कोरोना के खिलाफ संघर्ष में दो दवाएं खबरों में हैं। एक है हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन जो एंटी-इन्फ्लेमेटरी दवा है, और दूसरी है रेमडेसिविर जो एंटी वायरल दवा है। हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन सस्ती जेनरिक दवा है और जोड़ों के दर्द के उपयोग के लिए पहले से ही किसी-न-किसी तरह इसका उपयोग किया जाता रहा है। वैज्ञानिक समुदाय के लिए यह थोड़ी असुविधाजनक स्थिति थी जब कोरोना के इलाज के लिए इसकी सबसे पहले सार्वजनिक तरफदारी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने की। इसके लाभ-हानि को लेकर दुनिया भर के डॉक्टरों ने अपने आपको बांट लिया। इसके उपयोग की पुष्टि के लिए दुनिया भी में कई ट्रायल शुरू कर दिए गए।
तब ही खूब शोर-शराबे के बीच उम्मीदों के साथ रेमडेसिविर आया जिसने संशयवादियों और सहज विश्वासियों को समान तौर पर चकरा दिया। एनईजेएम (न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन- ऐसा जर्नल जो विश्वसनीय माना जाता है) में अपेक्षाकृत कमजोर साक्ष्यों पर आधारित लेख को लगभग वैश्विक स्वीकृति मिली। यह जिलीड लाइफ साइसेंस की बड़ी संभावनाओं वाली निषेधात्मक महंगी पेटेंट वाली नई दवा है। इसको लेकर उत्तेजना की झाग अभी थमी भी नहीं थी कि 22 मई को डब्ल्यूएचओ ने विपरीत साइड एफेक्ट की चिंताएं जताते हुए इसकी प्रतिद्वंद्वी दवा- हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन, की सभी किस्म के क्लीनिकल ट्रायल को रोकने की सलाह जारी कर दी। इससे जिन्हें संदेह न हो, उन्हें भी संदेह होने लगा।
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इसकी वजह थी। यह जो विपरीत प्रभावों वाली चिंता थी, वह प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल लैन्सेट की प्रीप्रिंट रिपोर्ट से जन्मी थी। इसका आंकड़ा अमेरिकी राज्य इलिनोइस के संदिग्ध फर्म- सर्जिस्फेयर का था जिसके पास न तो मेडिसीन के क्षेत्र में विशेषज्ञता है, न अनुभव। इस फर्म की विश्वसनीयता की बात जब सामने आई, तो डब्ल्यूएचओ और लैन्सेट समेत कई को शर्मिंदगी हुई। एक पखवाड़े से भी कम समय में, 3 जून को डब्ल्यूएचओ को अपने पहले के आदेश को तुरत-फुरत वापस लेना पड़ा। इस तरह के घटनाक्रम में व्यापारिक तत्वों की भूमिका का पता लगाने के लिए आपको शरलक होम्स-सी प्रतिभा की जरूरत नहीं है!
कुछ चीजें समझने वाली हैं। कोई बीमारी जो 90 फीसदी से अधिक मामलों में अपने आपको खुद ही ठीक कर लेती है, कोई भी उपचार आंकड़ों के थोड़े-से इंद्रजाल से प्रभावी साबित की जा सकती है। कोरोना मामलों में पंचगव्य- गाय के दूध, दही, घी, मूत्र और गोबर, के मिश्रण से उपचार का ट्रायल राजकोट में हो रहा है। मैं पहले ही कह सकता हूं कि यह प्रभावी सिद्ध होगा, हालांकि मैं जानता हूं कि सत्य निश्चित तौर पर यह नहीं है। लेकिन मसला यह नहीं है। एक डॉक्टर के तौर पर मैं किसी फिजीशियन की उस स्थिति को दिखाना चाहता हूं जो सच्चाई जानने के मेरे अधिकार की जानबूझकर की जाने वाली अनदेखी से उपजी बेचारगी से पैदा होती है। जिम्मेदार व्यक्ति होने के नाते डॉक्टर दूसरे, यानी रोगी के लिए सबसे मुफीद तरीके से नैतिक रूप में काम करने के लिए बंधा होता है। लेकिन सच्चाई के अंधकार में काम करने का पूरा इकोसिस्टम हो, तो कोई व्यक्ति रोगी के सबसे बेहतर हित में कैसे काम कर सकता है?
