विचार

छलावा भर ही हैं ग्रीन पटाखे: इस दिवाली फिर प्रदूषण से धुआं-धुआं होगा दिल्ली-एनसीआर !

ग्रीन पटाखों में सामान्य पटाखों वाले रसायनों की मात्रा कम होती है या इनमें कम हानिकारक यौगिकों का इस्तेमाल होता है। लेकिन प्रदूषण तो इनसे भी फैलता ही है।

राजधानी दिल्ली के जामा मस्जिद इलाके में सड़क किनारे पटाखों की दुकानें सजी हुई हैं। पटाखों को ग्रीन बताया जा रहा है, लेकिन इनकी निगरानी या जांच करने का कोई तरीका नहीं दिखता (फोटो : Getty Images)
राजधानी दिल्ली के जामा मस्जिद इलाके में सड़क किनारे पटाखों की दुकानें सजी हुई हैं। पटाखों को ग्रीन बताया जा रहा है, लेकिन इनकी निगरानी या जांच करने का कोई तरीका नहीं दिखता (फोटो : Getty Images) 

सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली-एनसीआर में इस बार दीपावली के दौरान पांच दिनों के लिए ग्रीन क्रैकर से आतिशबाजी की इजाजत दे दी है। यह गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज करने से अधिक कुछ नहीं है। ग्रीन पटाखे पारंपरिक पटाखों से, बस, कुछ कम हानिकारक भर हैं। यह दिखावटी सुधार भर है, असली समाधान नहीं। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रशासन रस्मी जांच-पड़ताल ही कर पाता है और ग्रीन पटाखों के नाम पर अधिकतर लेबल लगाकर पारंपरिक पटाखे ही बेचे जाते हैं। कई इलाकों में अभी ही सामान्य पटाखे ही बेचे जाने की खबरें मीडिया में आ ही रही हैं।

वैसे, दीपावली पर पटाखे जलाने और आतिशबाजी करने की बात को परंपरा और संस्कृति से जोड़ने वाले लोग भी यह नहीं बता पाते कि आखिर, इसकी शुरुआत कब हुई थी। किसी के भी स्वागत में दीपमालाएं सजाने और लंबे-लंबे बांसों पर कंदील जलाने के उल्लेख तो मिलते हैं, पर आतिशबाजी के प्रमाण नहीं मिलते। फिर भी, इसे संस्कृति तक से जोड़ दिया गया है।

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सिर्फ नाम के होते हैं ग्रीन पटाखे

ग्रीन पटाखे नाम के ही ग्रीन होते हैं। सामान्य पटाखों में बैरियम नाइट्रेट, सल्फर, एल्युमिनियम और पोटैशियम नाइट्रेट जैसे रसायन होते हैं जो जलने पर जहरीली गैसें छोड़ते हैं। ग्रीन पटाखों में इन्हीं रसायनों की मात्रा कम रखी जाती है या कुछ जगह उनके स्थान पर कम हानिकारक यौगिकों का इस्तेमाल किया जाता है। इन्हें भारत सरकार की वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान सीएसआईआर (वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद) और नीरी (राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान) ने विकसित किया है, ताकि पारंपरिक पटाखों से 30 प्रतिशत तक कम प्रदूषण हो।

ग्रीन पटाखे तीन किस्म के विकसित किए गएः पहली है 'स्वास' या 'सेफ वाटर रिलीजर'। ये जलने पर जल वाष्प यानी पानी की भाप छोड़ते हैं जो धूल के कणों को दबाने में मदद करते हैं। इसमें सल्फर और पोटेशियम नाइट्रेट का उपयोग नहीं होता। 'स्टार' को 'सेफ थरमाईट क्रैकर' कहा जाता है। इनमें पोटेशियम नाइट्रेट और सल्फर नहीं होता। ये कम शोर के साथ ही पीएम कणों को कम उत्सर्जित करते हैं। तीसरा है 'सफल', यानी 'सेफ मिनिमम  एल्युमियम' जिसमें पारंपरिक पटाखों में इस्तेमाल एल्युमीनियम की मात्रा को काफी कम रखा जाता है या मैग्नीशियम जैसे विकल्प का उपयोग होता है।

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नीति तो बनी, निगरानी नहीं हुई

चूंकि इस तरह की आतिशबाजी को बनाना थोड़ा महंगा होता है, सो अधिकांशतः बाजार में महज लेबल लगाकर पारंपरिक आतिशबाजी की ही बिक्री होती है। साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने पारंपरिक पटाखों पर रोक लगाकर केवल ग्रीन पटाखों को अनुमति दी थी। तभी से बाजार में इस किस्म के पटाखे बिक रहे हैं। लेकिन सीएसआईआर और नीरी की रिपोर्ट के मुताबिक, 2023 में बिके करीब 70 प्रतिशत ग्रीन पटाखे असली नहीं थे। यानी नीति बनी, पर निगरानी नहीं हुई।

ग्रीन पटाखों में भले बैरियम न हो, लेकिन अमोनियम और एल्युमिनियम यौगिकों के जलने से निकलने वाले सूक्ष्म धात्विक कण यथावत हैं। ये कण शरीर के भीतर जाकर फेफड़ों में सूजन, सिरदर्द और सांस लेने में तकलीफ जैसी समस्याएं बढ़ाते हैं। ग्रीन पटाखे में  पोटैशियम नाइट्रेट, अमोनियम नाइट्रेट और एल्युमिनियम पाउडर का इस्तेमाल होता है और इनके जलने से भी नाइट्रोजन ऑक्साइड और एल्युमिनियम ऑक्साइड उत्सर्जित होते हैं जो फेफड़ों, आंखों और त्वचा के लिए हानिकारक हैं। अमोनियम नाइट्रेट कई देशों में विस्फोटक पदार्थ के रूप में प्रतिबंधित है।

