विचार

जोशीमठ तो बीमारी का लक्षण भर, लालच का रोग अब अरावली को लीलने पर तुला, खतरे में लाखों जिंदगियां

राजस्थान का मरुस्थल धीरे-धीरे दिल्ली-एनसीआर की ओर बढ़ रहा है और उसके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है अरावली। वह प्राकृतिक दीवार बनकर थार के मंसूबों को जमीन पर उतरने से रोक रही है। लेकिन आखिर कब तक?

फोटोः GettyImages
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जोशीमठ में जो हो रहा है, उसकी तमाम वजहें होंगी लेकिन उनमें एक है इंसानी लालच जिसने पूरे हिमालय क्षेत्र की संवेदनशीलता को ताक पर रख दिया। वही लालच जिसने दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखला अरावली को जैसे समतल करने का बीड़ा उठा रखा है। यह असंवेदनशीलता सरकारी रुख में भी दिखती है। अरावली को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से ही गायब कर दिया गया है। वैसे ही, जैसे भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण जो भारत का नक्शा तैयार करता है, उसमें हिमालय को नहीं दिखाता है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए क्षेत्रीय योजना 2041 के मसौदे जिसमें प्राकृतिक संरक्षण क्षेत्रों का विस्तृत विवरण दिया गया है, से अरावली पहाड़ियों और यमुना, गंगा, काली, हिंडन और सहबी तथा इनकी सभी सहायक नदियों, पशु अभयारण्यों को बाहर कर दिया गया है। इनमें हरियाणा की बड़खल, सूरज कुंड और दमदमा झील और राजस्थान की सिलीसेढ़ झील को भी शामिल नहीं किया गया है। इसके साथ ही इन संरक्षण क्षेत्रों में निर्माण पर लगी सीमा को भी हटा दिया है। इन क्षेत्रों में भूमि के 0.5 प्रतिशत पर ही निर्माण की इजाजत थी और यह शर्त मौजूदा  2021 योजना का अभिन्न अंग थी।

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इसका सीधा-सा मतलब यह है कि स्वामी रामदेव के पतंजलि समूह, एम3एम और आईआरईओ सहित गुरुग्राम, फरीदाबाद और मेवात में सक्रिय ताकतवर रियल एस्टेट लॉबी यहां बेरोकटोक वाणिज्यिक और आवासीय उद्देश्यों से निर्माण कर सकेंगी। इन समूहों पर आरोप है कि उन्होंने पंचायती भूमि (गैर मुमकिन पहाड़) और वन भूमि को औने-पौने दामों पर खरीद रखा है। जबकि 7 अप्रैल, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि इन क्षेत्रों में सभी पंचायती भूमि पंचायतों को वापस कर दी जाए। एम3एम समूह ने गुरुग्राम में ट्रंप टावर बनाया है जिसमें शुरुआती कीमत ही 8.5 करोड़ रुपये है।

गुरुग्राम के एक्टिविस्ट चेतन अग्रवाल बताते हैं, 'एनसीआर में सक्रिय रियल एस्टेट लॉबी ने ऐसे लैंड बैंक बनाए हैं जिन पर वे प्राकृतिक संरक्षण क्षेत्रों में निर्माण पर 0.5 प्रतिशत के प्रतिबंध के कारण निर्माण नहीं कर सके। इनमें से कई रियल एस्टेट डेवलपरों ने वन और पंचायती दोनों तरह की जमीनों पर कब्जा कर रखा है। अब वे इन पर निर्माण कर सकेंगे क्योंकि क्षेत्रीय योजना 2041 ने प्राकृतिक संरक्षण क्षेत्र को सीमित कर दिया है और जोनिंग विनियमन को हटा दिया है।’

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विडंबना है कि जिस पर्यावरण और वन मंत्रालय ने इन भूमि उपयोग परिवर्तनों का विरोध किया था और जिसका काम हमारे पर्यावरण को संरक्षित करना है, उसने इस पर स्वीकृति की मुहर लगा दी है और वे खुद ही इन बदलावों की जमीन तैयार कर रहा है। मंत्रालय ने 11 जुलाई, 2022 के अपने पत्र में अस्पष्ट भाषा की आड़ में बड़ी चालाकी से असली मंशा को छिपा लिया है।

