किसी भी व्यवस्था के कुछ कार्यकारी सिद्धांत होते हैं। उस सिद्धांत की कोई नींव होती है। गांधी के जंतर ने एक नवगठित राष्ट्र-राज्य को ऐसी ही नींव प्रदान की थी। यह जंतर हजारों साल के तहजीबी तपीश का सूत्र वाक्य था। यह माना गया है कि जब संविधान समिति के कुछ सदस्य बाबू जगजीवन राम के साथ उनसे मिलने गए थे, तब उन्होने यह जंतर दिया था- यह कहते हुए कि इस जंतर पर उनका पक्का विश्वास है। उनका जंतर क्या था? यदि कोई फैसला करना हो, यदि कोई द्वंद्व हो, तो अपनी बंद आंखों के सामने सबसे गरीब का चेहरा लेकर आए। यदि उस कदम से उसके चेहरे पर आशा की किरण जागती है, आत्मिक उन्मुक्ति हो सकती है, सामाजिक-आर्थिक स्वराज उज्ज्वल होता है, तो समझना चाहिए कि वह सही कदम है।
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यह जंतर हमारी संवैधानिक सार्वभौमिकता की जड़ है। दूसरी तरफ, हम ऐसी व्यवस्था के निर्माण की ओर तेजी से अग्रसर हो रहे है जहां किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। यह आम दृश्य है कि देश के नागरिक चप्पल उतारकर, हाथ जोड़ते हुए कलेक्टर कार्यालयों में जाते हैं, जैसे किसी मंदिर में जा रहे हैं। इसके प्रतिरोध की शरुआत कैसे हो?
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ऐसे में, तेलंगाना के आदिलाबाद जिले के गोंडी गांव सामक्का में नई आशा दिखाई पड़ी और जनसुनवाई की प्रक्रिया के रूप में एक अहिंसात्मक वैकल्पिक स्वराज का मैदान सामने आया। देश भर के पच्चीस-तीस युवाओं की टोली अनजान गांव में बिना बोली भाषा जाने, घर-घर जाती है; कलेक्टर कार्यालय में जनसुनवाई और स्थान निश्चित करने का आवेदन करती है; छोटे-छोटे गांव मे उन्हीं के बीच रहती है; उन्हीं के साथ खाती है; उनकी योजनाओं के क्रियान्वयन-संबंधी परेशानियों को दर्ज करती है। दिन तय होता है और गांव-गांव से लोग स्वयं के खर्च पर नियत कार्यालय में आते हैं। वहां टेन्ट लगाकर पूरा प्रशासनिक महकमा एक स्थान पर मौजूद रहता है। फिर से युवा कार्यकर्ता समस्या के विभागवार मेज लगाकर अधिकारियों के पास लोगों को ले जाते हैं। कुछ का निवारण होता है, कुछ का नहीं।
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मगर इस व्यवस्था में लोग हाथ जोड़कर आने पर भी यह एहसास लेकर जाते हैं कि वे मेहरबानी की दरकार लेकर नहीं आए, उनकी दरखास्त निवारण के हक का है और वे हकदार हैं। इस प्रक्रिया की खूबसूरती यही है कि यहां झूठ नहीं बोला जा सकता- झूठ जो हर हिंसा की बुनियाद है। लोग जो कहते हैं, वह कम्प्यूटर के दर्ज रिकॉर्ड पर होना चाहिए। अधिकारी को निश्चित निवारण या जवाब देना है। लंबे वायदों के लिए कोई स्थान नहीं है। यह प्रक्रिया नए स्वराज कार्यकर्ता तैयार करती है।
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पूंजी संचालित राजनीतिक दल के कार्यकर्ता गांव में रोटी मांगने, साथ रहने को हेय मानते हैं। यह माना जाता है कि उनको दिव्य या भव्य दिखना चाहिए; चमचमाना चाहिए, भौंडेपन की हद तक जाकर भव्यता स्थापित करनी चाहिए। वहां इस प्रक्रिया में गांव के समक्ष राजनीतिक कार्यकर्ता अपनी भूख, नैसर्गिक जरूरत की तमाम आवश्यकता को सामने रखते हैं। कोई दुराव की जगह नहीं। वे गाड़ी मे भरकर लोगों को नहीं ले जाते, लोग अपने पैसों से आते हैं। यहां किसी की बपौती नहीं चलती। यहां ’’हम और वो’’ की दीवार दोनों तरफ नहीं हो सकती।
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दुनिया भर में बेजुबान माने जाते लोग जब इकट्ठा आने लगें तो बदलाव होकर रहता है। वह धीरे-धीरे सत्ता व्यवस्था के गठजोड़ को कठघरे में लाता है। मंथर गति कब तेजी पकड़ ले, कहना मुश्किल नहीं। आखिर नमक के एक कण ने साम्राज्य ढहाया है। यह जन-सुनवाई की प्रक्रिया राजस्थान के मजदूर किसान शक्ति संगठन से शुरू हुआ और फैल रहा है। कर्नाटक में मनरेगा मजदूरों के संघ कुली कार्मिका ने वैसा ही अहिंसक गठन किया है। इन संगठनों की नींव के जंतर में गरीब का चेहरा है। ये आधार हो जाए, हमारे आसपास भीड़ जो करती है, कोविड में जो पैदल लौटे, पर्यावरण की जो भेंट चढ़ गए, बुलडोजर जिन्हें लील गए, उनसे हमें फर्क पड़ेगा। संवेदना जागेगी, वही स्वराज की ओर ले जाएगी। हमारी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, तहजीबी परिकल्पना की गरीबी से उबारेगी।
शायद इसी के डर से हुक्मरानों ने वह जंतर भी एन.सी.ई.आर.टी. के पुस्तकों से हटाने का फैसला लिया है। मगर वह जंतर किसी पुस्तक का मोहताज नहीं। अहिंसा के रास्ते चलने वालों की कोई कमी नहीं।
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