विचार

राम पुनियानी का लेखः स्वतंत्र भारत के सपने जो मोदी सरकार में चूर हो गए, आजादी के जश्न के साथ चिंतन जरूरी

आज देश में जीवनयापन के साधनों, कृषि, महंगाई, स्वास्थ्य सुविधाएं और बेहतर शैक्षणिक संस्थानों पर बात नहीं होती। बात होती है उन भावनात्मक मुद्दों पर जिन्हें सरकार अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में बनाए रखना चाहती है।

फाइल फोटोः पीटीआई
फाइल फोटोः पीटीआई 

औपनिवेशिक शासन से भारत की मुक्ति के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने स्वाधीनता आंदोलन के नेताओं के सपनों और आकांक्षाओं का अत्यंत सारगर्भित वर्णन अपने प्रसिद्ध भाषण 'ए ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी' में किया था। उन्होंने कहा था, "जिस उपलब्धि का उत्सव हम आज मना रहे हैं वह बड़ी जीतों और उपलब्धियों की राह में एक छोटा सा कदम भर है।" अपने वादों को पूरा करते हुए नेहरू ने भारत के प्रजातंत्र को मजबूत और गहन बनाने और एक व्यक्ति एक मत के सिद्धांत को साकार करने की दिशा में कई कदम उठाए।

इसके समानांतर उन्होंने आधुनिक भारत की नींव भी रखी। जो नीतियां उन्होंने अपनाईं निःसंदेह उनमें कुछ कमियां भी रही होंगीं, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि उन नीतियों के कारण देश ने विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में आशातीत प्रगति की। सीएसआईआर, बार्क और आईआईटी इसके कुछ उदाहरण हैं। इन्हीं नीतियों के फलस्वरूप देश में हरित और फिर श्वेत क्रांति आई और औसत भारतीय के जीवन स्तर में सुधार हुआ। समय के साथ दलितों और पिछड़ों के सशक्तीकरण के लिए सकारात्मक नीति अपनाई गई और दूरस्थ आदिवासी इलाकों में भी विकास की बयार पहुंची।

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ऐसा नहीं था कि सब कुछ एकदम बढ़िया था। नीतियों के प्रभावी कार्यान्वयन में कई बाधाएं आईं। वैज्ञानिक सोच को प्रोत्साहन भले ही भारत के संवैधानिक लक्ष्यों में शामिल रहा हो परंतु देश परंपरानिष्ठ ही बना रहा और अंध श्रद्धा और अंधविश्वास से जनमानस की पूर्ण मुक्ति नहीं हो सकी। समाज पर धार्मिकता की पकड़ कमजोर भले हुई हो, परंतु समाप्त नहीं हुई। इसी धार्मिकता को उभारकर संप्रदायिक ताकतों ने राम मंदिर के मुद्दे को हवा दी और इस मुद्दे ने देश में सांप्रदायिक ताकतों के प्रभाव क्षेत्र में जबरदस्त वृद्धि की।

हमारे गणतंत्र की विकास यात्रा में यह पहली बड़ी बाधा थी। इसके बाद तो राज्य की प्राथमिकताएं ही बदल गईं। सांप्रदायिक ताकतें, जो समाज के हाशिए पर थीं, केन्द्र में आ गईं और बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के बाद से उनका बोलबाला बहुत बढ़ गया। सन् 1984 के सिख-विरोधी दंगों के साथ देश में सांप्रदायिक हिंसा ने भयावह रूप लेना शुरू कर दिया। मुंबई (1992-93), गुजरात (2002), कंधमाल (2008), मुजफ्फरनगर (2013) और दिल्ली (2020) इसके उदाहरण हैं।

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सिख-विरोधी हिंसा एक बार घटित होने वाली त्रासदी थी, परंतु मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का कोई अंत नहीं था। वह बार-बार और देश के अलग-अलग इलाकों में जारी रही। पिछले कुछ दशकों में देश में ईसाई-विरोधी हिंसा भी जड़ें जमाने लगी हैं। यद्यपि यह हिंसा बहुत बड़े पैमाने पर नहीं होती परंतु यह अनवरत जारी रहती है। बीजेपी के अपने बल पर केन्द्र की सत्ता में आने के बाद से हालात बद से बदतर हो गए हैं। अल्पसंख्यकों में असुरक्षा का भाव बढ़ता जा रहा है और सभी हाशियाकृत समुदाय निशाने पर हैं। इस सरकार का एजेंडा सांप्रदायिक है और यही कारण है कि हाशियाकृत समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में लगातार गिरावट आ रही है।

राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचित जातियां पर हमले की घटनाओं में 7.3 प्रतिशत और अनुसूचित जनजातियों पर हमले की घटनाओं में 26.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अल्पसंख्यक तेजी से अपने-अपने मोहल्लों में सिमट रहे हैं। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारत के निवासियो में परस्पर बंधुत्व का जो भाव विकसित हुआ था, उसका स्थान शत्रुता के भाव ने ले लिया है।

