विचार

मृणाल पाण्डे का लेखः मध्यवर्ग के मेंढकों आंखें खोलो, पानी खौलने ही वाला है!

हजारों साल पहले बीजगणित की बुनियाद रख चुके और गणित में जीरो खोजने वाले देश में ज्ञान, कला, धर्म, सब पर निर्लोभ भाव से चिंतन-मनन की बजाय उद्देश्य अगर सिर्फ पैसा कमाई और वोटबैंक का ध्रुवीकरण रह जाए, तो वही होता है जो आज बेंगलुरु से लेकर असम तक में हो रहा है

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

कुदक्कड़े मेंढकों को उनके प्रतिवाद या भागम भाग के बिना, खौलते पानी में किस तरह उबाला जाए? इस महान चुनौती पर एक प्रचलित कथा लगभग हम सब सुन चुके हैं। वैज्ञानिकों ने पाया कि मेंढक सरीखे जीव को खौलते पानी में सीधे डालने से तो वह तुरत छलांग लगा कर पतीले से बाहर निकल आएगा। चतुर तरीका यह है कि पहले पतीले का पानी ठंडा रख कर एक मेंढक को उसमें डाल दिया जाए, वह पानी में तिरता, सुख से टर्राता रहेगा। फिर पतीला चूल्हे पर रखा जाए लेकिन आंच रहे बहुत मद्धिम। पतीले में बैठा मेंढक कुनकुने पानी में आनंद से झपकी लेने लगे, तो चूल्हे की आंच धीरे-धीरे बढ़ाई जाए। इस तरह जब तक उबाल का बिंदु आएगा, बढ़ती गरमाहट का धीमे-धीमे आदी हो गया मेंढक कूदने से लाचार हो चुका होगा और आंख मूंद कर खुद को खौलते पानी में मौत के हवाले कर देगा।

जनता के संदर्भ में यह प्रयोग लागू करना सबसे पहले हिटलर, मुसोलिनी या स्टालिन जैसे राजनेता समझे। उन्होंने लक्षित समूहों को पहले उनकी बाबत गलत-सलत अफवाहें फैला कर अलग किया, फिर बहुसंख्य समुदाय को उनकी जासूसी और प्रताड़ना के लिए उकसा कर उनका जीना हराम किया और अंत में कानून बना कर कठोर प्रशासकीय मशीनरी से उन पर बुलडोजर चलवा दिए। तब तक वे किसी तरह के सक्षम सार्वजनिक विरोध के काबिल रह ही नहीं गए थे। बहुसंख्य समुदाय भय या खुशी से चुप रहा।

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हमारे यहां शुरुआती दिनों में जब उदारवादी लेखकों ने समाज में अल्पसंख्य समुदाय पर बढ़ते प्रहारों और लेखकीय अभिव्यक्ति के हक पर प्रतिबंध लगाने पर विरोध किया, तो सोशल मीडिया पर गाली-गलौज शुरू हो गई। कुछ वरिष्ठ लेखकों ने सरकारी अवार्ड वापिस कर दिए, तो सुख से आराम कुर्सी पर बैठ कर अंग्रेजी कालम लिखती रही सोशलाइट भक्तिन ने लिखा, ‘भाड़ में जाए इनकी अवार्ड वापसी, हमको साफ हवा की वापसी चाहिए!’ बस फिर क्या था? मीडिया पर चर्चा लोकतंत्र में बोलने-लिखने के हक की बजाय पर्यावरण संरक्षण और उसकी बरबादी में कांग्रेस के योगदान की तरफ मुड़ गई।

उस समय भी इन पंक्तियों की लेखिका ने उस नक्कारखाने में तूती बन कर पूछा था कि हमको अभिव्यक्ति की आजादी और साफ हवा- दोनों एक साथ क्यों नहीं मिल सकती? उनमें तो कोई अंतर्विरोध नहीं है? वह बात सहयोग के अभाव में काफूर हो गई। आज जब उसी अभिव्यक्ति की आजादी की बजाय साफ हवा मांगने वाले अपनी प्रिय जन सरकार की कटु आलोचना के इल्जाम में देश बदर या बेरोजगार बन चुके हैं, वे पा रहे हैं कि खौलते पतीले के बाहर छलांग भरना उनके लिए नामुमकिन बन गया है।

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फिर आंच का दायरा फैला। गो मांस बिक्री और सड़क पर नमाज पर प्रतिबंध लगने लगे। मांसाहार बनाम शाकाहार की बहस आग की तरह फैली और हाल में जेएनयू छात्रावास में (चले आ रहे पूर्व निर्धारित मेन्यू के अनुसार) मांसाहार पकने पर एबीवीपी के केसरिया दल ने मांसाहार समर्थक छात्रों के सर फोड़ दिए। इसी बरस रमजान के पवित्र महीने से ठीक पहले मुस्लिम समुदाय के विक्रेताओं, लड़कियों के शिक्षा परिसर में हिजाब पहनने और मांस-मछली की बिक्री पर नवरात्रि में प्रतिबंध लगाने की बात अनाम युवा ही नहीं, सरकार के पदों पर आसीन बड़े नेताओं के श्री मुख से भी बार-बार सुनाई देने लगी।

