए का ‘धैर्य’ जवाब दे चुका था। वह गुर्राया, ‘क्या फर्क पड़ता है इससे! मुझे गालियां देने वाला मेमना जो भी रहा हो, वह, तुम्हारे ही परिवार का तो रहा होगा.’ और आगे बिना कुछ कहे मेमने को दबोच लिया।
तथ्य यह है कि अयोध्या के खानपुर मसोधा इलाके में स्थित दादा मियां की दरगाह हो (जिस पर होने जा रहे उर्स की अनुमति विश्व हिंदू परिषद द्वारा की गई एक शिकायत के बाद रद्द कर दी गई) या बाराबंकी में फूलपुर इलाके में सैयद शकील बाबा की दरगाह (जिसके उर्स समारोह की अनुमति देने से यह कहकर इनकार कर दिया गया कि कुछ ऐसे विवाद सामने आए हैं, जिनसे सांप्रदायिक तनाव पैदा हो सकता है)। यह बात अलग है कि इन दोनों जगहों पर उर्स के आयोजनों में अशांति या कानून व्यवस्था की समस्या पैदा होने की फिलहाल, एक भी पुरानी नज़ीर नहीं है।
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यह अयोध्या है...
वैसे भी सूफी मत की पुरस्कर्ता दरगाहों में किसी भी तरह की धार्मिक या सांप्रदायिक कट्टरता की जगह नहीं होती और ‘जो रब है, वही राम है’ का प्रचार किया जाता है। जहां तक अयोध्या की बात है, उसके स्वभाव में भी कट्टरता नहीं है। अयोध्या में कई पुरानी कब्रों व मजारों पर लगे पत्थर पढ़ें, तो पता चलता है कि कोई ईरान से आकर यहां मिट्टी का होकर रह गया तो कोई कहीं और से आकर अपना सूफियाना रंग देते-देते उसी के रंग में रंग गया।
अड़गड़ा स्वर्गद्वार में जिन इब्राहीम शाह का मजार है, उनके बारे में कहा जाता है कि वे ईरान से राजपाट छोड़कर अयोध्या आए और फकीरी में रम गए:
चाह गई चिंता मिटी मनवां बेपरवाह,
जिनको कछू न चाहिए, वे साहन के साह
और ऐसे शाह भी वे अकेले नहीं हैं। शाह मदार शाह भी हैं, खजंती शाह भी, शाह सम्मन फरियाद रथ और शाह फतहल्लाह शाह भी। जानकार बताते हैं कि न इन शाहों को कभी अयोध्या से कोई समस्या हुई, न अयोध्या को उनसे।
किसी की भी निगाह में वे आक्रांता या खलनायक नहीं रहे। इस्लाम के पवित्रतम स्थलों में से एक शीश पैगंबर अयोध्या के प्रख्यात मणि पर्वत (जहां से सावन का झूलनोत्सव शुरू होता है) के एकदम पास स्थित है और कोतवाली के बगल स्थित नौगजी कब्र अपने आकार को लेकर आकर्षण का केंद्र बनी रहती है। कई लोग अयोध्या को ‘पैगंबरों की नगरी’ या ‘खुर्द मक्का’ भी कहते हैं।
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ऐसे में समाजवादी विचार मंच के प्रदेश संयोजक अशोक श्रीवास्तव की मानें तो अयोध्या की समस्या सिर्फ सांप्रदायिक प्रशासन है। वे बताते हैं कि अयोध्या में प्रशासनों की प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों सांप्रदायिकताएं जब भी मौका पाती हैं, गुल खिलाने से बाज नहीं आतीं।
इन दिनों तो खैर उनकी मनचाही सरकार है, जिसमें उन्हें खुले खेल की छूट मिली हुई है, लेकिन बीजेपी से पहले की सरकारों के दौर में भी सांप्रदायिक प्रशासनों ने कुछ कम कारनामे नहीं किए। इसलिए कहा जाता है कि अयोध्या में सरकार जिसकी भी रहे, प्रशासन हमेशा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार के संगठनों खासकर विश्व हिंदू परिषद का ही रहता आया है।
निस्संदेह, जिन दोनों उर्स का जिक्र किया गया है, उनकी अनुमति से जुड़े फैसलों के वक्त योगी सरकार और उसके जिला प्रशासन इन बातों से अनभिज्ञ नहीं रहे होंगे। वह विश्व हिंदू परिषद भी नहीं, जिसने इस प्रबल उम्मीद में दादा मियां की दरगाह के उर्स को लेकर शिकायत की कि उसकी शुभचिंतक सरकार उसकी अनसुनी कर ही नहीं सकती.
इस शिकायत में उसने आरोप लगाया कि दादा मियां का उर्स ‘गाजी मियां’( सैयद सालार मसूद गाजी, बहराइच में शताब्दियों से लगते आ रहे जिनके जेठ मेले को इस बार प्रदेश सरकार ने नहीं लगने दिया) के नाम पर आयोजित किया जा रहा था।
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‘अपनों’ की ओर से की गई इस शिकायत को प्रदेश सरकार को आगे बढ़कर लपकना ही था, क्योंकि इससे पहले वह ‘आक्रांता, आक्रमणकारी, लुटेरे और हत्यारे’ गाजी मियां को खलनायक करार देकर उनकी याद में लगने वाले नेजा मेला (संभल) और बहराइच में उनकी दरगाह के इतिहास-प्रसिद्ध जेठ मेले पर रोक लगा चुकी थी।
उसकी समस्या यह है कि वह इस रोक को लेकर अपने आग्रहों के विरुद्ध कुछ भी सुनना नहीं चाहती। यह भी नहीं कि समाज और इतिहास के प्रवाह हमेशा एक से नहीं रहते और इतिहास के सत्ता संघर्षों को धार्मिक या सांप्रदायिक रंग देकर उनका बदला वर्तमान से लेने की कोशिशें कहीं नहीं पहुंचातीं। ऐसे में क्या पता कि उसे इस बात का इल्म भी है या नहीं कि उक्त मेले पर रोक का आदेश देने वाली वह कोई पहली सत्ता नहीं है।
जब सिकंदर लोदी ने मेला रोकना चाहा...
