
बिहार चुनाव के परिणाम के बाद बहुत साथियों ने मुझसे यह सवाल पूछा कि अब चुनाव लड़ने का मतलब ही क्या बचा है? अगर हर चुनाव में ले देकर भाजपा बीजेपी को ही जिताया जाएगा और विपक्ष का सूपड़ा साफ ही किया जाएगा, तो ऐसे चुनाव में हिस्सा लेकर उसे वैधता प्रदान करने का क्या फायदा? क्यों नहीं विपक्ष चुनावों का बहिष्कार ही कर देता? क्यों नहीं जनता ही विपक्षी दलों पर दबाव बनाए कि वे आने वाले चुनावों का बहिष्कार करें?
मैं उनकी राय से सहमत नहीं था। लेकिन उनके सवाल गंभीर हैं। सवाल पूछने वाले हारे हुए दलों के नेता नहीं हैं। न ही उनका स्वार्थ विपक्षी दलों से जुड़ा है। ये अधिकांश सामान्य नागरिक, बुद्धिजीवी या फिर कार्यकर्ता हैं जो किसी दल से नहीं बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था और मर्यादा से जुड़े हैं, जो हमारे गणतंत्र के भविष्य के बारे में चिंतित हैं। यह सवाल किसी खाली दिमाग की खुराफाती उपज नहीं है। हमारे लोकतंत्र का लगातार होता क्षय इन लोगों को ऐसे सवाल पूछने पर मजबूर करता है।
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दुनिया की कई अन्य स्थापित लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की तरह भारत भी अब ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है कि इसे सामान्य लोकतंत्र या कमी-बेशी वाला लोकतंत्र भी नहीं कहा जा सकता। यह पुरानी तर्ज वाली तानाशाही भी नहीं है जिसमें मार्शल लॉ और सेंसरशिप होती थी।
इक्कीसवीं सदी में अधिनायकवाद का एक नया मॉडल उभरा है जहां लोकतांत्रिक व्यवस्था की संस्था, मर्यादा और परिपाटी को चौपट कर दिया जाता है, लेकिन चुनाव की रस्म बरकरार रखी जाती है। सत्ता को जनता का समर्थन हासिल है, यह दिखाने की मजबूरी चुनावी प्रतिस्पर्धा को जिंदा रखती है। चुनाव विपक्षी दलों के लिए बाधा दौड़ के समान होता है, जहां उन्हें कदम-कदम पर किसी अड़चन या फिसलन का सामना करना पड़ता है। लेकिन अगर वह इसे पार कर लें तो चुनाव जीत भी सकते हैं।
जनता जनार्दन के अनुमोदन की जरूरत के चलते यह सुनिश्चित करना पड़ता है कि चुनाव एकदम स्वांग ना बन जाए, उन्हें जनमत के आईने की तरह पेश किया जा सके। सरकार के विरोधियों के लिए कोई भी चुनाव जीतना टेढ़ी खीर है, मगर असंभव नहीं।
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इन हालात में किसी न किसी मोड़ यह सवाल सर उठाता है कि इस बाधा दौड़ में शामिल होने का क्या तुक है? चुनाव का बहिष्कार कर क्यों नहीं अधिनायकवादी सत्ता पर जनसमर्थन की मुहर लगाने की इस रस्म का पर्दाफाश किया जाए? इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। चूंकि चुनाव करवाने का सारा खेल वैधता हासिल करने का है, इसलिए असली मुद्दा यह है कि ऐसे किसी फैसले को जनता कैसे देखेगी। इसे फिक्स्ड मैच को खारिज करने की तरह देखा जाएगा या फिर हारे हुए खिलाड़ी द्वारा पलायन की तरह।
इसलिए ऐसे किसी भी फैसले को दो कसौटियों पर कसना होगा। पहला, क्या इस बाधा दौड़ में जीतने के लिए हर संभव प्रयास हो चुका है? क्या जनता देख रही है कि जनसमर्थन हासिल करने के लिए जो कुछ संभव था, वह विपक्ष सफलतापूर्वक कर चुका है? दूसरा, क्या यह साफ है कि चुनाव परिणाम में धांधली हुई है? क्या जनता समझ रही है कि चुनाव परिणाम जनता की सच्ची भावना का प्रतिनिधित्व नहीं करते?
