यह न तो कोई भावनात्मक आवेग से भरा उद्गार है और न ही जुबान का फिसलना। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का यह कहना कि भारत ने भले 15 अगस्त, 1947 को सियासी आजादी हासिल की हो, लेकिन वास्तविक आजादी उस दिन मिली जब अयोध्या में राम मंदिर की ‘प्राण प्रतिष्ठा’ हुई। यह बात अच्छी तरह सोच-समझकर कही गई थी और यह भारतीय राष्ट्रवाद पर संघ की बुनियादी सोच को दोहराना मात्र था।
आजादी आंदोलन के ‘ब्रिटिश विरोधी’ तत्व को ‘प्रतिक्रियावादी’ बताते हुए एम.एस. गोलवलकर ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में कहते हैं: ‘क्षेत्रीय राष्ट्रवाद और साझा खतरे के सिद्धांत, जो राष्ट्र की हमारी अवधारणा का आधार बने, ने हमें हमारे वास्तविक हिन्दू राष्ट्रवाद के सकारात्मक और प्रेरक तत्वों से वंचित कर दिया और कई ‘आजादी आंदोलनों’ को वस्तुतः ब्रिटिश विरोधी आंदोलन बना दिया। ब्रिटिश विरोध को देशभक्ति और राष्ट्रवाद के बराबर माना गया। इस प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण ने स्वतंत्रता संग्राम की दिशा, उसके नेताओं और आम लोगों पर विनाशकारी प्रभाव डाला है।’
‘इस प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण’ को सुधारने का मौका 2014 में मिला और उसके बाद से आरएसएस ने भारतीय राष्ट्रवाद के तत्वों और इसकी दिशा को विकृत करने, इसकी प्रकृति को लोकतांत्रिक से बदलकर बहुसंख्यकवादी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
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समय-समय पर संविधान को निशाना बनाना दरअसल इसके अंतर्निहित समावेशी, लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद के प्रति उनकी पुरानी बेचैनी को ही दिखाता है- भले ही यह संविधान आलोचनात्मक चिंतन, तर्क और संवाद की सदियों पुरानी परंपरा से उभरे राष्ट्रीय आंदोलन की परिणति था और इसमें केवल भारतीय ही नहीं बल्कि इस्लामी और ईसाई धाराएं भी थीं।
लाला लाजपत राय ने साफ कहा था कि मुसलमानों ने भारत की प्राचीन सभ्यता को ‘अपनी रचनात्मकता और बहुमुखी प्रतिभा से विकसित अपने साहित्य और कला से समृद्ध किया’। अक्सर कहा जाता है कि भारत का संविधान भारतीय लोकाचार, भारतीय प्रतिभा को प्रतिबिंबित नहीं करता है जबकि वास्तविकता यह है कि ऐसा कहना संवाद के माध्यम से हमेशा ‘सुनहरे मध्य मार्ग’ की तलाश करने की भारतीय प्रतिभा को नकारने का प्रयास है।
यही कारण है कि एक नव-स्वतंत्र देश ने खुद को एक लोकतांत्रिक गणराज्य में संगठित करते हुए, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के सिद्धांतों को कायम रखते हुए एक पदानुक्रमित समाज को समतावादी समाज में बदलने का साहसी कदम उठाया। 15 अगस्त, 1947 को लिए गए ‘प्रण’ का उद्देश्य न केवल राजनीतिक स्वतंत्रता बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक कायाकल्प और पुनर्निर्माण भी था। केवल विदेशी शासन नहीं बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय का शमन भी ‘प्रतिद्वंद्वी’ था जो आर्थिक असमानताओं, जाति और लिंग उत्पीड़न तथा सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों के माध्यम से संचालित होता था।
