आज का दौर बहुत अजीब है, अब हरेक विषय पर फैसले विशेषज्ञ नहीं बल्कि राजनैतिक नेता लेते हैं। सतही तौर पर राजनैतिक नेताओं के अलग विषयों पर कुछ सलाहकार नजर आते हैं, पर इन सलाहकारों का काम नेताओं की जी-हुजूरी से अधिक कुछ नहीं होता। कम से कम पर्यावरण के संदर्भ में यही स्थिति है। राजनैतिक नेताओं को सत्ता में बने रहने के लिए पूंजी चाहिए और इसके लिए पूंजीपतियों को खुश रखना जरूरी है। पूंजीपतियों की पूंजी का स्त्रोत प्राकृतिक संसाधन हैं और सत्ता के साथ ही पर्यावरण संरक्षण की जिम्मेदारी उठाए सरकारी बाबू पूंजीपतियों को खुश रखने के लिए केवल पर्यावरण विनाश का काम करते हैं।
हिमालय पर हाईवे बन गए, जगह-जगह पनबिजली योजनाएं खड़ी हो गईं और भी अनेक तरीके से हिमालय को लूटा जा रहा है, नदियों की ऐसी ही स्थिति है, जंगल खनन की भेंट चढ़ गए, पेड़ों को काटे जाने का तो हिसाब ही नहीं है- चौंकिए नहीं, यह सारा विनाश सत्ता के निर्देश पर उन अधिकारियों की निगरानी में किया जा रहा है जिनपर पर्यावरण संरक्षण की जिम्मेदारी है।
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सत्ता और पर्यावरण संरक्षण के अधिकारियों का एक नया फैसला है कि दिल्ली की यमुना नदी को साफ करने के लिए इसमें गंगा का पानी मिलाया जाएगा। बीजेपी सरकार में काम तय नहीं है, बल्कि यह तय है कि जिसकी लगातार चर्चा की जाती है उसकी बर्बादी जरूर हो जाती है। दिल्ली विधानसभा चुनावों से बीजेपी ने यमुना सफाई को मुद्दा बनाया हुआ है और इस पर काम तो कुछ भी नहीं हुआ पर जितनी योजनाओं की चर्चा की जाती है उन सभी से पर्यावरण की बर्बादी तय है। बीते दिनों गृह मंत्री अमित शाह की अगुवाई में यमुना नदी की सफाई से संबंधित बैठक में भी इसमें गंगा का पानी मिलाने की चर्चा की गई थी।
यमुना और गंगा- दोनों ऐसी नदियां हैं जिनके पानी का खूब उपयोग किया जाता है और एक बड़ी आबादी इन पर आश्रित है। दोनों नदियों पर ढेर सारे बांध और बैराज हैं, जिनसे नहर में पानी भेजा जाता है। इन दोनों नदियों में पानी की लगातार कमी रहती है। गंगा की तो ऐसी स्थिति है कि प्रयागराज में तो अधिकतर समय यह लगभग सूखी ही रहती है और यमुना का पानी ही इसके आगे गंगा के नाम से बहता है। यह एक आश्चर्य का विषय है कि केंद्र और दिल्ली सरकार को यमुना नदी को स्वच्छंद बहने देने की योजना के बदले इसमें गंगा का पानी मिलाने का रास्ता समझ में आ रहा है। सत्ता का यह रास्ता नदियों को साफ रखने में नाकामी को सीधे तौर पर दर्शाता है।
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हाल में ही नेचुरल हजार्डस नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, गंगा में पानी के सर्वाधिक बहाव की दर प्रति दशक 17 प्रतिशत की दर से गिर रही है। यही स्थिति देश की दूसरी नदियों की भी है। जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के कारण एक तरफ तो हिमालय के ग्लेशियर तेजी से सिकुड़ते जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ वर्षा की अवधि और पैमाना लगातार बदलता जा रहा है।
