विचार

मृणाल पाण्डे का लेख: कानफोड़ प्रचार उर्फ एम्प्लीगैंडा का खेल और मीडिया का रोल

नए मीडिया में गंभीर विचार की जगह बनाने को गैलीलियो की तरह घर कैद रहकर भी अपना काम जारी रखना और भाषा या अपने विषय को कुतर्की और भोंडा बनते देखकर आपत्ति जताते रहना कठिन है, पर नामुमकिन कतई नहीं। एम्प्लीगैंडा के खेल के बारे में बता रही हैं मृणाल पाण्डे...

फोटो: नवजीवन
फोटो: नवजीवन 

भावना प्रधान धर्म और तर्क प्रधान विज्ञान का टकराव सदियों पुराना है। सत्रहवीं सदी के जाने-माने खगोलशास्त्री और आधुनिक विज्ञान के जनक माने जाने वाले गैलीलियो ने 1632 में यह कह कर कि हमारे सौरमंडल का केंद्र हमारी पृथ्वी नहीं, बल्कि सूर्य है, रोमन कैथोलिक चर्च की बुनियादी स्थापना को खारिज कर दिया। वक्त नाजुक था। यूरोप में ईसाइयत दो धड़ों में बंट चुकी थी। जर्मनी से उमड़ा प्रोटेस्टेंट चर्च दो धनी देशों-इंग्लैंड और डेनमार्क को गिरफ्त में ले चुका था और फ्रांस की नजरें भी बदल रही थीं। गैलीलियो से पोप बेतरह खफा हुए और उन्होंने आनन-फानन न सिर्फ उनसे सार्वजनिक माफी मंगवाई बल्कि उनको उम्र भर के लिए नजरबंद कर दिया। इसी के बाद चर्च की एक उच्चस्तरीय समिति बनी जिसने जम कर धार्मिकता का प्रचार करना शुरू कर दिया। ये प्रोपेगैंडा शब्द उसी समय बना जिसका फौरी मतलब था- धार्मिक संस्था के प्रशिक्षित प्रचारकों द्वारा हर तरह के हथकंडों से अपने धर्म का सोद्शदे्य कानफोड़ प्रचार और धर्मांतरण का सिलसिला बनाना। इसकी मदद से दूसरे धड़े की बहस को नक्कारखाने की तूती बना कर उसके अनुयायियों को अपनी तरफ फोड़ा जाने लगा। जल्द यह तकनीक प्रोटेस्टेंट चर्च ने भी पकड़ ली और उसके द्वारा यूरोप के उपनिवेशों में मूल निवासियों के बीच दोनों धड़ों के धर्म का जम कर प्रचार होने लगा।

Published: 17 Oct 2021, 8:00 PM IST

जैसे-जैसे विज्ञान जीता और नई शिक्षा ने धर्म की जकड़बंदी खत्म की ‘प्रोपेगैंडा’ शब्द किसी भी गुट द्वारा अपने पक्ष में दबंगई से हवा बांधने का समानार्थी बन बैठा। जब लोकतंत्र आया और राजनीतिक वजहों से अमेरिका में कम्युनिस्टों की पकड़-धकड़ का सिलसिला शुरू हुआ, तो उनके खिलाफ अमेरिका की सरकार द्वारा फिर नया प्रोपेगैंडा युद्ध छेड़ा गया। इस बार आम जनता के बीच सरकार के पोसे गोदी मीडिया की मदद से यह हवा बांधी गई कि वामपंथियों की नास्तिकता अमेरिकी राज-समाज को तोड़ने वाला भयावह और खतरनाक दुर्गुण है। इसके तहत राजनीति से मीडिया तथा मनोरंजन जगत तक में भीषण अन्यायपूर्ण गिरफ्तारियां हुईं। पर फिर नात्सीवाद ने जो खौफनाक दांत यूरोप में निकाले और यहूदियों का कत्ल-ए-आम हुआ, उससे इस तरह के प्रोपेगैंडा (मैकार्थीइज्म) की हवा निकल गई।