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अफ्रीकी-अमेरिकी लेखक, समाजशास्त्री, इतिहासकार और मानवाधिकार ऐक्टिविस्ट डब्ल्यू.ई.बी. डु बोईस का मानना था कि 15 अगस्त की तारीख ब्रिटेन में लोकतंत्र की स्थापना, अमेरिका में दासों की मुक्ति या रूसी क्रांति से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह तारीख आधुनिक साम्राज्यवाद के अंत की शुरुआत का प्रतीक है। उतना ही महत्वपूर्ण वह साहस है- विश्व इतिहास में अभूतपूर्व- जो नवजात भारतीय गणराज्य ने सार्वभौमिक मताधिकार, अस्पृश्यता के कानूनी उन्मूलन और ‘शक्तियों के पृथक्करण’ को एक साथ साधने में दिखाया। इसकी तुलना इस तथ्य से करें कि ब्रिटिश महिलाओं को मैग्ना कार्टा के सदियों बाद 1928 में जाकर मतदान का अधिकार मिल सका, या इस तथ्य से कि अमेरिका में 1776 की स्वतंत्रता की घोषणा के नौ दशक बाद वहां दासता को खत्म किया जा सका।
यह सब इसलिए संभव हुआ क्योंकि उस समय नेतृत्व करने वाले (जिनमें से ज्यादातर विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि से आए थे और बहुसंख्यक समुदाय से थे) इतने दूरदर्शी थे कि उन्हें इस बात का बखूबी एहसास था कि लोकतंत्र केवल संख्याओं का खेल नहीं। इसके विपरीत, लोकतंत्र का मतलब तर्कसंगत सहमति के आधार पर समाज का पुनर्गठन करने के लिए लोगों को जागरूक करना है, ताकि राजनीतिक लोकतंत्र एक अलोकतांत्रिक समाज का ऊपरी खोल बनकर न रह जाए।
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एक वास्तविक लोकतंत्र बहुसंख्यकवाद के खिलाफ होता है क्योंकि बहुसंख्यकवाद के पूर्ण-विकसित अधिनायकवाद, यहां तक कि फासीवाद में बदलने की आशंका होती है। सांस्कृतिक पहचान की राजनीति पर आधारित, यह नागरिकता के विचार के साथ खिलवाड़ करता है, संस्थानों को नष्ट करता है और लोकतांत्रिक मानदंडों के परखचे उड़ा देता है। सांस्कृतिक पहचान की राजनीति में अल्पसंख्यकों के ‘तुष्टीकरण’ और आहत भावनाओं की बातों को विश्वसनीयता देकर बहुसंख्यकवाद को ही मजबूत किया जाता है।
आज भारत में बिल्कुल यही सब हो रहा है। अफसोस की बात है कि इसे मुख्यधारा के मीडिया के सक्रिय सहयोग से किया जा रहा है जो महत्वपूर्ण मुद्दों पर तर्कसंगत चर्चा को प्रोत्साहित करने के बजाय, मूर्खतापूर्ण और आक्रामकता को फैला रहा है। नफरती बोल, यहां तक कि हत्या को भी सामान्य माना जा रहा है और प्रतिगामी प्रथाओं की किसी भी आलोचना को ऐसे उकसावे के रूप में पेश किया जाता है जो धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचा सकता है। हफ्ते में 70 और 90 घंटे काम करने के कॉरपोरेट लालच को राष्ट्र निर्माण की चाशनी में लपेटकर वैध बनाने की कोशिश की जा रही है, जैसे कि राष्ट्र कोई रहस्यमय देवता हो और जीवन, अधिकार और सम्मान के लिए संघर्ष करने वाले आम लोग नहीं।
चाहे हमारे समाज को ध्रुवीकृत करने के प्रयासों के विरोध की बात हो या जाति या लिंग-आधारित प्रतिनिधित्व की मांग हो, हमारे लोकतांत्रिक गणराज्य को इन खतरों से बचाने का कोई अलग तरीका नहीं हो सकता। यह सब समावेशी, लोकतांत्रिक भारतीय राष्ट्रवाद, भारत के वास्तविक विचार की एक व्यापक समझ में शामिल होना चाहिए।
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