कई अनिवासी या विदेश को मांस निर्यात से मालामाल भारतीय भी इन तमाम बातों पर आंखें बंद कर सरकार का समर्थन कर रहे हैं कि भारत की मौजूदा पेट्रो दामों और बेरोजगारी की बढ़ोतरी, राजकोषीय घाटा और माल का आयात निर्यात ठप्प पड़ना सब यूक्रेन की लड़ाई से जुड़े हैं, शासकीय अकुशलता से नहीं। सही है, ‘जा के पैर न फटी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई ?’

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मेंढक की स्थिति से बचना हो, तो सामान्य पाठक अपनी आंखें खोलें। अगर सबकी हां में हां मिला कर आप खुद को सुरक्षित समझते हैं, तो आप भूल रहे हैं कि देर-सबेर आप भी खुद को महंगाई, बेरोजगारी, हिंसा और बढ़ते कराधान की आंच से जलता महसूस करेंगे, शायद करने भी लगे हों। प्रदूषण का मसला तो है ही। लेकिन इसकी गहराई में जाएं क्योंकि मसला सिर्फ भौतिक पर्यावरण के ही प्रसंग तक सीमित नहीं है। इसकी वजहें हैं। किसान पराली जलाता है, तो क्यों? पहाड़ में विकास का मलबा नदियों को सुखा रहा है, तो यह कैसा विकास। पर्यटन की वजह से अगर धार्मिक स्थल रुपया, डॉलर कमाई के बाजार बन रहे हों, तो हर तरह से हर किस्म का पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता है। नदी, जंगल ही नहीं, अच्छे विचारों का भी अकाल पड़ने लगता है। धीमे जहर की तरह मीडिया की मार्फत जो फूटपरस्त मानसिकता देश भर में सुनियोजित तरीके से फैलाई जा रही है, उतनी ही खतरनाक है जितना भूस्खलन!

यह अनायास नहीं है कि इस कठिन समय में संपर्क बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। और सही या गलत बातें फैलाने में हर जन भाषा खतरनाक आंच को उकसाने का एक आजमूदा (आजमाया) हथियार बन गई है। हिन्दी विशाल हिन्दी पट्टी में जनता के बीच वैचारिक प्रदूषण फैलाने का सबसे बड़ा जरिया बन कर उभर रही है। देशवासी और प्रशासन हिन्दी का अधिकाधिक इस्तेमाल करें, यह आदेश जब से सरकार के उच्चतम स्तर से जारी हुआ है, बंगाल और अहिन्दीभाषी दक्षिण भारत में भाषाई पतीलों का पानी भी सों-सों करने लगा है!

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यहां यह खास तौर से गौरतलब है कि अतिवादी वैचारिकता का खुला और विभेदकारी प्रदर्शन उस कर्नाटक में पहले से ही चल रहा है जो सूचना संचार तकनीकी का सबसे अधिक और विश्वस्तरीय विकास का मुख्य केन्द्र है। तमाम तरह की किल्लतों और शैक्षिक तथा स्वास्थ्यगत दिक्कतों के बावजूद हमारी आईटी इंडस्ट्री कर्नाटक में इतने ऊंचे मकाम पर जा पहुंची है कि आज देश की सकल सालाना आय में उसका 8 प्रतिशत योगदान है। यही नहीं, यहां के उच्च शिक्षा संस्थानों से निकले कई सितारे इन दिनों बाहरी देशों में ग्लोबल हाई टेक कंपनियों के प्रमुख हैं और खुद ग्लोबल स्तर की बेंगलुरु चेन्नई स्थित टीसीएस, इंफोसिस और एचसीएल जैसी सफल कंपनियों के जहूरे से यह इंडस्ट्री अपनी सेवाओं के निर्यात से 150 बिलियन डालर सालाना देश में ला रही है।

यह वह समय है जब हमारा भक्त मध्यवर्ग और सरकार आदतन हर चीज की तरह सूचना संचार टेक को भी सिर्फ उसकी मार्फत हो रही कमाई से ही माप रहे हैं। जो बात अधिकतर सरकारें या बच्चों को तरह-तरह के ट्यूशन दिला कर छह-सात अंकों की सैलेरी का सपना देख रहे अभिभावक नहीं समझ रहे कि उच्चस्तरीय विद्या के विकास का मूल हमेशा से पैसे में नहीं, ज्ञान, अपरिग्रह और एक सर्वसुलभ भाषा के विकास में ही रहा है।