पत्र कहता है कि ‘यह विवरण (वनों का) सभी वैधानिक मान्यता प्राप्त वनों को कवर करता है चाहे वे वन संरक्षण अधिनियम की धारा 2 (1) के तहत आरक्षित, संरक्षित या किसी और रूप में घोषित हों। वन संरक्षण अधिनियम की धारा 2 में जिस 'वन भूमि' शब्द का इस्तेमाल किया गया है, उसमें न केवल वे वन शामिल होंगे जो शब्दकोशीय अर्थ में वन समझे जाते हैं बल्कि वे भी जो सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज हों, चाहे वह किसी के भी स्वामित्व में हो।'

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चेतन अग्रवाल इस पर आपत्ति जताते हुए सवाल करते हैं कि 'शब्दकोशीय अर्थ' से क्या मतलब है क्योंकि हरियाणा ने 1996 से शब्दकोष के अर्थ के अनुसार वन के रूप में तो एक एकड़ जमीन की भी पहचान नहीं की है। अरावली का एक बड़ा हिस्सा वन के रूप में अधिसूचित ही नहीं है और ऐसे में इस पूरे क्षेत्र का दोहन किया जा सकता है।

इन सब गतिविधियों का एनसीआर समेत पूरे उत्तर भारत पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है क्योंकि अभी ही एनसीआर समेत पूरा उत्तर भारत कड़ाके की ठंड से जूझ रहा है और धुंध-वायु प्रदूषण के कारण स्थिति और भी बदतर हो गई है। वन मंत्रालय यह भी बखूबी जानता होगा कि दिल्ली दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी है। वहीं, सेंटर ऑफ साइंस एंड एनवायरनमेंट के एक हालिया अध्ययन में गाजियाबाद, नोएडा, दिल्ली, गुरुग्राम और फरीदाबाद उत्तर भारत के सबसे प्रदूषित शहर दिखाए गए हैं।

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उत्तर भारतीय शहरों के लिए अरावली ने एक प्राकृतिक सुरक्षा दीवार का काम किया है। उसके हरे-भरे जंगल उत्तर भारत के तमाम शहरों के लिए फेफड़े की तरह रहे हैं। यह अरावली ही है जिसने एनसीआर को अपने शिकंजे में लेने के लिए बढ़ते चले आ रहे थार रेगिस्तान को रोक रखा है।

भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिक बिलाल हबीब ने बताया कि कैसे उत्तरी राज्यों में वन क्षेत्र बहुत ही तेजी से घट रहा है। उन्होंने कहा, `हरियाणा और पंजाब में वन क्षेत्र इनके कुल भौगोलिक क्षेत्र के तीन प्रतिशत के स्तर तक पहुंच गया है। दिल्ली में वन क्षेत्र जरूर 13 प्रतिशत है, लेकिन यहां भी तेजी से गिरावट हो रही है।’

वन्यजीव संस्थान ने हाल ही में अरावली में प्रमुख वन्यजीव प्रजातियों के संदर्भ में एक रिपोर्ट तैयार की है। इसमें कहा गया है कि यदि इसी दर से गिरावट का यह सिलसिला जारी रहा और अरावली ने अपना वानस्पतिक आवरण खो दिया तो इस क्षेत्र में पौधे प्रतिरोधक क्षमता खो देंगे और बढ़ती धूल उनके अस्तित्व के लिए भी खतरा बन जाएगी। बिलाल ने कहा, 'हरियाणा में हमारे अध्ययन में, हमने 15 से 20 क्षेत्रों की पहचान की जो वन्यजीवों के लिए महत्वपूर्ण थे। जैविक विविधता को संरक्षित करने के लिए इन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।'

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दिल्ली विश्वविद्यालय में भूविज्ञान के सहायक प्रोफेसर शशांक शेखर मानते हैं कि अरावली को संरक्षित रखने का इससे भी बड़ा कारण है। यह अरावली ही है जो हमारी भूजल प्रणालियों के लिए एक प्राकृतिक जल पुनर्भरण क्षेत्र है। एनसीआर में पानी के मुद्दों पर व्यापक तौर पर काम करने वाले पर्यावरण भौतिक विज्ञानी प्रोफेसर विक्रम सोनी ने प्रयोगों के माध्यम से दिखाया है कि कैसे रिज (अरावली का हिस्सा) खनिज पानी के लिए एक प्राकृतिक भूमिगत जलाशय के रूप में काम करता है।