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द लैन्सेट और एनईजेएम जर्नल्स की ऊपर चर्चा हुई है। मेडिकल की दुनिया में उच्च मानदंड के साथ दोनों की अच्छी-खासी वकत है। एनईजेएम की संपादक मर्सिया एन्जेल ने कहा भी है किः ’जो छपता है या विश्वस्त फिजिशियनों या आधिकारिक मेडिकल गाइडलाइन के निर्देशों पर विश्वास करते हुए होने वाले अधिकतर क्लीनिकल रिसर्च पर यकीन करना अब बहुत संभव नहीं रह गया है। द न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन के संपादक के तौर पर दो दशक से भी अधिक समय बिताते हुए धीरे-धीरे और झिझक के साथ इस निष्कर्ष पर पहुंचते हुए मुझे कोई प्रसन्नता नहीं हुई है।’
द लैन्सेट के संपादक रिचर्ड हॉर्टन ने भी अपनी बेबसी लगभग इसी तरह प्रकट की हैः ’विज्ञान के खिलाफ मामला बिल्कुल सीधा हैः अधिकतर, संभवतः आधा, वैज्ञानिक साहित्य आम तौर पर असत्य हो सकता है। बहुत कम सैंपल साइज, नन्हे-से प्रभाव, अमान्य खोजपूर्ण विश्लेषण, व्यक्तिगत हित के प्रचलित तौर- तरीकों को बढ़ाने के लिए जुनून के साथ हितों के लज्जाजनक पोषण वाले अध्ययनों की वजह से विज्ञान अंधकार की तरफ चला गया है।’ उनका यह भी कहना है कि‘बुरी खबर यह है कि इस व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए कोई भी पहला कदम उठाने को तैयार नहीं है।’
इसके रेशे-रेशे का विश्लेषण हुआ है। इसके पीछे कई कारण हैं। पहला कारण तो व्यक्तिगत हित है जो बौद्धिक और वित्तीय है। वैज्ञानिक निष्कर्ष समय से पहले ही निकाल लिए जाते हैं और शोध-अनुसंधान का मुखौटा आसानी से उल्लू बनाने के लिए रच दिया जाता है। कई बार उद्योग की तरफ से पेपर लिख दिए जाते हैं और विश्वसनीयता जमाने के लिए लेखकों के रूप में प्रतिष्ठित नाम दे दिए जाते हैं। लेखक अपने खुद के रिसर्च के निष्कर्षों को लेकर अनभिज्ञता प्रकट करते रहे हैं। जर्नलों को अपने को चलाने के लिए पैसे की जरूरत होती है और ऐसा ही शोधकर्ताओं के साथ भी है। एनईजेएम के पूर्व संपादक जेरोम कैसिरर इस मामले में निर्भीक रहे हैं: ‘जब आमदनी कम हो जाती है, तो ज्यादा रीप्रिंट बेचने के लिए संपादक पर अधिक फार्मास्युटिकल अध्ययनों को छापने का भारी दबाव होता है।’ जर्नलों ने निहित स्वार्थों की मर्जी पर आधारित सूचना को बेहतर ढंग से पेश किया है।
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मेडिसिन के क्षेत्र में सबसे सम्मानित किताब- हैरिसंस प्रिंसिपल्स ऑफ इंटरनल मेडिसिन, भी छिपे हुए हितों की केस स्टडी है। यह बात सामने आई है कि इसमें शामिल किए गए लेखकों ने दवाओं और मेडिकल उपकरणों के निर्माताओं से लाखों डॉलर हासिल किए। यह रोग इतना व्यापक है कि जिन लेखकों की कोई व्यक्तिगत रुचि नहीं होती, वे नगण्य हो गए हैं और ऐसे लोग अब लगभग नहीं ही पाए जाते। और ऐसा सिर्फ जर्नल और किताबों के साथ ही नहीं है। नियामक संस्था- यूएसएफडीए, के कुछ लोग भी अब उद्योग के वेतन पर बताए जाते हैं। इस संस्था को पिछले साल उद्योग से लगभग एक बिलियन डॉलर मिले हैं।
अकाट्य विज्ञान पुनरुत्पादनीयता (रीप्रोड्यूसिबिलिटी) और डाटा शेयरिंग पर आधारित है। मॉडर्न मेडिसिन में व्यक्तिगत रुचि वाले परिणाम आम बात हैं जहां अधूरा आंकड़ा वैधानिक जटिलता की परतों के पीछे अप्राप्य है। नोबेल पुरस्कार विजेता रोनाल्उ कोस की यह उक्ति काफी प्रसिद्ध रही है किः अगर आप आंकड़ों को काफी दिन तक परेशान करते रहेंगे, तो यह कुछ भी स्वीकार कर लेगा।’ इन दिनों मेडिकल अनुसंधान किसी खास उद्देश्य से आंकड़ों को प्रताड़ित करने वाला हो गया है। रोगी अनजाने में सहायक लाभ लेने वाला या हानि झेलने वाला हो सकता है।
एक वाट्सएप पोस्ट इन दिनों डॉक्टरों के बीच घूम रहा हैः ’हाल का एक अध्ययन बताता है कि हाल में किए गए सारे अध्ययन झूठे हैं।’ मुझे इस पर हैरानी नहीं है।
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