बीजेपी को क्रॉस-वोटिंग की आशंका और एनडीए के भीतर बढ़ती बेचैनी के बीच, आज होने वाला उपराष्ट्रपति का चुनाव भारत के राजनीतिक परिदृश्य को नया रूप दे सकता है।
जाहिर तौर पर तो आंकड़े साफ नजर आते हैं। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और उसकी अगुवाई वाले एनडीए के सहयोगियों के पास संसद में बहुमत है। उनके पास 427 सांसद हैं। इसके विपरीत, विपक्षी दल इंडिया के पास 353 सांसद ही हैं। उपराष्ट्रपति पद के चुनाव में जीत के लिए किसी भी उम्मीदवार को 392 वोटों की जरूरत होती है। सीधा अंकगणित देखें तो बीजेपी-एनडीए पूर्व राज्यपाल सी पी राधाकृष्णन की आसान जीत का संकेत मिलता है।
लेकिन सियासत सिर्फ अंकगणित पर तो आधारित नहीं होती। पिछले कुछ हफ़्तों में, असहमति, लॉबिंग और क्रॉस-वोटिंग की आशंका की खबरों ने बीजेपी नेतृत्व को बेचैन कर दिया है। विपक्ष के उम्मीदवार, सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी, एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरे हैं। और, ऐसा इसलिए नहीं कि इंडिया ब्लॉक के पास संख्याबल है, बल्कि इसलिए कि बीजेपी अपने ही घर को लेकर इतनी कम आश्वस्त कभी नजर आई जितनी इस दौरान नजर आती रही है।
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आमतौर पर, उपराष्ट्रपति पद के चुनाव को लेकर उस तरह की सरगर्मी नहीं होती जैसी आम चुनाव या किसी महत्वपूर्ण राज्य चुनाव को लेकर होती है। फिर भी, इस बार दांव पर काफी कुछ लगा हुआ नजर आता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने सी पी राधाकृष्णन की जीत सुनिश्चित करने में अपनी पूरी निजी शक्ति झोंक दी है।
दोनों के लिए परेशानी का सबब सिर्फ़ संख्याबल की नहीं है। बल्कि वफ़ादारी की बीजेपी के भीतर असंतोष की एक सुगबुगाहट तो है ही और कुछ सांसद निजी तौर पर इसे अति-केंद्रीकृत कार्यशैली कहते हैं। सरगोशियां हैं कि एनडीए में, चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी अपने विकल्पों पर सावधानी से विचार कर रही है,हालांक सार्वजनिक तौर पर वह एनडीए के साथ ही दिखने की कोशिश कर रही है। वहीं नवीन पटनायक की बीजेडी ने तो वोटिंग से गैर-हारजिर रहने का ऐलान कर दिया है।
दूसरी तरफ इंडिया ब्लॉक ने अपने उम्मीदवार बी सुरदर्शन रेड्डी के लिए आक्रामक अभियान चलाया है। खबरें हैं कि जस्टिस रेड्डी ने सभी दलों के असंतुष्ट सांसदों से संपर्क साधा है, मतदान की गोपनीयता और इस संभावना का फायदा उठाते हुए कि विरोध में किए गए मतदान से नतीजे का तराजू किसी भी तरफ झुक सकता है।
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जीत के लिए 392 वोट जरूरी हैं। जस्टिस रेड्डी की जीत तभी संभव है जब एनडीए के लगभग 35-40 सांसद, जिनमें बीजेपी भी शामिल है, को क्रॉस-वोटिंग करें। इसके अलावा इंडिया ब्लॉक को कुछ छोटी पार्टियों या निर्दलीय सांसदों का समर्थन भी हासिल करना होगा।
यह एक मुश्किल काम लगता है। फिर भी, बीजेपी सांसदों के बीच बेचैनी की फुसफुसाहट ने विपक्ष को उम्मीद तो दे ही दी है। राधाकृष्णन की जीत का कम अंतर भी सत्तारूढ़ गठबंधन में दरार का सबूत माना जाएगा।
बीजेपी की घबराहट साफ़ दिखाई दे रही है। खबर है कि शाह समेत वरिष्ठ नेताओं ने उन सांसदों को निजी तौर पर फ़ोन किया है जिनसे वे कम ही मिलते-जुलते हैं। सांसदों पर कड़ी नज़र रखी जा रही है, और प्रलोभनों और धमकियों की अफ़वाहें ज़ोरों पर हैं। लेकिन ऐसे असाधारण उपायों की ज़रूरत ही मोदी और शाह के उस अजेय आभामंडल के खत्म होने का संकेत देती है जो कभी उनके समर्थकों पर छाया रहता था।
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विश्लेषकों का कहना है कि उपराष्ट्रपति का चुनाव बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के लिए "हर हाल में हार" वाली स्थिति बन गया है।
अगर राधाकृष्णन आसानी से जीत जाते हैं, तो यह केवल उन बातों की पुष्टि करेगा जो पहले से ही आंकड़े बता रहे हैं, लेकिन इससे वफादारी हासिल करने के लिए कथित तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली कठोर रणनीतियों को लेकर पैदा शक तो कमजोर नहीं होगा।