बारिश के तीन महीने अब आनंद का मौसम नहीं रहा है, रिमझिम फुहारें साहित्य में ही रह गई हैं- अब तो बहुत कम समय में ही अत्यधिक बारिश हो जाती है। इस दौरान चारों तरफ पानी भर जाता है, बाढ़ जैसी स्थिति बन जाती है और फिर एक लंबे समय तक सूखे जैसा मौसम रह जाता है। ग्लेशियर और बारिश में बदलाव के कारण गंगा और यमुना जैसी हिमालयी नदियों में पानी का बहाव कम होता जा रहा है। इस समस्या को बड़े बांधों और बैराजों ने और गंभीर बना दिया है। एक तरफ नदियों में पानी का बहाव कम हो रहा है तो दूसरी तरफ सघन शहरीकरण ने पानी की मांग को तेजी से बढ़ा दिया है।
नदियों में पानी की कमी को आजकल समझ पाना थोड़ा कठिन है, क्योंकि यह दौर बाढ़ का है। प्रधानमंत्री जी भी कभी-कभी बाढ़ पर दुःख जाहिर करते हुए इसे प्राकृतिक आपदा बताते हैं। मीडिया तो शुरू से ही इसे प्राकृतिक आपदा और आसमानी आफत बताता रहा है और इसी आधार पर रिपोर्टिंग भी कर रहा है। समस्या यह है कि पूंजीवाद में नदियों के असली स्वरुप और क्षेत्र पर सत्ता और पूंजीपतियों का कब्जा है, और जब नदियां अपना असली स्वरुप और बहाव दिखाती हैं तब सभी बाढ़-बाढ़ का शोर मचाते हैं और इसे प्राकृतिक आपदा बताने लगते हैं।
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सत्ता भी पीड़ितों को कुछ सहायता और मुवावजा देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाती है और बाढ़ खत्म होते ही नदियों के शोषण में जुट जाती है। दरअसल अधिकतर मामलों में बाढ़ प्राकृतिक नहीं बल्कि मानव निर्मित आपदा है। हम नदियों के क्षेत्र में तेजी से बसते चले जा रहे हैं तो दूसरी तरफ मानव जनित तापमान वृद्धि के कारण कम समय में अधिक बारिश की घटनाएं बढ़ गई हैं, जिसकी चेतावनी कई दशक पहले ही वैज्ञानिक दे चुके हैं। प्रधानमंत्री जी जब बाढ़ और भू-स्खलन को प्राकृतिक आपदा बताते हैं, तब सत्ता की सारी जिम्मेदारी खत्म हो जाती है।
नदियां पृथ्वी की सतह पर मीठे पानी की एक विशेष भौगोलिक संरचना हैं, पर दुखद यह है कि हमारे देश में नदियां एक तरफ तो देवी मानी जाती हैं जिनका स्वरुप एक बड़े नाले से अधिक कुछ नहीं है। देश की पूरी आबादी, सत्ता, शहरी निकाय और पूंजीपति इसे कचरा फेंकने का साधन या फिर इसके पानी को अपनी मर्जी से उपभोग लायक समझते हैं। पिछले कुछ दशकों से नदियों को हमने इस कदर मार दिया है कि अब तो उसके इलाके/क्षेत्र को भी बेकार का मान कर उस पर इमारतें, उद्योग और दूसरी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को खड़ा कर दिया है, अपनी सुविधा के लिए इसका मार्ग बदल दिया है, बड़े बांधों को बनाकर इनके प्रवाह को रोक दिया है, नहरों के माध्यम से इसके पाने को निकालकर कहीं और बहा दिया है। हिमालय के ऊपरी बेहद संवेदनशील क्षेत्रों में नदियाँ बिजली बनाने का साधन रह गईं हैं।
