30 जनवरी, 1948 की सुबह तीनों (नथूराम गोडसे और उसके साथी) फिर से रिटायरिंग रूम में मिले और वहां से साथ नाश्ता करने पहली मंजिल के एक मांसाहारी होटल में गए। वहां एक वेटर ने उन्हें पहचाना जो पहले पूना में काम करता था। वहां से लौटकर उन्होंने प्रार्थना सभा में गांधी के करीब पहुंचने की योजनाओं पर चर्चा की। एक डर था उन्हें कि अगर सादी वर्दी में पूना के पुलिसवाले लगाए गए होंगे तो वे उन्हें पहचान सकते हैं। लेकिन पुलिस ने इतना नहीं सोचा था। बचने के लिए पहले फोटोग्राफर बनकर जाने की योजना पर विचार किया ताकि उस समय प्रचलित कैमरे के काले कपड़े में नथूराम अपना चेहरा छिपा सके। फिर अचानक नथूराम ने पूछा- और अगर बुरका पहनकर जाऊं तो? यह आइडिया सबको पसन्द आया और आप्टे तुरन्त भागकर चांदनी चौक से एक बुरका ले आया। ं
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एक फायदा यह था कि महिलाओं को सभा में सबसे अगली पंक्ति में जगह मिलती थी। लेकिन जब नथूराम ने बुरके में चलने की कोशिश की तो उलझकर गिर पड़ा और यह योजना भी खटाई में पड़ गई। फिलहाल किसी और योजना पर विचार करने की जगह वे बिड़ला मंदिर गए और उसके पीछे जंगल में रिवाल्वर चलाकर देखा। वहां से लौटकर वे फिर से रिटायरिंग रूम में गए और वहां के बुकिंग क्लर्क सुन्दरीलाल से रिजर्वेशन और चौबीस घंटे बढ़ाने के लिए कहा। सुन्दरीलाल ने इनकार कर दिया और न केवल तुरन्त कमरा खाली करने को कहा बल्कि तब तक उनके दरवाजे पर खड़ा रहा जब तक वे सामान लेकर निकल न गए। इस तरह एक और गवाह तैयार हो गया।
गांधी व्यग्र थे। आजादी के बाद भी जैसे उनका सपना पूरा नहीं हुआ था। 29 को उन्होंने कांग्रेस के लिए एक नया संविधान लिखा था। अक्सर इसका प्रचार ऐसे किया जाता है मानो गांधी कांग्रेस को खत्म करने की बात कर रहे थे- असल में गांधी उसे लोक सेवक संघ में परिवर्तित कर एक ऐसे संगठन का नव-निर्माण करने की बात कर रहे थे जो धर्मनिरपेक्षता, छुआछूत, लोभ-लालच से मुक्त होकर उन आदर्शों पर चले जो आजादी की लड़ाई में लक्ष्य की तरह अपनाए गए थे और यह एक प्रस्ताव था जिस पर अगर वह जिंन्दा रहते तो चर्चा होती, याद रखा जाना चाहिए कि आखिर उसी दिन वह नेहरू और पटेल से मिलकर सरकार चलाने को भी कह रहे थे। देश भर से जो खबरें आ रही थीं वह उनसे व्यथित थे। मनुबेन उस रात उनके द्वारा पढ़ा गया एक शेर उद्धृत करती हैं- है बहारे बाग दुनिया चन्द रोज / देख लो जिसका तमाशा चन्द रोज।
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30 की सुबह उन्होंने मनुबेन से एक गुजराती भजन सुनाने के लिए कहा था- थाके न थाके छताय हो / मानवी न लेजे विसामो - अर्थात् हे मनुष्य! अन्त तक न जरा भी न थकना न विश्राम करना। कठोपनिषद् के उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वर्रान्निबोध की अनुगूंज है इसमें।
इस श्लोक का अगला हिस्सा है- निशिता क्षुरस्य धारा दुरत्यया दुर्गम तत् पथः इति कवयः वदन्ति - यानी ऋषिगण कहते हैं यह रास्ता छुरी की धार पर चलकर उसे पार करने जितना दुर्गम है। बोधा कवि ने लिखा था—यह प्रेम कौ पंथ कराल महा तरवारि की धार पै धावनौ है। जीवन भर गांधी प्रेम और अहिंसा का सन्देश लिये अथक इसी धार पर चलते रहे थे।
