विचार

स्वतंत्रता दिवस विशेष: ज़िंदा लाशों को आज़ादी की क्या जरूरत?

सामूहिक मूर्खता कभी भी प्राकृतिक आपदा नहीं होती! यह अधिनायकवादी राजनीति की एक ऐसी खासियत है जो सोचने वाली जमात को लाशों में तब्दील करने, उनकी तर्क शक्ति को कुंद करने, सवाल करने और प्रभावित करने के विवेक और उनकी आजादी को निशाना बनाती है।

नवजीवन
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आजादी की 75वीं सालगिरह पर हमने कुछ जाने-माने भारतीयों से इस सवाल का जवाब जानने की कोशिश की है कि ‘आज हम कितने आजाद हैं?’ उनके विचार देश में एक नई शुरुआत की पृष्ठभूमि तैयार करते दिख रहे हैं। इन विचारों को एक श्रृंखला के तौर पर हम आपके सामने लेकर आ रहे हैं। हम आपको इन विचारों से लेखों के माध्यम से रूबरू कराएंगे। पहली कड़ी में आपने पढ़ा वरिष्ठ लेखक गणेश देवी का लेख- सिर उठाता राष्ट्रवाद और कमजोर होता लोकतंत्र - अगली कड़ी में अब पढ़िए जाने-माने लेखक और चिंतक पुरुषोत्तम अग्रवाल का लेख:

18वीं सदी के दार्शनिक इमैनुएल कांट ने ‘ज्ञान के उदय’ या जागरूकता को ‘नाबालिगी’ से बाहर आने के रूप में परिभाषित किया जिसे वह आजाद खयाली की राह की बाधा के रूप में देखते हैं। 1784 में लिखे अपने एक चर्चित लेख में कांट ने लातीनी मुहावरे ‘सपेरे ओत’ (जानने का दुस्साहस) को ज्ञान के दौर में मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित किया। ‘आजादी’ के विचार के असली मायने एक तर्कसंगत व्यक्तित्व का होना और अपने किए की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करना है। कोई राजनीतिक व्यवस्था तभी तक वैध मानी जा सकती है जब तक वह ‘नाबालिगी’ से बचने की आजादी देती है, हालांकि इसमें कुछ ‘तार्किक’ निषेध और समझदारी भी शामिल हैं जो किसी भी नागरिक को दूसरे नागरिक की आजादी में जानबूझकर खलल डालने से रोकते हैं। राज्य के हित में नागरिकों की आजादी पर उचित या तार्किक प्रतिबंध कोई अहंकारी शासक और पागलपन की हद तक सरकार द्वारा भय की मनोवृत्ति का माहौल जबरन बनाने का पतित काम नहीं करेगा।

अब यह कौन तय करेगा कि आजादी महज जुमलेबाजी या कुछ चुनिंदा लोगों के विशेषाधिकार तक सिमट कर न रह जाए? यहां तक कि राजनीतिक ढांचे से परे, पूरे सामाजिक ताने-बाने को ही नागरिकों की आजादी सुनिश्चित करने को कम-से-कम तत्पर दिखना चाहिए और इसके लिए समग्रता में प्रयास किए जाने की जरूरत है। हमारे संविधान निर्माताओं ने इसी समझ के साथ न्याय, समानता और बंधुत्व के संदर्भ में ‘आजादी’ का तानाबाना बुना था। इन तीन स्तंभों में से कोई एक भी हिला, तो आजादी कमजोर और लड़खड़ाती हुई नजर आएगी।

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न्याय, समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रता के इस चौखंभे को किसी भी समझदार लोकतांत्रिक सरकार के लिए एक नैतिक दिशासूचक के तौर पर काम करना चाहिए। कोई भी चेतना संपन्न राज्य समाज में सहानुभूति और आलोचनात्मक सोच को बढ़ावा देगा। यह न जनभावनाओं को भड़काएगा, न आहत करेगा और न ही भावनाओं को एक लोकतांत्रिक सामाजिक चेतना को उलझाने का अवसर देगा। यह लोगों को अपने धार्मिक विश्वास का पालन करने और प्रचारित करने की अनुमति देगा लेकिन धर्मों के बीच भेदभाव नहीं करेगा, आस्था के नाम पर हत्या कर दिए जाने की अनुमति नहीं देगा। एक चेतना संपन्न राज्य नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए सामाजिक आंदोलनों को सतत बढ़ावा देगा और नागरिकों को किसी भी प्रकार से ‘आहत भावनाओं के खतरे’ से बचाएगा।

किसी भी चेतना संपन्न राज्य के नागरिक कभी भी भय में नहीं जीते। वास्तव में, भय से मुक्ति ही हर तरह की आजादी का मूल है। पंडित नेहरू अपनी आत्मकथा में 12वीं शताब्दी के महाकाव्य ‘राजतरंगिणी’ में कल्हण का वाक्याांश‘ धर्म और अभय’ का बड़े उत्साह से याद करते हैं। नेहरू लिखते हैंः ‘(यह) कानून और व्यवस्था के अर्थ में इस्तेमाल किया जाता है, कुछ ऐसा जो शासक और राज्य का कर्तव्य था और उसे यह सुनिश्चित करना था- धार्मिकता और भय से मुक्ति। कानून सिर्फ कानून नहीं, उससे बढ़कर कुछ था और व्यवस्था का मतलब लोगों का भय मुक्त होना था। भयमुक्त समाज बनाने के बजाय पहले से भयभीत जनता पर ‘व्यवस्था’ थोपने का विचार कहां तक और कितना जायज है।’