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अब तो नदियों से संबंधित खबरें भी केवल बाढ़ के समय या फिर नदी-जल विवादों के समय आती हैं। जबसे गंगा मैया ने मोदी जी को बुलाया है, गंगा के प्रदूषण पर चर्चा खत्म हो गई है। यमुना की चर्चा भी केवल राजनैतिक लाभ के लिए ही की जाती है। दरअसल हमारे प्रधानमंत्री जी वसुधैव कुटुम्बकम का जाप करते-करते केवल अंतरराष्ट्रीय समस्याओं को ही समस्या मान बैठे हैं, और मीडिया भी यही कर रहा है। अब जलवायु परिवर्तन की चर्चा तो होती है, पर स्थानीय वायु प्रदूषण की चर्चा गायब हो गई है। अब हम महासागरों की चर्चा करते हैं और अपनी नदियों, झीलों और तालाबों को लूटना तो जानते हैं पर किसी लायक नहीं समझते।
पिछले वर्ष बारिश के समय जिन्होंने गाजियाबाद में हिन्डन नदी के बाढ़ के विजुअल्स देखे होंगे, उन्हें याद होगा कि एक नाले जैसी नदी के दोनों किनारे मकानों से पटे पड़े हैं। जब भी इस नदी में थोड़ा भी पानी बढ़ेगा तब ऐसी ही स्थिति होगी, क्योंकि पानी के फैलने की कोई जगह ही नहीं है। लगभग हरेक छोटी-बड़ी नदियों की हमने यही दुर्दशा की है। विकास के नाम पर हरेक नदी के अन्दर हम तरह-तरह के निर्माण करने लगे हैं।
यमुना के बारे में लंबे समय से तमाम न्यायालयों में सुनवाई की जा रही है। दशकों पहले के भी न्यायालयों के आदेश यमुना के डूब क्षेत्र को किसी भी निर्माण से मुक्त रखने की बात करते हैं। आदेश आते रहे और यमुना के डूब क्षेत्र में राजधानी दिल्ली में कामनवेल्थ गेम्स विलेज, अक्षरधाम, मेट्रो स्टेशन और मेट्रो की कालोनियां बनती रहीं। अब हम यमुना का पानी बढ़ने पर कहते हैं कि नदी ने रौद्र रूप ले लिया, यह प्राकृतिक आपदा है- पर सच तो यह है कि जब भी पानी बढ़ता है तब यमुना नाले से नदी में परिवर्तित होती है और अपना क्षेत्र बताती है। नदियां हमें नहीं डुबो रही हैं, बल्कि हम नदियों की गहराई में अपने मकान और दूसरी परियोजनाओं को खड़ा करने लगे हैं।
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इन दिनों पूरा देश डूब रहा है। जो शहर और क्षेत्र पहले बाढ़ की विभीषिका नहीं झेलते थे वे भी अब इसकी चपेट में हैं। मीडिया में बारिश को आसमानी कहर और नदियों को सब कुछ डुबो देने वाला बताया जा रहा है। प्रधानमंत्री देश में पर्यावरण संरक्षण की 5000 वर्ष पुरानी परंपरा और तापमान वृद्धि पर खूब बोलते हैं, पर बाढ़ या सूखा जैसे विषयों पर गंभीर वक्तव्य शायद ही कभी देते हैं। वैसे भी उनके पास इन दिनों विपक्ष की भर्त्सना करने के अलावा कोई विषय नहीं है- चुनाव हो या संसद, प्रधानमंत्री जी बस इसी विषय पर धाराप्रवाह अनर्गल प्रलाप कर पाते हैं। पर्यावरण मंत्री भी केवल जलवायु परिवर्तन पर ही कुछ बोलते हैं।
दरअसल बाढ़ और भू-स्खलन का सबसे बड़ा कारण पर्यावरण मंत्रालय का निकम्मापन है, यह मंत्रालय पर्यावरण संरक्षण के लिए नहीं बल्कि उद्योगतियों की सेवा और अधिकारियों की जेब भरने के लिए काम करता है। साल में जब नदियों का पानी एक बार बढ़ता है तब नदियां कुछ हद तक साफ भी हो जाती हैं, वर्ना पर्यावरण मंत्रालय और तमाम प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के लिए नदियों की सफाई का काम तो करोड़ों रुपये की ऊपरी कमाई का एक साधन है।
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