
विश्व बैंक का हालिया अनुमान बताता है कि भारत में अत्यधिक गरीबी में रहने वाले लोगों की संख्या 2011-12 में 34.4 करोड़ से घटकर 2022-23 में 7.5 करोड़ रह गई है। यानी 11 सालों में 26.9 करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी के दायरे से बाहर आ चुके हैं। यह शानदार और काबिले तारीफ है। अत्यधिक गरीबी की तकनीकी परिभाषा 2021 तक गरीबी रेखा को समायोजित करते हुए क्रय शक्ति के आकलन के आधार पर तय की गई है और अब यह 3 डॉलर प्रति दिन है। यह अपडेट इसलिए जरूरी था कि गरीबी से संबंधित एक अन्य अवधारणा बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) और उन्नत सर्वेक्षण के जरिये खपत के आंकड़े की सटीकता में आए सुधार को भी आकलन का आधार बनाया जा सके। गैर-तकनीकी भाषा में विश्व बैंक की अत्यधिक गरीबी का मतलब है वह आय जो इतनी कम है कि उससे कोई व्यक्ति भोजन, स्वच्छ पानी, आश्रय और बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल जैसी बुनियादी जरूरतों को भी पूरा नहीं कर पाए।
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इतनी कम आय का नतीजा है लगातार भूख या कुपोषण, स्वच्छता तक पहुंच की कमी और बुनियादी प्राथमिक शिक्षा या प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच न होना। यही स्थिति अगर विकट हो जाए तो भूख से मौत भी हो जाती है। इन भयावह मानदंडों के आधार पर भारत की अत्यधिक गरीबी दर अब 5.3 फीसद है। इसके अलावा, यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि चूंकि भारत में 2011 के बाद से जनगणना नहीं हुई है, इसलिए जनसंख्या या गरीबी अनुपात का सटीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। फिर भी, एक मोटा-मोटा अनुमान लगाया जा सकता है। दुनिया में तकरीबन 83.8 करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी में जी रहे हैं, जिनमें भारत में 7.5 करोड़ यानी 9 फीसद हैं। यह देखते हुए कि वैश्विक आबादी में भारत का हिस्सा अत्यधिक गरीबी में रहने वालों की कुल आबादी का दोगुना है, यह जानकर सुकून मिलता है कि अत्यधिक गरीबी से निपटने के मामले में भारत वैश्विक औसत से आगे है। लेकिन जहां तक कुल संख्या की बात है, अत्यधिक गरीबी में रहने वाले लोगों की संख्या के मामले में भारत का नंबर नाइजीरिया के बाद दूसरा है। भारत की आबादी को देखते हुए यह कोई हैरानी की बात नहीं। लेकिन याद रखा जाना चाहिए कि चीन का अनुपात शून्य फीसद के करीब है, और चीनियों ने घोषणा की है कि 2020 में ही उनके यहां से अत्यधिक गरीबी समाप्त हो गई थी।
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संयुक्त राष्ट्र ने 2015 में सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) की घोषणा की, जिसमें सबसे पहला लक्ष्य 2030 तक अत्यधिक गरीबी को खत्म करना है। यानी एसडीजी के मुताबिक अत्यधिक गरीबी के मामले में शून्य फीसद के स्तर पर आने के लिए हमारे पास पांच साल बचे हैं। गौर करें कि अत्यधिक गरीबी को मापने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली गरीबी रेखा का पैमाना 2017-18 के 2.15 डॉलर से बढ़कर अब 3 डॉलर हो गया है। उस निचली सीमा के मुताबिक भारत में 2023 तक केवल 3.37 करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी में रह रहे थे। लेकिन 3 डॉलर की उच्च रेखा अधिक उपयुक्त है क्योंकि यह सभी निम्न आय वाले देशों की औसत गरीबी रेखाओं से ली गई है और इस वजह से अंतरराष्ट्रीय तुलना अधिक वैध हो जाती है। इसमें राष्ट्रीय सर्वेक्षण के तरीके और इसके डेटा को भी ध्यान में रखा गया है।