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ऐसे में हमारी आजादी की 75वीं सालगिरह के मौके पर हमें यह सवाल पूछना ही होगा कि भारतवासी और इसके नागरिक के तौर पर हम आज कितना स्वतंत्र महसूस करते हैं? सात साल पहले, आपातकाल की 40वीं वर्षगांठ पर एक टेलीविजन चर्चा के बीच एंकर ने मुझे मौजूदा सरकार के दौरान ‘अघोषित आपातकाल’ की आशंका जताने वाला एक अलार्मिस्ट कह कर निशाने पर लिया था। लेकिन अब तक तो ऐसे लोगों को भी यह बात समझ में आने लगी है कि कानून का घोर दुरुपयोग, विपक्ष की आवाज को मनमाने तरीके से दबाने की कोशिश, बुद्धिजीवियों का तिरस्कार, ‘चौकसी’ की आड़ में खौफनाक हत्याएं, मुसलमानों को खासकर टार्गेट किया जाना और लोगों के घरों-प्रतिष्ठानों पर बुलडोजर चलाकर परपीड़ा में अट्टहास- आखिर क्या है!

परिदृश्य का सबसे चिंताजनक पहलू लोकतांत्रिक संस्थाओं का ध्वंस और दैनिक लोकाचार के न्यूनतम प्रतिमानों का सिकुड़ते जाना ही नहीं, जनमानस का इसे मिल रहा खुला समर्थन है। बहुत ही सुचिंतित और संगठित तरीके से तथ्यों के साथ छेड़छाड़, एक काल्पनिक दुनिया रचते हुए जड़बुद्धि-मूर्खतापूर्ण हरकतों को बढ़ावा देते जाने का नतीजा ही है कि लोगों का दिमाग कुंद होता जा रहा है और समाज तेजी से अधःपतन की ओर जा रहा है।

क्या हमें ऐसी मनगढ़ंत और प्रचारपरक चीजों पर वास्तव में ध्यान देने की जरूरत है?

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कोविड महामारी जैसे अभूतपूर्व संकट के दौर में भी हमारे सर्वोच्च नेता अपनी अभिनयप्रियता पर काबू नहीं कर पाते, नतीजतन लाखों भूखे-प्यासे लोग, मजदूर, मजबूर महज चार घंटों के नोटिस पर भूखे-प्यासे पैदल ही अपने गांव-घरों को जाने के लिए सड़कों पर धकेल दिए जाते हैं। इसकी कोई जवाबदेही नहीं लेता! नोटबंदी के नाम पर भी चार ही घंटे के नोटिस में अर्थव्यवस्था पूरी तरह पटरी से उतार दी जाती है और पूरा देश बैंकों के सामने लाइन में खड़ा हो जाता है! इस पर भी कोई जवाबदेही नहीं लेता, कोई जमीनी चर्चा भी नहीं! गोमूत्र पार्टियां कोविड की मारक डोज के रूप में सामने आ जाती हैं, कोई गुस्सा या नाराजगी नहीं, कोई सवाल नहीं!

पादरी, धर्मशास्त्र के विद्वान, नाजी विरोधी और गांधी के प्रशंसक डिट्रिक बोनहोफर को अप्रैल, 1945 में फलोसेनबर्ग के यातना शिविर में मार डाला गया। उनके विचार हमें सामूहिक मूर्खताओं की निर्मितियों और उनके प्रसार के पीछे की शैतानी मनोदशाओं के बारे में सतर्क करते हैं। उन्होंने लिखाः “मूर्ख व्यक्ति प्रायः जिद्दी होता है और हमें इस तथ्य से आंख नहीं मूंद लेनी चाहिए कि वह स्वतंत्र नहीं है। वह एक जादू के वशीभूत है, अंधा हो चुका है, उसका दुरुपयोग हो रहा है और वह किसी के दुर्व्यवहार का शिकार है। इस प्रकार एक ‘नासमझ उपकरण’ में तब्दील हो चुका मूर्ख व्यक्ति हर बुराई से लैस, कैसी भी बुरी हरकत करने को हमेशा तत्पर होगा और उसे इस बात का इल्म भी नहीं होगा कि इसमें कुछ गलत भी है। यहीं पर शैतानी दुरुप्रयोग का बड़ा खतरा मंडराता है क्योंकि यही है जो इंसानियत को हमेशा के लिए नष्ट कर सकता है।”

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अधिनायकवादी राजनीति हमेशा तार्किकता और बौद्धिकता की बदनामी पर फलती-फूलती है (मुहावरा ‘बौद्धिक आतंकवाद’ याद करें)। यही उसका खाद-पानी है। इसी तरह आप लोगों को कट्टरपंथियों में तब्दील करके उन्हें आत्मघाती मिशन पर भेजते हैं। यही कारण है कि हर अधिनायकवादी बहस भावनाओं पर सबसे पहले कब्जा करती है, तार्किकता पर चोट करती है और यही वह कारण है जब व्यक्तिपरक ‘अनुभवों’ को वह वस्तुनिष्ठ साक्ष्य पर हावी कर देती है।

सामूहिक मूर्खता कभी भी प्राकृतिक आपदा नहीं होती! यह अधिनायकवादी राजनीति की एक ऐसी खासियत है जो सोचने वाली जमात को लाशों में तब्दील करने, उनकी तर्क शक्ति को कुंद करने ,व्यावहारिक समझ की उनकी क्षमता, सवाल करने और प्रभावित करने के विवेक और उनकी आजादी को निशाना बनाती है। आखिर, अच्छाई और बुराई की लोगों की सहज समझ को कुंठित और कमजोर करके नहीं, तो फिर आप नफरत और हिंसा की राजनीति की फसल को कैसे लहलहा सकते हैं?

(लेखक जाने-माने आलोचक और चिंतक हैं)

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