इन दिनों एक संगठन ने अपने सौ साल पूरे किए है। उसका स्मरणोत्सव मन रहा है। चूंकि वही संगठनात्मक विचार सरकार में है। संगठन कितनी भी कोशिश करे, मगर स्मृतियाँ शेष हैं। यह स्मृति कि इस संगठन को तिरंगा कुबूल नही था, उन्हें संविधान स्वीकार नहीं था, किसी दलित चिंतक-सचेतक की संविधान निर्माण समिति की अध्यक्षता मान्य नहीं थी। गौरतलब है कि यह संगठन विजयदशमी के दिन स्थापित किया गया। बाबा साहेब ने भी विजयदशमी के दिन बौद्ध धम्म को अपनाया।
संगठन के पास अपनी एक विचार व्यवस्था है। इनके संस्थापक मानते थे कि अलग-अलग तहज़ीबी, धार्मिक फलसफे एक राष्ट्र नहीं हो सकते। जैसे उस दौर में जर्मनी के तानाशाह को यह गवारा नही था कि यहूदी और जर्मन साथ रहें। यहां बात सिर्फ मज़हब की भी नहीं। इस संगठन की मान्यता रही कि संस्कृत से निकली भाषाएं बोलने वाले ही मूलतः यहां हक रखते हैं। इनका पितृभूमि से ज्यादा तदात्म्य है । माने मातृभूमि या स्त्रीगामी सोच भी स्वीकार्य नहीं।
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इस संगठन की सोच ने ऐसा माहौल तैयार किया, जहां स्वराज के जीवंत अभ्यर्थी का पार्थिव अंत हुआ। अब भी उस व्यक्तित्व को अप्रासंगिक करने के लिए उनके चश्मे का इस्तेमाल स्वच्छ भारत के लिए होता है। मगर उस की दृष्टि के प्रति जो परोसा गया है वो इनके तथाकथित फ्रिंज की सोशल मीडिया टिप्पणियों से पता चलता है जहां स्वराज के अभ्यर्थी को दशानन के रूप में दिखाकर तीर चलाया जाता है। जहां इस तरह के अनर्गल बकवाद के कारण मासूम स्कूली बच्चे उन पर चलाई तीन गोली के दृश्य पर ताली बजाते हैं। गोली चलाने वाले की प्रतिमा लगने लगी है।
इस पर कोई मलाल नही क्योंकि दुनिया भर में नस्लीय अधिनायकत्व, आर्थिक-राजनीतिक गुलामी के प्रतिरोध में जब उस अभ्यर्थी के अहिंसक अभ्यास को सामूहिक चैतन्य के लिए इस्तेमाल किया गया है। कटुता और गुलामी से आगे बढ़े हैं, तब वे अमर रहेंगे। भारत की मेहरबानी पर वो राह नहीं टिकी। बौद्ध मार्ग की तरह उस के अनेक राही दूर हर कोने तक फैले है। हम भले ही विस्मरण कर बैठे हों।
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यहां सवाल दूसरा है। आखिर उस अभ्यर्थी से तकलीफ क्या है? अठहत्तर साल का व्यक्ति कभी तो संसार छोड़ ही देता। मगर उसका स्वराज का स्वप्न डरावना है। उस वर्ग के लिए जो गुलामी की जंजीरों से बहुजन को आज़ाद नहीं करना चाहता। उस ने किसानों, मजदूरों, महिलाओं को प्रश्न करना सिखा दिया, आंदोलन खड़ा करना सिखा दिया। सिखा दिया कि स्वराज का मतलब संसाधन का सम वितरण, समता और जाति व्यवस्था से मुक्ति, लैंगिक न्याय है।
यह सब यथास्थितिवादियों को कैसे मंज़ूर होता। उनके सामाजिक अस्पृश्यता उन्मूलन के अभियान से वो हिल गए थे। अपनी सामाजिक हेकड़ी का क्षय कैसे कुबूल करते। सो उन पर पहला वार तब किया गया, जब वो देश भर में अस्पृश्यता के खिलाफ घूमे। उनके राम राज्य का दर्शन साबरमती आश्रम की व्यवस्था से दिख गया। जब दलित परिवार को पाकशाला सौंपी गई। सारे निवासी जाने लगे। उन्होंने शांति से कह दिया कि सब जा सकते हैं, मदद बंद कर सकते हैं। पर यदि वे और वो परिवार भर ही रह गए, तब भी उनका फैसला नहीं बदलेगा। इस मज़बूती को गांधी कहते हैं, यह मजबूर का काम नहीं है।
