विचार

लुटियंस दिल्ली में बैठकर बौद्धिक बहसों से नहीं, जमीनी स्तर पर आंदोलन करने से भला होगा लेफ्ट का

सबसे बड़ी लेफ्ट पार्टी के तौर पर सीपीएम को लेफ्ट के पराभव और अपनी कीमत पर बीजेपी के उभार की जवाबदेही लेनी चाहिए। यह दुर्भाग्य ही है कि सीपीएम बंगाल में तृणमूल और त्रिपुरा में बीजेपी सरकार द्वारा किए जा रहे दमन को इसके लिए जिम्मेदार ठहराती है।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 
पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में सरकारी दमन बहाना भर है।... लेफ्ट को एक दशक पुरानी इस बहस में समय गंवाने की बात खत्म कर देनी चाहिए कि कांग्रेस के साथ सहयोग करना चाहिए या नहीं। अब यह बहस बेमानी हो गई है। ...लेफ्ट पार्टियों को जमीन से जुड़े मुद्दे उठाने ही होंगे। ...लेफ्ट पार्टियों और प्रगतिशील संगठनों के समन्वय के लिए बने राष्ट्रीय स्तर के संगठन मुख्यतः लुटियंस दिल्ली तक  सीमित रह जाते हैं। इन्हें जीवन से जुड़े मुद्दों और कामगार वर्ग के सामाजिक-आर्थिक अधिकारों से जोड़कर इस तरह के राज्य स्तरीय समन्वय संगठन बनाकर आंदोलन करने होंगे। जब इस तरह का आंदोलन जोर पकड़ने लगे, तब उसे राष्ट्रीय स्तर पर प्रगतिशील विकल्प के तौर पर पेश किया जा सकता है। बिल्कुल जमीनी स्तर पर मजबूत आंदोलन आज के समय की जरूरत है।

इस बार के चुनाव परिणामों से यह तो साफ है कि कांग्रेस, सपा, बसपा, तृणमूल कांग्रेस, आरजेडी, एनसीपी, जनता दल (सेकुलर) जैसी सेकुलर विपक्षी पार्टियां गंभीर सैद्धांतिक-राजनीतिक संकट से जूझ रही हैं। इसके साथ ही ऐसा लगता है कि आरएसएस-बीजेपी के आक्रमणों का सामना करने में सभी प्रमुख राजनीतिक शक्तियों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाली लेफ्ट पार्टियां सबसे अधिक तैयारी विहीन हैं। लेफ्ट का पराभव एक दशक पहले 2009 लोकसभा चुनावों से ही होने लगा था। 2015 में शीर्ष पर नेतृत्व में बदलाव के बावजूद इस बार इसका सबसे खराब चुनावी प्रदर्शन रहा है। इस बार सीपीएम और सीपीआई का वोट शेयर घटकर 2.3 प्रतिशत रह गया है।

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2014 में लोकसभा में लेफ्ट सदस्यों की संख्या 12 थी। अब इस बार यह 5 रह गई है। डीएमके के नेतृत्व वाले गठबंधन में शामिल होने की वजह से तमिलनाडु में सीपीआई (एम) और सीपीआई ने 2-2 सीटें जीती हैं। केरल में सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाली एलडीएफ ने एक सीट जीती है। यहां कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ ने 19 सीटें जीती हैं।

वैसे, सबरीमला विवाद के बावजूद लेफ्ट के वोट शेयर में ज्यादा कमी नहीं आई है। लेकिन 2018 में बीजेपी के हाथों सत्ता गंवा देने के बाद त्रिपुरा में लेफ्ट ने अपना जनाधार व्यापक तौर पर खोया है। इस बार लेफ्ट के उम्मीदवार यहां बीजेपी और कांग्रेस के बाद तीसरे नंबर पर रहे हैं। सबसे खराब स्थिति पश्चिम बंगाल में रही है। यहां से पिछली बार 2 लेफ्ट सांसद थे। इन दोनों समेत सभी 40 लेफ्ट प्रत्याशी इस बार तीसरे या चौथे नंबर पर रहे। एक को छोड़कर सभी की जमानत जब्त हो गई।

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यह साफ है कि बंगाल में बीजेपी के वोट शेयर में अभूतपूर्व बढ़ोतरी लेफ्ट की कीमत पर हुई है। पूरे राज्य में लेफ्ट के कार्यकर्ताओं और समर्थकों ने बीजेपी को एकमुश्त समर्थन दिया है। दक्षिण बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के एक धड़े ने भी बीजेपी का समर्थन किया है। लेफ्ट और कांग्रेस के एक धड़े ने, खास तौर पर मध्य और उत्तर बंगाल में, तृणमूल का समर्थन किया है। यही वजह है कि तृणमूल के राज्यव्यापी वोट शेयर में थोड़ी ही कमी आई है।

पिछले दो साल के दौरान राज्य में गहरा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ है। इसकी वजह से सांप्रदायिक दंगे भी हुए हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कई गैर-सेकुलर और लोकतांत्रिक-विरोधी नीतियां भी लागू की हैं। इसने बीजेपी के उभार का रास्ता प्रशस्त किया है। लेकिन सबसे बड़ी लेफ्ट पार्टी के तौर पर सीपीआई (एम) और उसके नेतृत्व को लेफ्ट के पराभव और अपनी कीमत पर बीजेपी के उभार की जवाबदेही लेनी चाहिए। यह दुर्भाग्य ही है कि सीपीआई (एम) पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस और त्रिपुरा की बीजेपी सरकार द्वारा किए जा रहे दमन को इसके लिए उत्तरदायी ठहराती रही है।

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इससे यह सवाल भी उठता है कि आखिरकार, 1971 के दशक में पश्चिम बंगाल और 1980 के दशक के आखिरी चरण में त्रिपुरा में सरकारी दमन के खिलाफ जिस तरह उसने अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को उठ खड़ा किया और उनकी मदद की, वैसा वे आज क्यों नहीं कर पा रहे हैं? अगर वे सरकारी दमन के खिलाफ मुखर हैं, तो त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल की जनता ने उनका समर्थन करना क्यों बंद कर दिया है?

