विचार

भीड़ तंत्र बनने से हमारे लोकतंत्र को बचाना जरूरी

वे जो हमारे देश में एक खास धर्म आधारित राष्ट्र के नाम पर रिझे बैठे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि असल में यह भीड़-राष्ट्र बनाने की कोशिश है। जहां थाली-ताली पीटने का आदेश बिना सवाल किए मान लिया जाता है। जहां भीड़ में कुचला जाना पुण्यात्मा होने का सौभाग्य है।

भीड़ तंत्र बनने से हमारे लोकतंत्र को बचाना जरूरी
भीड़ तंत्र बनने से हमारे लोकतंत्र को बचाना जरूरी फोटोः सोशल मीडिया

देश ने अपना पचहत्तरवां गणतंत्र मनाया। आखिर गणतंत्र के स्वप्नदृष्टा क्या सोचते थे? वे एक ऐसे दौर में संविधान बनाने में जुटे थे जब पूरे विश्व में भयानक हिंसा, युद्ध, नफरत का वातावरण था।तब संविधान सभा एक नव राष्ट्र-राज्य की इमारत खड़ी करने का मानचित्र बनाने बैठी थी। संविधान के हर एक पृष्ठ में केवल यही अंकित किया गया है कि भारत किसका होगा? क्या मात्र बहुसंख्या का होगा? क्या प्रभुत्व संपन्न जाति, वर्ग, क्षेत्र, वर्ण, लिंग का होगा? क्या भारत ‘‘ज्यादातर की ज्यादातर खुशी‘‘ से संतुष्ट हो जाएगा या भारत उस फकीर के इस जंतर पर चलेगा कि अंतिम पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति के आंसू पोंछे जा सकें। यह महसूस हो कि भारत के निर्माण में उसकी भी भूमिका है।

यदि ऐसा भारत बनाना है, तो फिर कैसा संविधान होगा? हम एक संप्रभुत्व संपन्न राष्ट्र-राज्य हैं। हमें किसी की हुकूमत कुबूल नहीं। न केवल अधिनायकत्व की दौड़ में शामिल सबसे बड़े मुल्क द्वारा भौगोलिक सीमा का अतिक्रमण गंवारा नहीं है बल्कि किसी समुदाय का प्राधन्य मंजूर नहीं है। चंद पूंजीपतियों का एकाधिपत्य और आर्थिक गुलामगिरी, मान्यताओं को थोपे जाने की तहजीबी उग्रता, लैंगिक श्रेष्ठता का दबाव, प्रभुत्व संपन्न जातियों का बहुजनीय जीवन शैली पर प्रहार और उसके नकार से भी उतना ही गुरेज है। संविधान निर्माण समिति के अध्यक्ष की संविधान सभा में की गई अंतिम टिप्पणी आज के संदर्भ में मार्गदर्शी है।

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मध्यकालीन पाश्चात्य जगत में सामंती आधिपत्य को चुनौती देते हुए पूंजी की उदारता का आरंभ हुआ ताकि सामान्य जन पूंजी निवेश करते हुए उद्यमिता को अभिव्यक्ति दे सके। कालांतर में अनियंत्रित खुले बाजार ने हाशिये पर खड़े वर्ग को और बेबस असहाय, दुर्बल किया। उसी के प्रतिकार में साम्यवादी विचार पनपा। हमारे अपने मुल्क ने पूंजी के एकाधिपत्य के खतरे को भांपते हुए समाजवाद को औपचारिक रूप से जोड़ा।

यही पृष्ठभूमि पंथ निरपेक्षता की भी रही है। जब पोप का पदानुक्रम राज सत्ता को मध्यकालीन यूरोप में चुनौती देने लगा, तब राजनीतिक सत्ता को धार्मिक मान्यता की प्रशासकीय सत्ता माने पोप और चर्च के पदानुक्रम की ताकत से विलग किया गया। पूंजी, राजसत्ता और चर्च की प्रशासकीय व्यवस्था एक दूसरे की निगरानी में थे। अंतिम बारी राजसत्ता के चुनौती की आई।

मैग्ना कार्टा से शुरुआत हुई और राजसत्ता की केन्द्रीकृत वंशानुगत ताकत का स्थान लोकतंत्र ने लिया। हमारे अपने मुल्क में आजादी के बाद देशी रियासतदारों, जमींदारों को परे रखकर मजबूत लोकतंत्र की नींव रखी गई। इस पार्श्वभूमि में बाबा साहेब की टिप्पणी को समझा जाए।बाबा साहेब की उक्ति यह थी कि आर्थिक, सामाजिक तौर पर व्यक्ति की समता के बगैर केवल हर एक जन के एक मत से लोकतंत्र बरकरार नहीं रह सकेगा।