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यद्यपि हमारी सरकार यह दावा करती है कि 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' उसकी नीति है, लेकिन सच यह है कि उसके राज में चंद कॉरपोरेट घराने और श्रेष्ठि वर्ग का एक तबका तो दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रहा है, परंतु आम लोगों की जिंदगी दूभर होती जा रही है। जीवन के लिए आवश्यक चीजों की कीमतें आसमान छू रही हैं और पेट्रोल और डीजल के दाम रोजाना बढ़ रहे हैं।

प्रेस की स्वतंत्रता, भूख, रोजगार और अन्य सामाजिक सूचकांकों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्थिति में सुधार हो रहा था, पर अब हालात इसके ठीक उलट हो गए हैं। सेंटर फॉर इकोनॉमिक डेटा एंड एनालिसिस के अनुसार भारत की वर्तमान बेरोजगारी दर, 1991 के बाद से सबसे ज्यादा है। साल 2019 में यह दर 5.27 प्रतिशत थी, जो 2020 में बढ़कर 7.11 प्रतिशत हो गई। इसके मुकाबले बांग्लादेश में यह दर 5.13, श्रीलंका में 4.84 और पाकिस्तान में 4.65 प्रतिशत है।

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प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में विश्व के देशों में भारत का रैंक साल 2016 के 133 से गिरकर साल 2020 में 142 रह गया है। इस सूचकांक में नेपाल का रैंक 106, श्रीलंका का 127, पाकिस्तान का 145 और बांग्लादेश का 152 है। जहां तक धार्मिक स्वतंत्रता का सवाल है, इतिहास में पहली बार यूएस कमीशन ऑन इंटरनेशनल फ्रीडम ने भारत को सबसे निचली श्रेणी 'कंट्रीज ऑफ पर्टीक्युलर कन्सर्न' (वे देश जो विशेष चिंता का विषय हैं) में रखा है। देश में सीएए और एनआरसी को लागू किए जाने की चर्चा और दिल्ली व अन्य इलाकों में अल्पसंख्यक विरोधी हिंसा के प्रकाश में भारत को इस श्रेणी में स्थान दिया गया है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट- 2019 में 117 देशों में भारत का दर्जा 102वां है। भारत की सरकार की विरोधियों और आंदोलनकारियों के खिलाफ असहिष्णुता का आलम यह है कि पिछले 8 महीने से राष्ट्रीय राजधानी की सीमा पर बैठे किसानों से सरकार कोई सार्थक संवाद प्रारंभ तक नहीं कर सकी है।

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पिछले सात वर्षों में गौ मांस, लव जिहाद, घर वापसी आदि जैसे मुद्दों के चलते अल्पसंख्यकों के विरूद्ध नफरत और हिंसा का वातावरण बना है और देश के नागरिकों की मूलभूत समस्याओं पर से लोगों का ध्यान हटाने के भरपूर प्रयास हुए हैं। आज देश में जीवनयापन के साधनों, कृषि, महंगाई, स्वास्थ्य सुविधाएं और बेहतर शैक्षणिक संस्थानों पर बात नहीं होती। बात होती है उन भावनात्मक मुद्दों पर जिन्हें सरकार अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में बनाए रखना चाहती है। देश अब भी नोटबंदी के झटके से उबर नहीं सका है। छोटे व्यापारी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गई है।

सरकार देश की शासन व्यवस्था के संघीय चरित्र को नष्ट करने पर आमादा है। अनेक राज्यों के राज्यपाल सत्ताधारी पार्टी के नेताओं जैसा व्यवहार कर रहे हैं। कोविड महामारी से जिस तरह निपटा गया और जिस प्रकार बिना किसी चेतावनी के देश में लॉकडाउन लागू किया गया, उससे जाहिर होता है कि हमारी सरकार को आम लोगों की जिंदगी से कोई लेना-देना नहीं है। पेगासस मामले में खुलासों ने देश की अर्न्तात्मा को झकझोर कर रख दिया है।

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वर्तमान सरकार और उसके पथ प्रदर्शक आरएसएस ने हमारे देश को प्रजातंत्र, बंधुत्व और जनकल्याण के मामलों में कई दशक पीछे धकेल दिया है। और इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं है क्योंकि इस सरकार का एजेंडा धार्मिक अल्पसंख्यकों के बहिष्करण और जातिगत व लैंगिक पदक्रम को बनाए रखना है ताकि उन धर्मग्रंथों की शिक्षाओं का अक्षरशः पालन हो सके जो इस सरकार की राजनैतिक विचारधारा का आधार हैं। हम केवल यह उम्मीद कर सकते हैं कि जल्द से जल्द इस विचारधारा की बजाए हमारे देश के स्वाधीनता संग्राम के मूल्य हमारे पथ प्रदर्शक बनें।

(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)

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