वस्तुतः, यह सब एक गलत बहाना है। दरअसल, सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाली लेफ्ट पार्टियां आज पुरातन सैद्धांतिक संरचना, तोड़ी-मरोड़ी गई राजनीतिक लाइन और विगलित संगठन में लिपटी हुई हैं जो उन्हें एक किस्म के विनाश की ओर ले जा रही है। राजनीतिक तौर पर कहें तो लेफ्ट को एक दशक पुरानी इस बहस में समय गंवाने की बात खत्म कर देनी चाहिए कि कांग्रेस के साथ सहयोग करना चाहिए या नहीं। अब यह बहस बेमानी हो गई है, खास तौर से, 2016 में पश्चिम बंगाल में पराजय के बाद से। तब कांग्रेस ने उसे मुख्य विपक्षी दल की कुर्सी से भी उतार दिया। इस बार 2019 में उसने बिना कोई लेनदेन किए दो सीटों पर कांग्रेस की जीत सुनिश्चि त की है। इस तरह का गैरसैद्धांतिक और गैर पारदर्शी गठबंधन लेफ्ट की समस्याओं का समाधान नहीं हैं।

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पश्चिम बंगाल में लेफ्ट पार्टियां तीन दशकों तक सत्ता में रही हैं। यहां इनके पराभव की मुख्य वजह सरकार में रहते वक्त कई विफलताएं और गलतियां हैं। लेफ्ट सरकारों की नीतियों और कार्यक्रमों में पूरा का पूरा बदलाव जरूरी है - चाहे वह कृषि हो या औद्योगिक विकास, रोजगार, भूमि अधिग्रहण और भूमि उपयोग, संसाधनों का उपयोग, सहकारिता आदि हो। जीवन से जुड़े जरूरी मुद्दों पर गंभीर संघर्षों और आंदोलनों के अभाव के क्षेत्र में लेफ्ट के अवसान को सबसे अधिक पीड़ा के साथ महसूस कि या जाता है। ये वैसे मुद्दे हैं जो आरएसएस- बीजेपी के वर्ग-जाति गणित को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा सकते हैं।

राजस्थान, मध्य प्रदेश या महाराष्ट्र के कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो खेत-किसानी के लिए किए जाने वाले आंदोलनों का सीमित प्रभाव लोकसभा चुनाव से विधानसभा चुनावों में अलग रहा है। विश्वविद्यालयों में हुए आंदोलनों को भी इसी तरह देखना चाहिए।

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बिहार के बेगूसराय में सीपीआई उम्मीदवार कन्हैया कुमार आरजेडी प्रत्याशी द्वारा सेकुलर वोटों के बंटवारे की वजह से बीजेपी को नहीं हरा सके। फिर भी, उन्होंने पूरी ऊर्जा के साथ चुनाव लड़ा। यह इसलिए संभव हो सका कि उन्होंने लेफ्ट की राजनीति के लिए नई भाषा का उपयोग किया, वह पिछले बोझ से मुक्त रहे और वह नया चेहरा थे- एक ऐसा चेहरा जो लोकतांत्रिक आंदोलन से उभरा था। यह आशा की नई किरण है।

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मोदी सरकार के खिलाफ बिल्कुल नीचे से आंदोलन करने के सिवा लेफ्ट के पास कोई चारा नहीं है। इस तरह के आंदोलनात्मक प्रयासों की विस्तृत सैद्धांतिक संरचना वास्तविक सेकुलरिज्म होगी, मतलब, उसे धर्म के साथ राजनीति को नहीं मिलाना होगा, संवैधानिक मूल्यों, संघवाद, मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक समाजवाद की रक्षा करनी होगी। भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद को आंबेडकर, गांधी, टेगोर, पेरियार और अन्य प्रगतिशील भारतीय विचारकों के साथ समन्वय बनाना होगा।

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लेफ्ट पार्टियों और प्रगतिशील संगठनों के समन्वय के लिए बने राष्ट्रीय स्तर के संगठन मुख्यतः लुटियंस दिल्ली तक सीमित रह जाते हैं। इन्हें जीवन से जुड़े मुद्दों और कामगार वर्ग के सामाजिक-आर्थिक अधिकारों से जोड़कर इस तरह के राज्य स्तरीय समन्वय संगठन बनाकर आंदोलन करने होंगे। जब इस तरह का आंदोलन जोर पकड़ने लगे, तब उसे राष्ट्रीय स्तर पर प्रगतिशील विकल्प के तौर पर पेश किया जा सकता है। बिल्कु ल जमीनी स्तर पर मजबूत आंदोलन आज के समय की जरूरत है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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