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यूएनडीपी और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के गरीबी और मानव विकास पहल (ओपीएचआई) द्वारा संयुक्त रूप से विकसित एमपीआई इस संदर्भ में कहीं व्यापक पैमाना है। इसमें स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर को कवर करने वाले दस मेट्रिक्स का उपयोग किया जाता है। इनमें बाल मृत्यु दर, खाना पकाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला ईंधन, स्वच्छता और पीने के पानी तक पहुंच जैसे विशिष्ट संकेतक शामिल हैं। नीति आयोग एमपीआई को मापने के लिए 10 के बजाय 12 संकेतकों का उपयोग करता है, वह इनमें मातृ स्वास्थ्य और बैंक खाते तक पहुंच को भी जोड़ता है।
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नीति आयोग के रिसर्च के मुताबिक, भारत की एमपीआई 2013-14 में 29 फीसद से घटकर 2022-23 में 11.3 फीसद रह गई। इसके मुताबिक, (जबकि जनगणना न होने से आबादी की सटीक जानकारी नहीं है) लगभग 24.8 करोड़ लोग एमपीआई गरीबी से बाहर आए। यूएनडीपी दस संकेतकों के आधार पर गणना करता है और इसी का उपयोग अंतरराष्ट्रीय तुलना के लिए किया जाता है। इसके मुताबिक 2019-21 के दौरान भारत की एमपीआई गरीबी दर 15 फीसद थी। यह नीति आयोग द्वारा गणना की गई दर से लगभग 4 फीसद ज्यादा है। चूंकि 2017-18 के लिए व्यापक उपभोग सर्वेक्षण डेटा उपलब्ध नहीं है, इस विसंगति का समाधान संभव नहीं। 2021-22 में यूएनडीपी एमपीआई हेडकाउंट अनुपात के आधार पर भारत का स्थान 109 देशों में 66वां था। विश्व बैंक ने अत्यधिक गरीबी पर अपने नवीनतम डेटा के लिए वैश्विक रैंकिंग जारी नहीं की। नीति आयोग की एमपीआई गरीबी दर के आंकड़ों के मुकाबले यूएनडीपी के आंकड़े के ज्यादा होने से विवाद खड़ा हो गया। बिजली या बैंक खातों,जो अब लगभग सबकी पहुंच में हैं, जैसे अतिरिक्त संकेतकों का उपयोग इस सूचकांक को ज्यादा आशावादी बनाता है। दूसरी ओर, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण जैसे व्यापक सर्वेक्षणों से पता चला है कि एनीमिया और कुपोषण जैसे संकेतकों में गिरावट आई है, जो निश्चित रूप से एमपीआई को प्रभावित करते हैं।
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यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि गरीबी रेखा से ऊपर जाने का मतलब यह नहीं है कि आप वापस इसके नीचे नहीं आ सकते। अगर आजीविका अनिश्चित है, तो परिवार में बीमारी या मृत्यु या नौकरी छूटने जैसे किसी भी झटके की स्थिति में उसे फिर से गरीबी में धकेल सकता है। इसलिए, हमें साथ ही साथ एक सार्थक और सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था बनाने की जरूरत है।
राजकोषीय संसाधन सीमित हैं, सरकार एक सीमा से ज्यादा कर्ज नहीं बढ़ा सकती, इसलिए सामाजिक सुरक्षा का विस्तार करने के लिए खर्चे के मदों में फेरबदल करना जरूरी है। सामाजिक सुरक्षा और लोकलुभावनवाद समान बात नहीं। हालांकि, इसका अकेला दीर्घकालिक उपाय बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन की स्थितियां बनाना है जो लगातार आजीविका में सुधार करे। रोजगार सृजन का मतलब हजारों छोटे उद्यमों का लगातार निर्माण और बड़े पैमाने पर कौशल और प्रशिक्षण से है।
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इन सबको आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, रोबोटिक्स और ऑटोमेशन से नई तरह की चुनौतियों का सामना करना होगा क्योंकि ये पांरपरिक नौकरियों के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। कुल मिलाकर, हमें जल्द ही सापेक्ष गरीबी और असमानता को कम करने पर भी ध्यान देना होगा, क्योंकि उच्च आर्थिक विकास का लाभ शीर्ष पर बैठे चंद लोगों तक ही सीमित नहीं रहने दिया जा सकता।
(डॉ. अजीत रानाडे जाने-माने अर्थशास्त्री हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)
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