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ग्रीन पटाखे भी बढ़ाते हैं वायु और ध्वनि प्रदूषण

पटाखे हों या कोई भी जलने की प्रक्रिया, उसमें कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य गैसों का उत्सर्जन होता है। ग्रीन पटाखों में भी दहन के लिए जिस सामग्री का इस्तेमाल होता है, उससे कार्बन डाइऑक्साइड और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित होती ही है। हां, यह पारंपरिक आतिशबाजी से कोई 30 फीसदी कम जरूर है।

दिल्ली, चेन्नई और हैदराबाद में पिछले कुछ वर्षों में हुए परीक्षणों में पाया गया कि ग्रीन पटाखे भी पीएम 2.5  और पीएम 10 कणों का स्तर 20 से 25 प्रतिशत बढ़ा देते हैं। दीवाली की रात और अगले दिन शहरों की हवा में धूल, धुआं और गैसें वैसे ही घुटन पैदा करती हैं जैसी सामान्य पटाखों से होती है। ग्रीन पटाखों से निकलने वाला धुआं अब भी फेफड़ों और आंखों के लिए हानिकारक है। भले ही ग्रीन पटाखे प्रदूषण में थोड़ी कमी लाते हों, लेकिन शोर का आतंक कम नहीं होता । इनका शोर 110 से 125 डेसिबल तक दर्ज किया गया है जबकि कानूनी सीमा 90 डेसिबल है। बच्चों और बुजुर्गों के लिए इसका शोर भी उतना ही हानिकारक है जितना पुराने पटाखों का था।

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विरोधाभासी है ग्रािन पटाखों की अवधारणा

कई पर्यावरण विशेषज्ञों ने 'ग्रीन क्रैकर्स' की अवधारणा को ही विरोधाभासी शब्द कहा है। उनका तर्क है कि ग्रीन पटाखों से प्रदूषण कम तो होता है लेकिन अगर वे बड़ी संख्या में जलाए जाते हैं, तो वायु की गुणवत्ता पर कोई महत्वपूर्ण फर्क नहीं पड़ता। भले ही ग्रीन पटाखे कुछ हानिकारक गैसों का उत्सर्जन कम करते हैं, फिर भी वे नुकसानदेह अल्ट्राफाइन कण और गैसें छोड़ते हैं जो उन्हें 'सुरक्षित' के बजाय 'कम बुरा' भर बनाते हैं। नीरी के नमूनों की रासायनिक जांच में पाया गया कि ग्रीन पटाखों से निकलने वाले धुएं में सोडियम, एल्युमिनियम, मैग्नीशियम, स्ट्रॉन्शियम, और कॉपर ऑक्साइड जैसे धातु कण मौजूद हैं। ये धातुएं सांस के जरिये फेफड़ों में जाकर ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस और डीएनए क्षति करती हैं।

एक किलो ग्रीन पटाखे के जलने से कोई डेढ़ किलो कार्बन डाइऑक्साइड, 200 ग्राम नाइट्रस ऑक्साइड और अमोनिया और क्लोराइड गैसें निकलती हैं जो हवा में जाकर एसिड रेन (अम्ल वर्षा) की संभावना बढ़ा देती हैं, यानी 'ग्रीन' होने के बावजूद ये गैसें जलवायु परिवर्तन में भूमिका निभाती हैं। इसलिए ग्रीन पटाखे दिखावटी सुधार हैं, असली समाधान नहीं।

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पिछले साल पार हो गया था प्रदूषण का इमरजेंसी लेवल

पिछले साल ही लाख पाबंदी के बावजूद दिल्ली में 31 अक्तूबर, यानी दीपावली के दिन शाम छह बजे एक्यूआई (एयर क्वालिटी इंडेक्स) 300 के पार था; रात दस बजे यह 330 और आधी रात को अलग-अलग स्थानों पर 550 से 806 तक रहा। गाजियाबाद शहर में यह 893 और गाजियाबाद के एक हिस्से- वैशाली में यह 911 था जिसे आपातकालीन स्थिति कहा जाता है। लोकल सर्किल नामक एक डिजिटल प्लेटफॉर्म ने उसी वक्त 21 हजार लोगों के सर्वे के बाद आंकड़े जारी किए थे कि उस रात दिल्ली-एनसीआर में 69 प्रतिशत लोगों को गले में खराश या खांसी की दिक्कत हुई जबकि आंखों में जलन की शिकायत करने वाले 62 फीसदी लोग थे। सांस लेने के दिक्कत या अस्थमा के आंकड़े 34 फीसदी पार थे।

एम्स के पूर्व लंग्स स्पेशलिस्ट, पीएसआरआई इंस्टिट्यूट ऑफ पल्मोनरी, क्रिटिकल केयर एंड स्लीप मेडिसिन के चेयरमैन और ग्लोबल एयर पॉल्यूशन एंड हेल्थ टेक्निकल एडवाइजरी ग्रुप के सदस्य प्रो. (डॉ.) जी.सी. खिलनानी के अनुसार, एक आतिशबाजी से कोई साढ़े चार सौ सिगरेट के बराबर धुआं निकलता है। तीन मिनट के लिए जलने वाली सांप वाली गोली 64,500 पीएम 2.5, छह मिनट जलने वाली एक हजार पटाखों की लड़ी से 38,450 पीएम 2.5 निकलता है। सबसे लोकप्रिय फुलझड़ी दो मिनट में रोशनी कर 10,390 सूक्ष्म जहरीले कण उत्सर्जित करती है।

क्या परंपरा और पर्व के नाम पर अपने ही समाज को इस तरह बीमार करना किसी का उद्देश्य हो सकता है?

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