सोनी ने कहा, 'यह मिनरल वाटर करोड़ों रुपये का है और अगर सरकार ने अरावली में फार्म हाउस बनाने की इजाजत नहीं दी होती, तो इससे पानी के एक बड़े भंडार तक पहुंचने में मदद मिलती जिससे एनसीआर का जल संकट हल हो जाता।' एनसीआर में हवा और पानी को पहले ही इतना नुकसान हो चुका है। अरावली जंगल हैं और वन संरक्षण अधिनियम 1980 के तहत उसे नष्ट नहीं किया जा सकता।' उन्होंने कहा, 'पहले ही इस सरकार ने हमारे हिमालय को नष्ट कर दिया है। अब वे उस अरावली को नष्ट करने पर तुले हुए हैं जो धीरे-धीरे बंजर हो रही हैं, उसकी वनस्पति खत्म हो रही है।

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अरावली में अवैध खनन भी एक गंभीर समस्या है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने एनसीआर में सभी खनन गतिविधियों को रोकने का आदेश दे रखा है लेकिन पुलिस की मिलीभगत से कुछ-कुछ अवैध खनन अब भी हो रहा है। पर्यावरणविदों की चेतावनी नजरअंदाज कर दी गई है। तथ्य यह है कि अरावली सिंधु बेसिन और गंगा बेसिन के बीच जलीय विभाजक की तर्ज पर काम करती है और इसका हरा आवरण पूरे उत्तर पूर्व भारत में वर्षा के पैटर्न पर असर डालता है। सरकारी संरक्षण के लिहाज से अरावली को प्राथमिकता वाला क्षेत्र होना चाहिए था लेकिन अफसोस की बात है कि ऐसा नहीं हुआ।

जब क्षेत्रीय योजना 2041 के मसौदे को 5 जुलाई, 2022 को बोर्ड की बैठक में मंजूरी दी जानी थी, तब तक वन मंत्रालय ने इन बदलावों को हरी झंडी नहीं दिखाई थी लेकिन 11 जुलाई को मंत्रालय ने गुलाटी मारी और नामकरण को बाहर करने और सभी जोनिंग विनियमों को हटा दिया। संयोगवश 5 जुलाई की बैठक के एजेंडे की इतनी जबर्दस्त आलोचना हुई कि इसे किसी सही समय के इंतजार में ठंडे बस्ते में डालने का निर्णय लिया गया।

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स्पष्टत: सरकार ने 2023 की शुरुआत को इसके लिए अच्छा समय माना होगा। इस फैसले के विरोध में उन्हें पहले ही हजारों (2,590) ईमेल मिल चुके हैं लेकिन ऐसा लगता है कि इसका सरकार पर कोई असर नहीं हुआ। ऐक्टिविस्टों का मानना है कि रियल एस्टेट लॉबी की उन नेताओं के साथ मिलीभगत है जो इन गलत सोच वाले बदलावों को हर हाल में आगे बढ़ाना चाहते हैं।

अरावली पर्वतमाला गुजरात के चंपानेर से लेकर राजस्थान तक फैली हुई है और यह दिल्ली में समाप्त होती है। हरियाणा में यह महेंद्रगढ़, रेवाड़ी, फरीदाबाद, गुरुग्राम और मेवात में फैली हुई है। पिछली शताब्दी तक इस श्रृंखला का 80 फीसद हिस्सा प्राकृतिक वनों से आच्छादित था। वर्ष 1975- 2019 के बीच इसने 4,452 वर्ग किलोमीटर हरी वनस्पति खो दी जो कि दिल्ली के 40 प्रतिशत भूभाग के बराबर है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि अगले 40 वर्षों में 16, 360.8 वर्ग किमी क्षेत्र आवासीय कॉलोनियों में बदल जाएगा।

विशेषज्ञ जोशीमठ के उदाहरण की ओर इशारा करते हैं और बताते हैं कि कैसे सत्ता में बैठे लोगों के वैज्ञानिक की सलाह न मानने के कारण हमारे हिमालयी शहर 'डूब' रहे हैं और इससे इन इलाकों में रह रहे लोगों को भारी कठिनाइयों और आजीविका का नुकसान उठाना पड़ रहा है। अगर सरकार ने वैज्ञानिकों की सलाह मानी होती जिन्होंने बड़ी बिजली परियोजनाओं, सड़क निर्माण और रास्ता निकालने के लिए सुरंगें बनाने के अंधाधुंध निर्माण कार्य से बाज आने को कहा था, तो कई सौ नागरिकों को इस कड़ाके की ठंड में अपने घरों को छोड़ने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता।

सरकार अब एक और जीवन रेखा को नष्ट करने पर तुली हुई है जिससे लाखों लोगों की जिंदगी प्रभावित होने वाली है।

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