विचार

राम पुनियानी का लेखः क्या आरएसएस ने भारत की आजादी के लिए कुर्बानियां दी थीं?

आरएसएस को लेकर पीएम मोदी के दावों का सच्चाई से कोई नाता नहीं है। आरएसएस हिन्दू राष्ट्र के लिए कार्य करने वाला संगठन है और उसका आजादी के आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं था जिसका लक्ष्य एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, समावेशी राष्ट्र की स्थापना करना था।

क्या आरएसएस ने भारत की आजादी के लिए कुर्बानियां दीं थीं?
क्या आरएसएस ने भारत की आजादी के लिए कुर्बानियां दीं थीं? फोटोः सोशल मीडिया

आरएसएस की स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो स्वयं आरएसएस के प्रचारक रह चुके हैं, ने संघ की तारीफों के पुल बांधे। उन्होंने कहा कि संघ ने देश की आजादी के लिए बड़ी-बड़ी कुर्बानियां दीं और चिमूर जैसे कई स्थानों पर ब्रिटिश शासन का विरोध भी किया। उनके अनुसार राष्ट्र निर्माण में संघ का जबरदस्त योगदान है।

सच क्या है? आजादी की लड़ाई संयुक्त भारतीय राष्ट्रवाद, जिसका मुख्य तत्व समावेशिता था, के पक्ष में थी। मुस्लिम सांप्रदायिक तत्व, मुस्लिम राष्ट्र के लिए संघर्ष कर रहे थे और हिन्दू सांप्रदायिक तत्व (आरएसएस, हिन्दू महासभा) हिन्दू राष्ट्र के लिए। हालांकि सावरकर आरएसएस में नहीं थे लेकिन वे एक तरह से हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र के प्रमुख सिद्धांतकार और सरपरस्त थे। वे काफी हद तक आरएसएस के मार्गदर्शक थे। माफी मांगने और पहले अंडमान और बाद में रत्नागिरी जेल से रिहा होने के बाद, सावरकर ने कभी आजादी के आंदोलन का समर्थन नहीं किया और उन्हें पेंशन के रूप में एक बड़ी राशि 60 रूपये (जो आज के लगभग 4 लाख रूपये के बराबर है) हर माह मिलती थी। उन्होंने ब्रिटिश सेना में भारतीयों की भर्ती के लिए अंग्रेजों की मदद भी की।

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हालांकि हेडगेवार, जो बाद में आरएसएस के प्रथम सरसंघचालक बने, ने खिलाफत आंदोलन में भाग लिया था और वे एक साल जेल में भी रहे थे। इस आंदोलन में मुस्लिमों के साथ भाग लेने और बाद में केरल के मापोलिया विद्रोह (जो मुख्यतः किसानों का जमींदार विरोधी संघर्ष था) में हिस्सेदारी करने के बाद उनके अन्दर का हिन्दू राष्ट्रवादी जाग उठा और उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी। बाद में अन्य चितपावन ब्राम्हणों के साथ वे आरएसएस के संस्थापकों में से एक बने। संघ की स्थापना की एक वजह यह थी कि उसके संस्थापक ब्राम्हण जमींदारों के खिलाफ गैर-ब्राम्हणों के उस आंदोलन से चिंतित थे जो दलितों के सशक्तिकरण का परिचायक था। दूसरा कारण था गांधीजी का आजादी की लड़ाई से मुस्लिमों सहित समाज के सभी वर्गों को जोड़ने का प्रयास। तीसरा कारण था उनका मुसोलिनी और हिटलर से प्रेरित होना।

संघ का राष्ट्रवाद ‘अलग‘ था यह तब स्पष्ट हुआ जब पंडित नेहरू ने 26 जनवरी 1930 को तिरंगा फहराने का आह्वान किया। हेडगेवार ने भी झंडा फहराने का आह्वान किया, किंतु भगवा झंडा फहराने का। अभी हाल में संघ की स्थापना के सौ वर्ष पूर्ण होने पर जारी किए गए स्मारक सिक्के पर भारत माता की तस्वीर भगवा झंडे के साथ दिखाई गई है ना कि तिरंगे के साथ। तिरंगे को संविधान में स्वीकार्यता दी गई और सरकार ने इसे 15 अगस्त 1947 को फहराने की योजना बनाई।

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आरएसएस पर विस्तृत अध्ययन और शोध करने वाले एक प्रबुद्ध अध्येता श्मसुल इस्लाम लिखते हैं ‘‘आरएसएस के अंग्रेजी भाषा के मुखपत्र आर्गनाईजर ने अपने 14 अगस्त 1947 के अंक में राष्ट्रध्वज के विरूद्ध लिखा कि इसे ‘हिंदू कभी स्वीकार नहीं करेंगे और कभी अपना नहीं मानेंगे। तीन की संख्या अपने आप में मनहूस है और तीन रंगों वाले ध्वज का देश पर बहुत बुरा भावनात्मक प्रभाव होगा और यह देश के लिए हानिकारक होगा‘‘।

हेडगेवार नमक सत्याग्रह में शामिल हुए थे क्योंकि उन्हें लगा कि यह जेल में बंद स्वतंत्रता सेनानियों को अपने संगठन की ओर आकर्षित करने का एक अच्छा अवसर है। इसलिए उन्होंने सरसंघचालक के पद से इस्तीफा दिया, जेल गए और जेल से रिहा होने के बाद दुबारा वही पद ग्रहण किया। इस दौरान उन्होंने अन्य लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के प्रति हतोत्साहित किया। एक संगठन के रूप में आरएसएस ने किसी भी ब्रिटिश विरोधी आंदोलन में भाग नहीं लिया।

सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उनके कई दावों की कलई खुल गई और उनका खोखलापन सामने आ गया। अटल बिहारी वाजपेयी ने दावा किया था कि उन्होंने आजादी की लड़ाई में हिस्सेदारी की थी। ‘‘1998 के आम चुनावों के दौरान उन्होंने मतदाताओं के लिए एक अपील जारी की थी जिसमें उन्होंने कहा था कि वे न केवल शाखा स्तर पर आरएसएस के लिए काम कर रहे थे बल्कि उन्होंने आजादी के आंदोलन में भी भाग लिया था‘‘।

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हकीकत यह है कि वे उस दौरान आरएसएस में थे और चूंकि स्कूल-कालेज बंद हो गए थे इसलिए वे अपने पैतृक गांव बटकेश्वर चले गए थे। वहां वे दूर खड़े होकर भारत छोड़ो आंदोलन के सिलसिले में निकाले गए एक जुलूस को देख रहे थे। वे चूंकि वहां मौजूद थे, इसलिए उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने आनन फानन में एक पत्र लिखकर यह स्पष्टीकरण दिया कि वे उस जुलूस में शामिल नहीं थे और कुछ ही दिनों में उन्हें रिहा कर दिया गया।

वो लिखते हैं, ’’27 अगस्त 1942 को दोपहर लगभग 2 बजे काकू उर्फ लीलाधर और महुना आला पहुंचे और उन्होंने भाषण दिया तथा लोगों को वन कानून तोड़ने के लिए राजी करने का प्रयास किया। दो सौ लोग वन विभाग के कार्यालय गए और मैं भी अपने भाई के साथ भीड़ के पीछे गया और बटेश्वर के वन विभाग के कार्यालय पहुंचा। मेरे भाई नीचे रूके रहे और बाकी सब लोग ऊपर गए। मैं काकू और महुना, जो वहां मौजूद थे, के अलावा भीड़ में शामिल किसी भी अन्य व्यक्ति का नाम नहीं जानता‘‘।

उस समय गोलवलकर सरसंघचालक थे। ‘‘सन् 1942 में कई लोगों के दिलों में तीव्र भावनाएं थीं। तब भी संघ का सामान्य कार्यकलाप जारी रहा। संघ ने स्वयं सीधे कोई कार्यवाही न करने का निश्चय किया।" (श्री गुरूजी समग्र दर्शन खंड 4 पृष्ठ 39-40)। आरएसएस के विचारक स्पष्ट शब्दों में बताते हैं कि अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष कभी उनके एजेंडे का हिस्सा नहीं रहा। ‘‘हमें यह याद रखना चाहिए कि अपनी प्रतिज्ञा में हम धर्म और संस्कृति की रक्षा के माध्यम से देश की आजादी की बात करते हैं, इसमें अंग्रेजों को यहां से भगाने का कोई जिक्र नहीं है।‘‘

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गोलवलकर के एक अपेक्षाकृत बड़े उद्धरण से उनका समग्र रवैया स्पष्ट होता है। ‘‘देश में समय-समय पर पैदा होने वाले हालातों को लेकर मन में कुछ व्याकुलता उत्पन्न होती थी। सन् 1942 में भी इसी तरह की व्याकुलता थी। इसके पहले 1930-31 में आंदोलन हुआ था। उस दौरान भी कई लोग डॉक्टरजी (हेडगेवार) के पास गए। इस प्रतिनिधिमंडल ने डॉक्टरजी से अनुरोध किया कि इस आंदोलन के जरिए आजादी हासिल होगी और संघ को भी इसमें भागीदारी करनी चाहिए।

उस समय जब एक सज्जन ने डॉक्टरजी से कहा कि वे जेल जाने को तैयार हैं, तब डॉक्टरजी ने उनसे कहा ‘‘जरूर जाईए, पर आपके जेल जाने पर आपके परिवार की देखभाल कौन करेगा‘‘? उन सज्जन ने जवाब दिया ‘‘मैंने न केवल घर के दो साल के खर्चे के लिए पर्याप्त व्यवस्था कर दी है बल्कि आवश्यकतानुसार जुर्माना अदा करने के लिए भी इंतजाम कर दिया है‘‘। तब डॉक्टरजी ने उनसे कहा ‘‘अगर आपने खर्चों के लिए पर्याप्त व्यवस्था कर दी है तो आईए और संघ के लिए दो साल तक कार्य करिए‘‘। घर पहुंचने के बाद वे सज्जन न तो जेल गए और ना ही संघ के काम में जुटे‘‘। 

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गोलवलकर यह भी बताते हैं कि ‘‘उस समय भी संघ का सामान्य कामकाज जारी रहा। संघ ने सीधे कुछ भी न करने का संकल्प लिया, हालांकि संघ के कार्यकर्ताओं के दिलों में उथलपुथल जारी रही। संघ निष्क्रिय लोगों का संगठन है, वे बेमतलब की बातें करते हैं, न केवल संघ के बाहर के लोग बल्कि हमारे बहुत से कार्यकर्ता भी इस तरह की बातें करते थे। वे बहुत निराश भी थे। लेकिन संघ का कोई भी ऐसा प्रकाशन या दस्तावेज नहीं है जो भारत छोड़ो आंदोलन के लिए संघ द्वारा परोक्ष रूप से किए गए महान कार्य पर थोड़ी सी भी रोशनी डालता हो‘‘।

मोदी के दावों का सच्चाई से कोई नाता नहीं है। आरएसएस हिन्दू राष्ट्र के लिए कार्य करने वाला संगठन है और उसका आजादी के आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं था जिसका लक्ष्य एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, समावेशी राष्ट्र की स्थापना करना था।

(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)

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