आज इस धार की एक और व्यंजना थी। शाम को सरदार पटेल से बातचीत तय हुई थी। सरदार और जवाहर के बीच के मतभेदों की खबरें विदेशों के अखबारों में आने लगी थीं। गांधी इसे हर हाल में सुलझाना चाहते थे। चार बजे सरदार अपनी बेटी मणिबेन के साथ आए। वह बोलते रहे और गांधी चरखा चलाते हुए सुनते रहे। साढ़े चार बजे मनुबेन उनका डिनर लेकर आईं। दूध, सब्ज़ियां और संतरे की फांकें। सब सुनने के बाद गांधी ने वह दुहराया जो पिछली मुलाकात में कहा था। कैबिनेट में पटेल की उपस्थिति अनिवार्य है। यही बात वह पहले नेहरू से कह चुके थे। नेहरू और पटेल के बीच कोई खाई भारत के लिए विनाशकारी होगी। तय हुआ कि अगले दिन तीनों एक साथ बैठेंगे।
मनुबेन और आभाबेन ठीक पांच बजे उन्हें प्रार्थना सभा के लिए ले जाने आईं लेकिन दोनों ने कोई ध्यान नहीं दिया। कुछ समय बाद आभाबेन ने कहा- 5.10 हो गए तो दोनों उठे। पटेल घर निकल गए और गांधी हंसी-मजाक करते प्रार्थना सभा के लिए चले।
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नथूराम ने अन्तत: उस शाम के लिए खाकी वर्दी चुनी थी। दोपहर तृतीय श्रेणी के वेटिंग रूम में बिताने के बाद पौने चार बजे गोडसे निकलने को तैयार हुआ तो आप्टे ने पूछा- हम भी साथ आएं? गोडसे ने जवाब दिया- अब यहां तक आए हो तो साथ चलो। पहले गोडसे अकेले निकला। आप्टे और करकरे दूसरे तांगे से आए और भीड़ में घुल-मिल गए।
मनुबेन ने अन्तिम दृश्य लिखा है-
बापू चार सीढ़ियां चढ़े और सामने देख नियमानुसार हम लोगों के कंधे से हाथ उठा उन्होंने जनता को प्रणाम किया और आगे बढ़ने लगे। मैं उनकी दाहिनी ओर थी। मेरी ही तरफ से एक हृष्ट-पृष्ट युवक, जो खाकी वर्दी पहने और हाथ जोड़े खड़ा था, भीड़ को चीरते हुआ एकदम घुस गया। मैं समझी कि यह बापू के चरण छूना चाहता है। ऐसा रोज ही हुआ करता था...मैंने इस आगे आने वाले आदमी को धक्का देते हुए कहा : ‘भाई, बापू को दस मिनट की देर हो गई है, आप क्यों सता रहे हैं?’ लेकिन उसने मुझे इस तरह जोर से धक्का मारा कि मेरे हाथ से माला, पीकदानी और नोटबुक नीचे गिर गई। जब तक और चीजें गिरीं मैं उस आदमी से जूझती ही रही। लेकिन जब माला भी गिर गई, तो उसे उठाने के लिए झुकी। इसी बीच दन-दन...एक के बाद एक तीन गोलियां दगीं। अंधेरा छा गया। वातावरण धूमिल हो उठा और गगनभेदी आवाज हुई। ‘हे रा- राम। हे-रा कहते हुए बापू मानो पैदल ही छाती खोले चले जा रहे हों। वे हाथ जोड़े हुए थे और तत्काल वैसे ही जमीन पर आ गिरे...पहली गोली नाभि के ढाई इंच ऊपर पेट में लगी, दूसरी मध्य रेखा से एक इंच दूर और तीसरी फेफड़े में समा गई थी...अत्यधिक रक्त बहने से चेहरा तो करीब दस मिनट में ही सफेद पड़ गया था।
दो दिन पहले अमेरिकी पत्रकार विन्सेंट शीन से उन्होंने कहा था- यह संभव है कि मेरी मृत्यु मानवता के लिए मेरे जीवन से अधिक कीमती हो।
(राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित अशोक पांडेय की किताब ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ का एक अंश। राजकमल ब्लॉग से साभार)
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