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स्वराज के रास्ते से इस विचार व्यवस्था को यही कष्ट है। वो असत्य के दम्भ से भरे राज्य की गलत नीति, गुलामी को थोपने की कोशिश के सामने डटकर खड़ा होता है। इसलिए वो अभ्यर्थी स्वतंत्रता नहीं, स्वराज चाहते थे। ताकि आमजन हमारी चुनी सरकार के सामने भी सत्याग्रह कर सकें।
हुक्मरानों को चाहिए कि वो केवल नोमन्क्लेचर या नामावली में बदलाव करने तक खुद को सीमित न रखें। न्याय संहिता कहां रह गई, जब किसान आंदोलन से जुड़े असंख्य किसान देश द्रोही कहलाते हैं। जब सोनम वांगचुक पड़ोसी देश का एजेंट कहलाते हैं। जबकि यह सत्य के संघर्ष हैं। स्वराज मात्र प्रतिनिधित्व तक सीमित नहीं होता, वो सम-सहभागिता का माध्यम है। यदि एक आदिवासी, दलित अल्पसंख्यक को अवसर मिलता है। वह शुरुआत है। पर यह समझना जरूरी है कि वर्ण व्यवस्था के प्रतिष्ठानुक्रम को चुनौती दी गई या नहीं। अन्यथा वह मात्र आज्ञाकारी यथास्थितिवादी को बैठाने का उपक्रम रह जायेगा।
स्वराज की व्यवस्था में डर के लिए कोई स्थान नहीं है। उदात्त विचार के लिए दरवाज़े खिड़की खुले रखे जाते हैं। अपनी जड़ को पोषित करते रहने पर भी जड़वत नहीं हुआ जाता। इसके विपरीत भय आधारित व्यवस्था हम और वो में सीमा रेखा खींचती है। भय दिखाकर राजनीतिक-सामाजिक कथानक गढ़ा जाता है। सत्ता में आने का सुगम मार्ग बनता है। पर ऐसे माहौल में प्यार, बंधुता, न्याय, हक नहीं बचते।
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इस बार दो अक्टूबर के दिन दशहरा है। इसको कालचक्र कहें , पता नहीं। पर राम नाम के साथ अंतिम श्वास लेने वाले व्यक्ति ने राम राज्य की कल्पना क्यों की होगी? यह सोच सकते हैं। राम की पूरी यात्रा में, संग्रह और भय आधारित वर्चस्व के स्वर्ण लोक को ललकारा गया है। उनकी जीवन संगिनी एक हल चलाते राजा को मिली। जाहिर है कि ऐसे राजा की दोस्ती छह हजार करोड़ का विवाह संपन्न कराने वाले पूंजीपति से नहीं रही होगी। उस ने अपनी विदेश नीति का प्रयोग खास उद्योगपति मित्र को दुनिया भर में कारोबार फैलाव के लिए मदद पहुंचाने के लिए नहीं किया होगा। उनके मित्र सुग्रीव और वानर थे।
पूरी रामायण में अयोध्या के स्वर्णिम होने की बात नहीं होती। एक प्रसंग में जब वे सोने के मृग का पीछा करते हैं, तब मुक्ति छूट जाती है। कैद हो जाते हैं, फिर नया संघर्ष करना पड़ता है। अयोध्या के राम राज्य में एक बात का उल्लेख है कि वहां ताले नहीं लगते थे। लोगो के दिल बड़े थे, भय नहीं था। पर जैसे ही संकुचितता आई, कर्मशीलता ध्वस्त हुई।
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कहानी यह दर्शाती है कि स्वराज के प्रति रोज चैतन्य होना पड़ता है। वो स्थूल नहीं है, उसकी गति सूक्ष्म है, स्वराज का संग्राम निरंतर है। क्षण भर का प्रमाद गुलामी की ओर ले जाता है।
सौ वर्ष तक आते आते संगठन ने कई वाक्य, सिद्धान्त की सतही छटाई की है। पर हुकूमत की भाषा अब भी वही है। वहां स्वराज नहीं, सुराज के नाम पर प्रभुत्व सम्पन्न वर्ग की सत्ता को कायम रखने की कवायद है।
अलबत्ता गांधी मार्ग को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वो मानवमात्र को रोशन करता रहेगा।
(सन्दर्भ- "वी एंड अवर नेशनहुड डिफाइंड",एम.एस.गोलवलकर पृष्ठ ८३-९८ मूल संस्करण)
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