विचार

किसान आंदोलनः सावधान, कहीं सरकार झुकने का सिर्फ दिखावा तो नहीं कर रही!

किसान आंदोलन से निबटने में सबसे बड़ी चूक अमित शाह की रही है। उन्हें भरोसा था कि संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) के खिलाफ आंदोलन के समय जिन तरीकों का इस्तेमाल किया था, उसी तरह की तिकड़मों के जरिये किसान आंदोलन से भी निबटने में कामयाबी मिलेगी लेकिन इसका उल्टा हुआ।

फोटोः gettyimages
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सतही तौर पर भले ही लगे कि सरकार विवादित कृषि कानूनों को लेकर झुक गई है या थोड़ा पीछे हट गई है, लेकिन सरकार के कदमों पर यकीन न करने की कई वजहें हैं। आखिर, दूध का जला छांछ भी फूंक-फूंककर पीता है।

सच्चाई तो यही है कि केंद्र सरकार ने शुरू से ही किसान आंदोलन को तोड़ने, इसे दिशा से भटकाने, इसे लेकर भ्रम फैलाने की हरसंभव कोशिश की। एक तरफ तो सरकार आंदोलनकारियों से वार्ता करती रही, दूसरी ओर, बीजेपी-शासित उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में वैसे लोगों को परेशान करने की घटनाएं भी लगातार सामने आती रहीं जो इस आंदोलन को स्थानीय स्तर पर समर्थन दे रहे हैं या दिल्ली बाॅर्डर पर भाग लेने आए हैं। इस सिलसिले में शाहजहांपुर, बरेली, मुजफ्फरनगर, बिजनौर आदि की घटनाएं सामने हैं, जहां लोगों को तरह-तरह से परेशान किया गया।

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लेकिन सब जुगत के बाद भी आंदोलन नहीं टूटा। ऐसे में, अब 26 जनवरी को प्रस्तावित ट्रैक्टर परेड से सरकार का चिंतित होना स्वाभाविक है। सरकारी रुख में बदलाव की यह एक बड़ी वजह तो है ही। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से इस पर रोक लगवाने का तरीका अपनाया, लेकिन कोर्ट ने अपने हाथ झाड़ लिए, तो फिर सरकार में पशोपेश उचित ही है।

लेकिन सरकार को अपनी राय में थोड़ा बदलाव दो अन्य कारणों से करना पड़ा है। बीजेपी ने शुरू में सोशल मीडिया के जरिये इस आंदोलन को खालिस्तानियों से जोड़ने की हरसंभव कोशिश की। वह विफल रही, क्योंकि आंदोलनकारियों ने लगातार संयम बनाए रखा। उधर, पंजाब और हरियाणा में बीजेपी विधायकों और नेताओं को सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग लेना मुश्किल होता जा रहा है।

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इतना ही होता, तो अस्थायी दिक्कत मानकर इसकी अनदेखी की जा सकती थी। लेकिन बीजेपी का इन दोनों राज्यों में जो भी आधार है, वह लगातार छिनता जा रहा है। 1984 का डर दिखाकर और बेवजह उसकी अब भी याद दिलाकर बीजेपी यहां के बड़े इलाकों में राजनीति करती रही है। उसे जमीनी स्तर से लगातार सूचनाएं मिल रही हैं कि किसान आंदोलन के साथ जिस तरह का बर्ताव किया जा रहा है, उससे उसका रहा-सहा असर भी खत्म हो जाएगा। पंजाब में निचले स्तर पर कई बीजेपी नेताओं ने अपनी पार्टी से दूरी बनाते हुए आंदोलन को समर्थन देने की घोषणा भी कर दी है।