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यह न कहें कि वह विद्या परंपरा समाप्त हुई। नहीं, वह आज भी बनी हुई है। चलिए आपको टेक इंडस्ट्री के सीमित उदाहरण से ही बात समझाते हैं। हाई टेक के दो मुख्य पाए हैं: एक तो अंतर्जाल उर्फ इंटरनेट और दो, उसकी मार्फत विभिन्न छोटी बड़ी वेबसाइट्स तथा एप्स के लिए प्रोग्रामिंग कोड के बीजाक्षर लिखने की भाषा। इंटरनेट को आप खुद हर भाषा में प्रयोग करते हैं लेकिन यह जान लें कि उसकी सारी प्रोग्रामिंग अंग्रेजी, हिन्दी या कन्नड़ या तमिल नहीं, एक नई तरह के कोड की भाषा में होती है। और इनमें से कोई कोड भाषा भारतीय टेकीज ने नहीं खोजी है। यूरोप और अमेरिका के कुछ अपरिग्रही शीर्ष वैज्ञानिकों ने ही इस दिशा में तमाम पहलें की हैं। भारतीय टेककर्मियों ने उस भाषा में महारत हासिल जरूर किया है, खूब कमाया भी है, पर मूल तत्व उनकी ईजाद नहीं है।

मसलन ‘पायथन’ नामक लोकप्रिय प्रोग्रामिंग भाषा को ही लें, जिसकी मदद से गूगल सर्च, इंस्टाग्राम, नेटफ्लिक्स, ऊबर जैसी तमाम बड़ी वेबसाइट्स चलाना संभव हुआ है। और तमाम तरह के एप्स बनाए जा सके हैं, जिनको बेच कर भारतीय बम-बम हैं। आप सोचेंगे कि खोजकर्ता तो आज अरबपति होंगे! नहीं। कोर प्रोग्रामिंग भाषा की बतौर पायथन की खोज 1989 में कुछ डच छात्रों ने खेल-खेल में की थी और फिर इसे विश्व की जनता को मुफ्त में प्रयोग करने के लिए अर्पित कर दिया। यही हाल नेट के आविष्कर्ता टिम बर्नर ली और वैन रौसम का भी है। दोनों ने अपनी खोज जनहित में सर्वसुलभ कर दी थी।

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क्या इस बिंदु पर इस लेखिका की ही तरह आपके मन में सवाल नहीं उठता कि भारत सरकार का एनआईआईटी जैसा कोई सार्वजनिक उपक्रम या टेक की कृपा से खरबपति बन गए भारतीय टेक कंपनियों के मालिकान इस क्षेत्र में नई तरह के नेट या किसी विशुद्ध भारतीय प्रोग्रामिंग भाषा की खोज की तरफ क्यों न मुड़े? पका-पकाया खाना हमारा स्वभाव क्यों रहा? तब आपको कुछ-कुछ समझ आने लगेगा कि हाईटेक से इतना कुछ हासिल कर चुका कर्नाटक हिन्दुत्व की प्रयोगशाला क्यों बन सका है ? नई टेक की खोज उसने न की हो, पर उसका धड़ल्ले से भ्रामक विचार फैलाने में वह अव्वल है। यही वजह है कि नई कोड भाषा या तकनीकी की बजाय इतना पढ़ा-लिखा संपन्न प्रांत आज हिन्दी बनाम कन्नड़, हिजाब विवाद, हलाल बनाम झटका जैसी निहायत टुच्ची शर्मनाक बहसों में मुब्तिला है।

पर अब जबकि उनकी फैक्टरियों के गिर्द भी भगवा दस्तों की नारेबाजी आग लगा रही है, तब बाहर से कुछ क्षीण टर्राहटें चंद भूतपूर्व भक्तों के सूखे गलों से निकल रही हैं कि हाय, यह क्या हो रहा है? बिजनेस कैसे चलेगा यहां? हम विदेशियों से पूंजी निवेश किस तरह खींच सकेंगे? हजारों साल पहले बीजगणित की बुनियाद रख चुके और गणित में जीरो की ईजाद करने वाले देश में ज्ञान-विज्ञान, परंपरा, कला, धर्म, सब पर निर्लोभ भाव से चिंतन-मनन की बजाय उद्देश्य अगर सिर्फ पैसा कमाई और वोट बैंक का ध्रुवीकरण ही बन कर रह जाए, तो वही होता है जो आज बेंगलुरु से लेकर असम तक में हो रहा है। इसलिए बॉलीवुड के बेबी बंप, बॉक्स ऑफिस कमाई के आंकड़ों और आईपीएल के खिलाड़ियों की कीमतों पर सट्टा लगा रहे मेंढकों सावधान! पानी खदकने ही जा रहा है, फिर तो यह भी न कह सकोगे कि हाय, खबर न हुई!

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