अगर वह कम अंतर से जीतते हैं, तो इससे बीजेपी का भीतरी असंतोष जाहिर हो जाएगा और पार्टी के भीतर और बाहर उसके आलोचकों को मुंह खोलने का मौका मिल जाएगा।
अगर वह हार जाते हैं तो यह तो राजनीतिक भूकंप से कम वाली स्थिति नहीं होगी। मोदी-शाह की अजेय रहने की छवि भरभरा जाएगी और विपक्ष को बीते एक दशक में पहली बार सरकार को अस्थिर करने का मौका मिल जाएगा।
मोदी और शाह की दिक्कत कहीं ज्यादा गहरी है। एनडीए के भीतर दोनों का रुतबा और दबदबा लंबे समय से न केवल बीजेपी के संख्या बल पर, बल्कि चुनाव जिताने वाली मशीन होने की गढ़ी हुई छवि पर भी टिका रहा है। अगर सांसद यह मानने लगें कि यह छवि राजनीतिक कौशल से कम और संदिग्ध प्रथाओं से ज़्यादा बनी है, तो वह डर जो कभी सहयोगियों और प्रतिद्वंद्वियों को नियंत्रण में रखता था, जल्दी ही खत्म हो जाता है।
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आज होने वाली वोटिंग का केंद्रीय रहस्य यही है कि क्या बीजेपी सांसद बगावत करेंगे। इस किस्म के चुनाव में क्रॉस वोटिंग कोई नई बात नहीं है, लेकिन इतने बड़े पैमाने पर इसके कयास शायद ही कभी लगाए गए हों।
गैर-आरएसएस बीजेपी सांसदों में असंतोष: लगभग आधे बीजेपी सांसदों का राजनीतिक करियर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की देन नहीं है। मोदी का प्रभुत्व कम होने के साथ, वे अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर वोट देने के लिए ज़्यादा स्वतंत्र महसूस कर सकते हैं।
राधाकृष्णन की उम्मीदवारी से असहजता: कथित तौर पर एनडीए के कुछ सहयोगी उन्हें मोदी-शाह की जोड़ी से बहुत ज़्यादा जुड़े हुए व्यक्ति के रूप में देखते हैं, जिससे ऐसे गुटों में उन्हें लेकर कोई रुझान नहीं है जो इस स्थिति में सुधार चाहते हैं।
संघ की मूक भूमिका: वैसे तो संघ एनडीए को सत्ता में ही देखना चाहता है, लेकिन कहा जाता है कि राधाकृष्णन की उम्मीदवारी को लेकर संघ में कोई खास उत्साह नहीं था, तो क्या वह कोई ऐसा काम करेगा जिससे मोदी के पर तो कतर जाएंगे, लेकिन सरकार पर असर न पड़े।
इन परिस्थितयों में जस्टिस रेड्डी की उम्मीदवारी न सिर्फ विपक्ष के लिए बल्कि बीजेपी के असंतुष्टों और तटस्थ सहयोगियों के लिए भी एक आकर्षण बन गई है।
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अगर जस्टिस रेड्डी अप्रत्याशित जीत हासिल कर लेते हैं, तो इसके राजनीतिक परिणाम बहुत गंभीर होंगे। सबसे पहले, यह मोदी और शाह की अपनी पार्टी और गठबंधन, दोनों पर पकड़ के नाटकीय रूप से कमज़ोर होने का संकेत होगा। मतदान की गोपनीयता का मतलब है कि मुट्ठी भर दलबदलुओं को भी नहीं पकड़ा जा सकेगा, जिससे नेतृत्व असहमति जताने वालों को सीधे तौर पर दंडित नहीं कर पाएगा। डर का माहौल खत्म हो जाएगा।
दूसरा, यह विपक्षी इंडिया ब्लॉक को मज़बूती मिलेगी। हालांकि उपराष्ट्रपति का चुनाव सरकार में शक्ति संतुलन को सीधे तौर पर नहीं बदलता, लेकिन इतनी बड़ी प्रतीकात्मक जीत विपक्ष को फिर से मज़बूती से एकजुट कर सकती है, और यह साबित कर सकती है कि सत्तारूढ़ गठबंधन अभेद्य नहीं है।
तीसरा, नायडू या नीतीश कुमार जैसे सहयोगी अपनी स्थिति पर पुनर्विचार कर सकते हैं। अगर उन्हें लगता है कि बीजेपी अब स्थिरता की गारंटी नहीं है, तो संसद में नए समीकरणों की संभावना प्रबल हो जाती है। हालांकि अविश्वास प्रस्ताव तुरंत संभव नहीं हो सकता है, लेकिन यह मनोवैज्ञानिक झटका एनडीए के भीतर उथल-पुथल को तेज़ कर देगा।
और सबसे अहम, इससे 2029 की बिसात नए सिरे से एकदम अलहदा तरीके से बिछ जाएगी। 2014 से निरंतरता के साथ चल रही बीजेपी के प्रभुत्व की कहानी का बहुत तेजी से पटाक्षेप हो सकता है।
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आज होने वाला उपराष्ट्रपति चुनाव की अहमियत इसलिए तो बिल्कुल नहीं है कि राज्यसभा चेयरमैन की कुर्सी कौन संभालेगा, बल्कि इसलिए हैं कि हाल के दशकों में भारत के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक नेतृत्व की विश्वसनीयता कितनी खरी साबित होती है।
आज शाम तक जवाब साफ़ हो जाएगा। फिर भी, नतीजा चाहे जो भी हो, लेकिन यह जाहिर हो जाएगा कि भारत का राजनीतिक रंगमंच एक नए, अप्रत्याशित दौर में प्रवेश कर रहा है।
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