Published: 17 Oct 2021, 8:00 PM IST

अब बीसवीं सदी के मंच पर इंटरनेट चालित सोशल मीडिया के पैर पसारते जाने से प्रोपेगैंडा का वह पुराना रूप और कुछ हद तक मतलब फिर बदल रहा है। ऐतिहासिक अर्थों में प्रोपेगैंडा की कमान चर्च या लोकतांत्रिक सत्तारूढ़ सरकार या तानाशाहों के पास रही है। और आज भी काफी मायनों में है। लेकिन इधर कुछ स्मार्ट फोन की आमद से और कुछ कोविड काल की घर कैद से उपजी बोरियत के कारण डिजिटल प्लेटफार्मों से करोड़ों नए कम उम्र ऐसे यूजर जुड़ गए हैं जिनकी समझ और भाषा ज्ञान बहुत सीमित है, फिर भी वे जब जी चाहे अपनी पसंद का मुद्दा उठा कर हैशटैग सहित एक ताजा प्रोपेगैंडा अभियान शुरू कर सकते हैं। लोकतंत्र के हर पहलू पर जिरह का कानफोड़ शोर तो है लेकिन शोर ने जिरह करने वालों की दिमागी गहराई, विषय पर अधिकार, या तर्क बेमतलब बना दिए हैं। कोई भी बंदा आज ट्विटर, इंस्टाग्राम या फेसबुक या वॉट्सएप पर किसानों के पक्ष या धुर खिलाफ, किसी रेप के आरोप मे धरे गए गुरु की रिहाई के लिए, तो कोई किसी नेता या अभिनेता पुत्र की रिहाई या पकड़ाई के लिए नित्य उतर सकता है। यही सब देख कर एक मीडिया अध्येता ने इक्कीसवीं सदी के इस नए डिजिटल प्रोपेगैंडा को एम्प्लीगैंडा (एम्प्लीफाइड प्रोपेगैंडा की संज्ञा) दी है।

Published: 17 Oct 2021, 8:00 PM IST

जब जनता का ध्यान डिजिटल मंच ही खींच रहे हों तो उसे सूंघते हुए राजनीतिक दल भी आन पहुंचेंगे, यह पक्का है। सो, हर बड़ी पार्टी के आज अपने मीडिया प्रकोष्ठ हैं, उनके बेचेहरा कार्यकर्ता और नियमित भुगतान पाने वाले ट्रोल्स हैं जो पुराने भांडों की तरह देखते-देखते लू, लू, लू करते हुए हर भले-बुरे का पीछा कर उसे कार्टून बना डालते हैं। कई बड़े नेता जिन्होंने आज से पांच-सात बरस पहले इसी सोशल मीडिया के अश्व पर कुलांचें भरते हुए सत्ता कई तरह की गलत सूचनाओं और फेक विजअुल्स को अपने ट्रोल्स की मदद से आभासी दुनिया में छुड़वा कर हासिल की थी, भूल गए थे कि यह नया मीडिया एक दुधारी तलवार है। नेता, अभिनेता, क्रिकेट का या शेयर बाजार का महारथी, सब का कद यह बनाता है, तो कुढ़ जाने पर उसे निर्ममता से छांट भी देता है। सो, नए मीडिया के धुरंधर नायक, राजनीतिक दलों के प्रवक्ता, उनके मीडिया प्रकोष्ठ के प्रभारी कोई सुरक्षित नहीं। महाबली ट्रंप की तरह वे एक दिन खुद भी अपने ही पालित सोशल मीडिया मंचों पर ट्रोलिंग के हतप्रभ शिकार बन सकते हैं।