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चुनाव की रस्म अदायगी के बतौर तो हर एक के पास केवल एक मत का हक होगा। मगर यदि पूंजीवादी एकाधिपत्य करोड़ों के मत को प्रभावित करने वाले संपर्क संचार साधनों की बागडोर थामे बैठे रहें, वे अपना स्वमत न भी दान करें, तब भी वे जिस स्व-हित साधक विचार व्यवस्था को चाहेंगे, उसको चुनावी दंगल का विजेता घोषित करवा सकेंगे।

किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की बुनियाद में लोग है। उनकी सामूहिक चेतना और उनका नैसर्गिक विवेक है। यदि समुदाय को निश्चेत कर दिया जाए, तो उनको भीड़ में तब्दील करना होगा। स्वराज संग्राम की सारी शक्ति इसी पर लगाई गई थी कि लोग अपनी चेतना को चेताए। भीड़ में तब्दील न होने पाए।

भीड़ में तब्दील प्रतिरोध केवल प्रतिशोध, प्रतिहिंसा होकर रह जाएगा। जरा-सी सुगबुगाहट चौरी चौरा में दिखाई पड़ी, तो असहयोग आंदोलन का महान अभियान रोक दिया गया क्योंकि हमें भीड़ तंत्र नहीं बनना था। लोकतंत्र बनना था। जहां नैसर्गिक विवेक के आधार पर सूत्र संचालन हो।

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मगर आज पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक मुल्क भीड़ रिझाने में लगे हैं। उसे ही विनेबिलिटी माना जाता है। निश्चेत मानस को भीड़-भेड़ चाल में बिना आहट के बदलने के लिए बड़े आयोजन होते हैं। हर घटना सनसनी, मनोरंजन में बदल दी जाती है। हर संचार साधन इसी अभिक्रम में लगा है। पूंजीवादी एकाधिपत्य और सत्ता का गठजोड़, सांप्रदायिक मोहिनी का इस्तेमाल करके समुदाय को भीड़ में बदलता है।

चुनावी परिणाम किसी भी पक्ष में आए, जीत भीड़ तंत्र की होती है। कुछ फैसले बदलते हैं, पर भीड़ को रिझाने की कवायद किसी को नहीं बख्शती। चुनाव की रस्म अदायगी खत्म करने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसा कुछ भी करना जिससे जरा भी चेतना लौटने का संशय हो, वह खतरा उठाया क्यों जाए? हर संस्था का इस्तेमाल लोकतंत्र का ढकोसला कायम रखने के लिए किया जाता है। आर्थिक उपनिवेशी आधिपत्य मानस से खेलता है और बहुमत का उत्पादन कराता है।

वे जो हमारे देश में एक खास धर्म आधारित राष्ट्र के नाम पर रिझे बैठे हैं, उन्हें मालूम होना चाहिए कि असल में यह भीड़-राष्ट्र बनाने की कोशिश है। जहां थाली-ताली पीटने का आदेश बिना सवाल किए मान लिया जाता है। जहां भीड़ में कुचला जाना पुण्यात्मा होने का सौभाग्य है।जहां दलित का पिटना-प्रताड़ित होना उसका प्रायश्चित है ताकि उसे फिर अच्छा अगला जन्म मिले। जहां वैवाहिक उत्पीड़न झेलना संस्कृति है। जहां प्रज्ञा सुप्त हो जाए, वहां के तंत्र पर पूर्ण दबदबा लघुतम एकाधिपत्य का हो जाता है।

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गोया कि सत्ता का अतिरिक्त केन्द्रीकरण इस एकाधिपत्य को ही मजबूत करता है। तभी जमीनी फैलाव वाले छोटे-छोटे गांव गणसंघ की परिकल्पना हिन्द स्वराज में की गई। लोकतंत्र को प्रासंगिक रखने, जीवित, जीवंत रखने के लिए यही सबसे बड़ा नवाचार और आधुनिकीकरण होगा। अन्यथा राष्ट्र-राज्य भीड़-राज्य में बदल जाएगा।

राष्ट्र-राज्य का नव संस्करण कैसा होगा? जहां राष्ट्र माने लोग और उनका सामूहिक चैतन्य तथा पर्यावरणीय सौहार्दमय सहजीवन। राष्ट्र-राज्य को आज सूचना प्रौद्योगिकी फेसबुक जैसा सोशल मीडिया नेटवर्क खुला बाजार और तकनीक भी चुनौती दे रहा है। ऐसे में लोक चेतना बहुत जरूरी है। लोक चेतना के बगैर जो खड़ा होता है, वह मात्र भीड़ संचालित सनसनी, सस्ता मनोरंजन होकर रह जाता है। किसी कभी न खत्म होने वाले बार-बार जिन्दा होते मृत पात्रों का सोप ओपेरा हो जाता है।

वैसे चेतना इतनी चेत होती है कि बरबस चेतकर ही मानती है। नैसर्गिक चेतना ही हमें पुनः लोकतांत्रिक बना सकती है।

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