भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को बदनाम करने के लिए बीजेपी-संघ द्वारा बार-बार दोहराए जाने वाले तमाम झूठ की बात होगी, तो जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय में उनकी (गलत तरीके से प्रस्तुत) भूमिका और इस मसले पर सरदार वल्लभभाई पटेल के साथ उनके (गलत तरीके से प्रस्तुत) मतभेदों को सबसे ऊपर रखा जाएगा।
यह मुद्दा उठाने की आखिरी और हालिया कोशिश 31 अक्तूबर को गुजरात के एकता नगर में राष्ट्रीय एकता दिवस समारोह में हुई, जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि “सरदार पटेल तो पूरे कश्मीर का भारत में विलय कराना चाहते थे, लेकिन नेहरू ने ऐसा नहीं होने दिया।” भारतीय इतिहास के प्यारे युवा विद्यार्थियों को बताना जरूरी है कि इस प्रचारात्मक आख्यान का उद्देश्य पटेल को एक दृढ़ राष्ट्रवादी और नेहरू को एक ढुलमुल आदर्शवादी के रूप में प्रस्तुत करना है।
देखना होगा कि प्रशासनिक दस्तावेजों, समकालीन पत्राचारों और कुछ गंभीर इतिहासकारों के गंभीर शोध में संरक्षित ऐतिहासिक अभिलेख इस कहानी की कितनी पुष्टि करते हैं।
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राजमोहन गांधी ने ‘पटेल: अ लाइफ’ में स्पष्ट किया है कि कश्मीर के प्रति पटेल का दृष्टिकोण ‘यथार्थवादी था, जुनूनी नहीं’। और इशारा करते हैं कि, ‘पटेल महाराजा की दुविधा को पसंद नहीं करते थे, लेकिन इस लड़ाई में जल्दबाजी भी नहीं करना चाहते थे... पटेल ने कश्मीर पर नेहरू के नेतृत्व को स्वीकार किया क्योंकि यह मामला विदेशी मामलों और संयुक्त राष्ट्र से जुड़ा था, और जो प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी के अंतर्गत आता था।’
राजमोहन गांधी आगे इस बात पर जोर देते हैं: ‘इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि पटेल ने कश्मीर को पूरी तरह से एकीकृत न करने देने पर किसी तरह की निराशा जताई हो या पूरे राज्य पर सैन्य कब्जा करने की वकालत की हो।’
‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि, ‘नेहरू और पटेल दोनों ही राष्ट्र निर्माण की साझा सहमति से प्रेरित थे, भले ही उनके तरीके और स्वभाव कभी-कभी अलग रहते थे... कश्मीर नीति को आकार देने में कैबिनेट के अंदर विचार-विमर्श की वैसी ही भूमिका रही जितना कि निजी व्यक्तित्वों की।’
गुहा पूर्वव्यापी प्रभाव से ‘वैचारिक खाई’ उत्पन्न करने के खिलाफ चेतावनी देते हुए तर्क देते हैं कि ‘दोनों नेताओं के बीच स्पष्ट विरोध का सार्वजनिक चित्रण उनके वास्तविक संबंधों को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है।’
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अक्तूबर 1947 में, जम्मू और कश्मीर उन 562 रियासतों में से एक था, जिनके सामने भारत या पाकिस्तान में विलय या स्वतंत्र रहने का विकल्प था। महाराजा हरि सिंह तत्काल कोई अधिराज्य चुनने के पक्ष में नहीं थे। सरदार पटेल के अधीन राज्य मंत्रालय के सचिव और इन एकीकरणों के एक प्रमुख वार्ताकार वी.पी. मेनन के अनुसार, पटेल ने शुरुआत में महाराजा पर दबाव डालने के बजाय ‘प्रतीक्षा करने और देखने’ का उनका फैसला मान लिया था। द स्टोरी ऑफ द इंटीग्रेशन ऑफ द इंडियन स्टेट’ में मेनन लिखते हैं कि अक्तूबर 1947 के अंत के पाकिस्तान से कबाइली हमले तक, पटेल महाराजा को अपना निर्णय स्वयं लेने देने के लिए तैयार थे, ‘भले ही वह विकल्प आजादी ही क्यों न हो।’
मेनन साफ शब्दों में लिखते हैं: जम्मू-कश्मीर में पटेल की सक्रिय भागीदारी पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित कबाइली हमले के बाद तब शुरू हुई, जब महाराजा ने भारत से सैन्य मदद मांगी।26 अक्तूबर 1947 को दिल्ली में हुई महत्वपूर्ण बैठक में यह निर्णय लिया गया कि भारत विलय पत्र पर हस्ताक्षर के बाद ही सेना भेजेगा। इस बैठक में माउंटबेटन, नेहरू और पटेल शामिल थे। महाराजा के हस्ताक्षर लेने के लिए वी.पी. मेनन ही जम्मू गए थे- और यह नेहरू नहीं, बल्कि पटेल थे जिन्होंने जोर दिया था कि सैन्य प्रतिक्रिया तत्काल होनी चाहिए।