Published: 17 Oct 2021, 8:00 PM IST

चार अक्टूबर का दिन दुनिया के सबसे बड़े सोशल मीडिया मंच- फेसबुक के लिए कयामत का दिन निकला जब अमेरिकी कांग्रेस के सामने, खुद उसके संचालक मार्क जुकरबर्ग पर उनकी एक पुरानी कर्मचारी फ्रांसिस होगन ने खास राजनीतिक हितों को धुकाने के लिए अल्गोरिद्म से छेड़छाड़ कर मनपसंद मुद्दे को तवज्जो दिलवाने का इल्जाम लगाया। इसके बाद लगभग छ: घंटे फेसबुक बंद रहा और दुनिया भर में हड़कंप मचा। कंपनी बदनाम हुई, सो हुई, शेयर बाजार में साख के साथ अरबों डालर गंवा बैठे जुकरबर्ग इस सांप-सीढ़ी के खेल में विश्व अमीरों के बीच कई पायदान नीचे लुढ़क गए। कभी-कभी इस तरह के महानायकों की फजीहत देख कर लगता है कि इक्कीसवीं सदी फतह करने की हड़बड़ी में इतना कबाड़ बना कर भर दिया गया है कि उसमें सार्थक या मूल्यवान कुछ भी खोजना बड़ा मुश्किल हो चला है। कई बार तो लोकप्रियता के मानक ‘ट्रेन्डिंग’ फेहरिस्त देख कर लगने लगता है कि नेट ने बंदरों के हाथ में उस्तरा पकड़ा दिया है। इन मंचों की शाखों पर बैठे ठाले वे कभी गंभीर विषय पर मीम्स लगा कर उसे अगंभीर बना रहे हैं और कभी अगंभीर विषय पर कोई पुराना (कभी असली, अधिकतर नकली) वीडियो चला कर बात को बेवजह शाम के टीवी पैनलों में उस पर घंटों चर्चाएं चलवा रहे हैं जबकि इस समय ऊर्जा की किल्लत, महंगाई, बेरोजगारी और सीमा सुरक्षा की गंभीर समस्याओं से जूझते देश की प्रामाणिक चिंताएं कुछ और ही हैं। जितना चिंताजनक यह है, उससे भी गंभीर बात यह कि इन मंचों पर कई घरेलू नीम हकीम दवा कंपनियों या खास दलालों का हित साधन कर रहे हैं। मसलन, कोरोना काल में हैशटैग लगाकर खास-खास दवाओं को रामबाण बताकर उनकी हवा बांधी गई जबकि वे अब कोविड के इलाज में नाकारा साबित हुई हैं। उधर, कूटनीति के विशेषज्ञ खतरनाक सुझाव तथा दूसरे धार्मिक समूहों की बाबत भीषण पूर्वाग्रह और अज्ञान बांट रहे हैं जिसके खतरे बुहत हिंसक और दूरगामी हैं।

Published: 17 Oct 2021, 8:00 PM IST

छापेखाने के आविष्कार से पुस्तकों के प्रचार-प्रसार का, मानसिक परिष्कार का सहज सिलसिला जुड़ा है। पर आज का मीडिया कल्कि अवतार की तरह एक कल (व्यावसायिक तंत्र) की देन और उपज बनकर भारत में उतरा है। राजनीति के लिए उस घोड़े की सवारी भले अनिवार्य बन गई हो, पर सचमुच के बुद्धिजीवियों (जिन पर इसने पहले हल्ला बोला था) के लिए इस तंत्र की शर्तों पर ही तुरत-फुरत चलना कतई जरूरी नहीं। इस नए मीडिया में गंभीर विचार की जगह बनाने को गैलीलियो की तरह घर कैद रहकर भी अपना काम जारी रखना और भाषा या अपने विषय को कुतर्की और भोंडा बनते देखकर आपत्ति जताते रहना कठिन है, पर नाममुकिन कतई नहीं। एम्प्लीगैंडा के जमाने में भी प्रचारित सचाई से असहमत लोगों के आगे हथियार डालकर खामोश बने रहने की भी कोई मजबूरी नहीं है। नए युग में सही विचारों को बचाने की लड़ाई कठिन है। वह हर युग में बहुत कठिन रही है। अर्जुन की तरह बिना दैन्य, बिना पीठ न दिखाए कभी- न-कभी उसमें उतरकर अपनों के खिलाफ शस्त्र उठाना ही पड़ता है।

Published: 17 Oct 2021, 8:00 PM IST

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Published: 17 Oct 2021, 8:00 PM IST