यह आंदोलन उपजा और खड़ा ही इसलिए हुआ कि इन कृषि कानूनों के जरिये देश के कृषि क्षेत्र को उद्योगपतियों के हवाला किया जा रहा है। हालांकि, फिलहाल कोई आंकड़ा देना संभव नहीं है लेकिन पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में कुछ बड़ी कंपनियों की पैकेटबंद खाद्य सामग्रियों की बिक्री पिछले दो माह के दौरान घटी है। इन कंपनियों के सामानों के बहिष्कार का कोई सीधा आंदोलन तो नहीं चल रहा है, पर इन क्षेत्रों के लोगों ने चुपचाप ही सही, इन सामानों को यथासंभव नहीं खरीदने का बड़े ही करीने से अभियान चला रखा है।

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इन इलाकों में लगभग हर परिवार किसी-न-किसी तरह से खेती-किसानी से जुड़ा हुआ है। जिन उद्योगपतियों को यह सरकार लाभ पहुंचा रही है, उनकी तरफ से भी इसकी लगातार माॅनिटरिंग की जा रही है और अब जाकर उन्होंने भी अपने व्यवसाय के हित में इस आंदोलन को किसी भी तरह फिलहाल स्थगित करवाने का शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व से आग्रह किया है।

लेकिन सरकार के रुख में बदलाव की सबसे बड़ी वजह राष्ट्रीय सुरक्षा पर मंडरा रहा खतरा है। वैसे, यह बात शुरू से ध्यान दिलाई जा रही थी कि पंजाब और हरियाणा में यह आग अगर जल्द ही ठंडी नहीं की गई, तो सुरक्षा के खयाल से कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं। इस आंदोलन के मसले को भी अमित शाह ही देख रहे हैं, क्योंकि वह सिर्फ केंद्रीय गृह मंत्री ही नहीं हैं, उन्हें इस सरकार में पीएम नरेंद्र मोदी के बाद सबसे पावरफुल माना जाता है।

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सरकार के उच्चस्तरीय सूत्रों के अनुसार, शाह और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल को लगातार सूचना मिल रही है कि इस आंदोलन को लेकर सेना और सुरक्षा बलों में लगभग सभी स्तरों पर सरकार के लिए नकारात्मक भावना फैल रही है। इस तरह का असंतोष राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से अच्छा नहीं है।

असल में, इस आंदोलन से निबटने में सबसे बड़ी चूक अमित शाह की रही है। संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) आंदोलन के समय शाह ने जिन तरीकों का इस्तेमाल किया था, उन्हें भरोसा था कि उसी तरह की तिकड़मों के जरिये किसान आंदोलन से भी निबटने में कामयाबी मिल जाएगी। सीएए-एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) आंदोलन के समय हिंदू-मुसलमान का सांप्रदायिक कार्ड खेलकर सरकार ने रास्ता निकाल लिया था। इसके साथ ही लगभग उसी समय कोविड के प्रकोप ने उस आंदोलन की वापसी करा दी थी। लेकिन इस आंदोलन में वह हथियार काम नहीं आया। बल्कि खालिस्तानी कार्ड खेलकर सरकार ने आंदोलन की धार तेज ही कर दी।

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इनके अलावा शाह की अन्य तिकड़में में भी इस आंदोलन में काम नहीं आईं। उन्होंने पार्टी के कई नेताओं को इस काम में लगाया कि कुछ किसान नेताओं को तोड़ लिया जाए। इस आंदोलन में लगभग 500 संगठन शामिल हैं। इनमें से कई के बीजेपी नेताओं से दोस्तियां-रिश्तेदारियां भी हैं। पर उनमें से भी कोई नहीं टूटा। आखिर, अपने परिवार-समाज और रोटी से अलगाव बनाकर कौन अपने को अप्रासंगिक बन जाने का खतरा उठाना चाहेगा? सरकार के रुख में कथित नरमी का कारण यही सब है।

पर असली सवाल जस का तस है। सरकार की बातों पर कितना विश्वास किया जा सकता है? कृषि क्षेत्र के संबंध में संसद से लेकर कोर्ट तक में सरकार तरह-तरह की बातें कहती रही है। उसे खुद ही नहीं मालूम कि किस बात को आगे भी जारी रखना है।

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