मेनन के ब्योरे में पटेल कहीं भी हमले से पहले ‘संपूर्ण कश्मीर के विलय’ की वकालत नहीं करते या इसे रोकने के लिए नेहरू के प्रति अपनी निराशा व्यक्त नहीं करते। घटनाओं का सिलसिला दर्शाता है कि पटेल के एक्शन संकट के प्रति संवेदनशील थे, न कि एकीकृत कश्मीर के असफल दृष्टिकोण के प्रति।
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जैसा कि दुर्गा दास द्वारा संपादित ‘सरदार पटेल के पत्राचार, 1945-50’ में 3 जनवरी 1948 के हवाले से दर्ज है, पटेल नेहरू को लिखते हैं: ‘हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसा कुछ भी न किया जाए जिससे कश्मीर में हमारी स्थिति खतरे में पड़ जाए। आपने इस मसले को संभाला है और इसे मुझसे कहीं बेहतर जानते हैं।’
पटेल का लहजा सम्मानजनक है, जो कश्मीर मुद्दे पर नेहरू के नेतृत्व को स्वीकार करता है। अक्तूबर 1947 और 1948 की शुरुआत के बीच लिखे गए कई पत्रों में, पटेल हैदराबाद, जूनागढ़ के विलय और पंजाब में सिख रियासतों के एकीकरण में व्यस्त दिखाई देते हैं- कश्मीर को मुख्यतः नेहरू पर छोड़ देते हैं, क्योंकि नेहरू इस क्षेत्र से व्यक्तिगत और भावनात्मक रूप से जुड़े हुए थे।
एस. गोपाल ने ‘जवाहरलाल नेहरू: एक जीवनी (खंड 2)’ में मंत्रिमंडल में जिम्मेदारियों के इस बंटवारे की पुष्टि की है। नेहरू, कश्मीरी मूल के होने और शेख अब्दुल्ला से अच्छी तरह परिचित होने के कारण, स्वाभाविक रूप से इस क्षेत्र में नीति का नेतृत्व करते थे। पटेल ने न तो इस व्यवस्था का विरोध किया और न ही कभी इस पर खेद जताया।
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प्रधानमंत्री मोदी का यह कहना कि ‘कश्मीर नेहरू की गलतियों से बंटा और जल गया’ दर्शाता है कि इस क्षेत्र का विभाजन सीधे-सीधे नेहरू के फैसलों का नतीजा था। यह व्याख्या 1947-48 के भू-राजनीतिक समीकरण की एक (पूर्वाग्रही) गलत व्याख्या है। भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू और कश्मीर का विभाजन कांग्रेस के किसी आंतरिक नीतिगत मतभेद से नहीं, बल्कि प्रथम कश्मीर युद्ध (1947-48) के परिणाम और उसके बाद जनवरी 1949 में संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में हुए युद्धविराम से तय हुआ था। तब तक, पटेल और नेहरू ने संयुक्त रूप से युद्धविराम पर सरकार की स्वीकृति पर हस्ताक्षर कर दिए थे। यह एक ऐसा तथ्य है जिसकी पुष्टि मेनन, गोपाल और स्टेनली वोलपर्ट (‘नेहरू: अ ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’) सभी करते हैं।
इतना ही नहीं, इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि पटेल ने किसी स्तर पर संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप का विरोध किया हो या ‘पूरे कश्मीर’ पर सैन्य कब्जा करने की सिफारिश की हो। इतिहासकार श्रीनाथ राघवन ने ‘वॉर एंड पीस इन मॉडर्न इंडिया’ (2010) में लिखा है कि भारत के सामने मौजूद सैन्य और कूटनीतिक सीमाओं को समझने में दोनों नेता खासा व्यावहारिक रुख रखते थे।
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इस धारणा को पुष्ट करने के लिए कि पूरे कश्मीर के विलय की पटेल की इच्छा नेहरू के आदर्शवाद के कारण विफल हो गई, कोई दस्तावेजी समर्थन नहीं मिलता। जैसा कि राजमोहन गांधी लिखते हैं: ‘इस बात का कोई प्रमाण मौजूद नहीं है कि पटेल ने निजी या सार्वजनिक रूप से कश्मीर पर पूर्ण सैन्य विजय की वकालत की हो या उन्हें संकट के समय नेहरू के नेतृत्व से कोई आपत्ति हो।’
मोदी द्वारा इस ऐतिहासिक घटनाक्रम को गलत तरीके से फिर से रचना, 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने को उचित ठहराने और अपनी सरकार के एकतरफा फैसले को ‘कश्मीर के पूर्ण एकीकरण की पटेल की असफल इच्छा’ की पूर्ति के रूप में प्रस्तुत करना एक कुत्सित चाल है। यह एक झूठ है क्योंकि पटेल हमेशा संवैधानिक वार्ता और रियासतों की सहमति के दायरे में काम करते थे, जबकि 2019 का अनुच्छेद 370 का निरस्तीकरण एक ऐसा थोपा हुआ प्रावधान था जिसे मोदी सरकार ने संविधान की कपटपूर्ण पुनर्व्याख्या के जरिये उचित ठहराने की कोशिश की।
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