सोलहवीं शताब्दी में दिल्ली के सुल्तान सिकंदर लोदी (1489-1517) ने यह मेला रोकने को कोशिश की तो उसके ‘तर्क’ बिल्कुल दूसरे थे-योगी सरकार के तर्कों के सर्वथा विपरीत।
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यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो प्रेस से 2015 में प्रकाशित ‘कंक्वेस्ट ऐंड कम्युनिटी: ऑफ्टर लाइफ ऑफ वारियर सेंट गाजी मियां’ शीर्षक अपनी शोधपूर्ण पुस्तक में चर्चित सबाल्टर्न इतिहासकार शाहिद अमीन ने लिखा है कि उस समय के कट्टरपंथी अशराफ मुस्लिमों की तरह सिकंदर लोदी का भी मानना था कि यह मेला गैर-इस्लामिक है और हिंदुओं के एक हिस्से से मिलकर इस्लाम के निचले तबके व जातियों से आए अनुयायियों को भ्रष्ट करके रास्ते से हटाने और ‘असभ्य’ बनाने के लिए लगाया जाता है।
लेकिन, अमीन ने लिखा है कि सिकंदर लोदी इस मेले को रोकने के अपने इरादे में सफल नहीं हो पाया था क्योंकि आगरा, बनारस और नेपाल तक फैले गाजी मियां के अनुयायियों को रोकना उसके लिए संभव नहीं हुआ था।
दरअसल, उन दिनों पंजाब व बिहार के बीच के उत्तर भारत के बड़े क्षेत्र में गाजी मियां का प्रभाव था, जहां से उनके अनुयायी हर साल उनके ‘निशान’ (झंडे) को ऊंचा उठाए इस मेले में आते थे।इतना ही नहीं, उनके हिंदू-मुस्लिम अनुयायियों के अनेक ‘गवई’ समूह निशान ऊंचा उठाए उनकी महिमा भी गाते रहते थे।
गाजी मियां के ‘चरित गायक’ सूफी अब्दुर्रहमान ने भी अपनी एक पुस्तक में इसका उल्लेख किया है कि इस्लाम के कुछ व्याख्याकार उसके आध्यात्मिक गुरु (गाजी मियां) को लेकर किस कदर असहज हैं।
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अकबर के दौर में
बाद में मुगलों का दौर आया तो एक साल बादशाह अकबर (1556-1605) अपनी राजधानी अकबराबाद (आगरा) के पास जेठ की लू और तपिश के बीच रंग-बिरंगे निशान लिए बहराइच जाती श्रद्धालुओं के मनोहारी जमावड़े को उसके बीच जाकर देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाए थे। वे भेष बदलकर उसमें शामिल हो गए और देर तक उसका वह मनोविज्ञान पढ़ते रहे थे, जिसके तहत वह यमुना, गंगा और घाघरा जैसी तीन नदियों को पारकर गाजी मियां के दर बहराइच पहुंचने के लेकर उत्साहित था।
अबुल फजल ने ‘अकबरनामा’ में लिखा है कि उस जमावड़े में भारत की रवायत (पंरपरा) के अनेक अच्छे-बुरे रंग देखकर वे खो से गए थे। एक बार जब एक व्यक्ति के अभिवादन से लगा कि वे पहचान लिए जाएंगे तो उन्होंने अपनी आंखें भैंगी कर ली थीं और फौरन वापस लौट पड़े थे. बाद में उन्होंने गाजी मियां की दरगाह के लिए जमीन भी दी थी, जिसे अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने रीइन्फोर्स किया था। उनके बेटे आसफउद्दौला के बारे में कहा जाता है कि वे हर हाल गाजी मियां के दर पर हाजिरी देते थे.
अंत में एक और पहलू का जिक्र। ऐसा कभी नहीं था कि गाज़ी मियां सबके आध्यात्मिक गुरु या सबके लिए आक्रांता ही रहे हों। अलबत्ता, उनके आलोचक भी उनकी निंदा की सीमा तक जाने से परहेज़ बरतते रहे हैं।
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डफाली से पूछिए
मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी तो यहां तक लिख गए हैं:
सय्यद की सरगुजश्त को हाली से पूछिए,
गाजी मियां का हाल डफाली से पूछिए
(अपने वक्त के मशहूर शिक्षाविद सर सय्यद के जीवन के अनुभव जानने हों तो तो उनके जीवनी लेखक हाली से पूछिए और गाजी मियां की बाबत जानना हो तो उनके गाथा गायक डफाली से पूछिए।)
डफाली यानी डफली बजा-बजाकर गाज़ी मियां की गाथा सुनाने वाले, जो डफली बजाने के कारण ही डफाली कहलाने लगे। दूसरी ओर अवध में एक कहावत है कि
मजा मारैं गाजी मियां,
धक्का सहैं मुजावर
यहां जान लेना चाहिए कि दरगाह का चढ़ावा लेने वाले फकीर को मुजावर कहते हैं.
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