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बिहार का चुनाव इन दोनों कसौटियों पर पूरी तरह खरा नहीं उतरता। यानी बिहार चुनाव के आधार पर चुनाव के बहिष्कार की मांग सही नहीं जान पड़ती। पहले विपक्षी महागठबंधन की चुनावी तैयारी और चुनाव प्रचार को लें। बिहार की राजनीति का जानकर हर शख्स यह जानता है की विपक्ष के सामने काफी लंबे समय से दो बुनियादी चुनौतियां हैं।
एक तो महागठबंधन के मुकाबले एनडीए का सामाजिक समीकरण ज्यादा मजबूत है। महागठबंधन मुस्लिम-यादव के पक्के तथा रविदास और मल्लाह समाज जैसी जातियों के कच्चे समर्थन पर टिका है जो कुल मिलाकर बिहार के 40-42 प्रतिशत हैं। एनडीए के पक्ष में अगड़ी जातियों के अलावा कुर्मी, कुशवाहा, पासवान और बड़ी मात्र में हिन्दू अति-पिछड़े भी लामबंद हैं जिनकी आबादी 50 प्रतिशत से ज्यादा है।
चुनाव जीतने के लिए विपक्ष की पहली जिम्मेदारी थी कि वह पिछड़े-दलित-हाशियाग्रस्त समाज और गरीब-गुरबा को एक माला में पिरोने की कोशिश करता और अपने सामाजिक गठबंधन का विस्तार करता। किंतु वह ऐसा नहीं कर पाया। दूसरी तरफ विपक्ष के सामने आरजेडी के राज पर “जंगल राज” के दाग को मिटाने और प्रदेश के समक्ष एक सार्थक एजेंडा रखने की चुनौती थी।
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इस मायने में भी महागठबंधन कुछ ठोस और बड़ा नहीं कर पाया। नीतीश कुमार सरकार ने पिछले कई चुनाव से महिलाओं को अपनी तरफ झुकाने की कोशिश जारी रखी और महिलाओं के साथ अन्य अनेक वर्गों को चुनाव से पहले पेंशन वृद्धि, मानदेय में बढ़ोतरी और बिजली बिल में कटौती जैसी सौगात देकर अपना पाला मजबूत किया। ऐसे में एनडीए का जीतना बहुत हैरानी की बात नहीं थी। ऐसे चुनाव के आधार पर चुनाव बहिष्कार की बात करना बिहार की जनता के गले नहीं उतरेगा।
बिहार चुनाव के दौरान और उसके बाद चुनाव में धांधली की बहुत शिकायत आईं। इसमें कोई शक नहीं कि बिहार चुनाव व्यवस्थागत बेईमानी का नमूना था। निर्वाचन सूची से 68 लाख नाम निकालना और 24 लाख नाम जोड़ना, आचार संहिता लागू होने के बाद महिलाओं को 10 हजार रुपये घूस देने की अनुमति देना, उन्ही “जीविका दीदियों” को चुनाव ड्यूटी देना, भाजपा समर्थकों के लिए अन्य राज्यों से बिहार के लिए विशेष ट्रेन चलवाना, मीडिया का दिन रात एनडीए के लिए प्रचार और महागठबंधन के विरुद्ध विषवमन जैसे चंद उदाहरण व्यवस्थागत भेदभाव को साबित करने के लिए पर्याप्त हैं।
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शुरू से अंत तक चुनाव महागठबंधन के लिए बाधा दौड़ था। लेकिन फिलहाल एक न्यूनतम अर्थ में चुनावी धांधली के पक्के प्रमाण नहीं हैं। यानी बिहार में इसकी शिकायत तो आई है कि वोट में धांधली हुई, मतदान के आंकड़े बढ़ाए गए और सीटों की संख्या में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी हुई, लेकिन इसके पुख्ता सबूत नहीं हैं। ऐसे संवेदनशील सवाल पर बिना सबूत के दावा करना ठीक नहीं है। बाद में और प्रमाण मिल जाएं तो बात अलग है, फिलहाल महागठबंधन के पक्के समर्थकों के अलावा बहुत लोग यह मानने को तैयार नहीं होंगे कि एनडीए ने चोरी के आधार पर सरकार बनाई है।
अभी की स्थिति में बिहार चुनाव के आधार पर वोट बहिष्कार की मांग करने से भेड़िये वाली कहानी दोहराए जाने की आशंका है। जब भेड़िया सचमुच आएगा, तो कोई यकीन करने को तैयार नहीं होगा।
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