विचार

मृणाल पाण्डे का लेख: भारत में उत्तर कोविड काल का राज-समाज

भारतीय गणतंत्र दिवस पर राजपथ पर सैन्य और सरकार की ताकत का प्रदर्शन तमाम तामझाम के बावजूद, फीका-फीका सा रहा। वजह यह कि वह जनता जिसने संविधान रचा और 26 जनवरी के दिन अपने देश को 72 साल पहले एक संप्रभुता पूर्ण गणतंत्र बना दिया।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

भारतीय गणतंत्र दिवस पर राजपथ पर सैन्य और सरकार की ताकत का प्रदर्शन तमाम तामझाम के बावजूद, फीका-फीका सा रहा। वजह यह कि वह जनता जिसने संविधान रचा और 26 जनवरी के दिन अपने देश को 72 साल पहले एक संप्रभुता पूर्ण गणतंत्र बना दिया, इस बार के राजकीय समारोह से लगभग गैरहाजिर थी। वजह, कोविड। सड़कें सुरक्षा कारणों से सूनी थीं और संवेदनशील दिलो-दिमाग को इंतजार रहा कि कब यह सरकारी प्रदर्शन खत्म हो और वह उस जीवंत गणतंत्र की छवियां दिखें जिसे लाखों भारतीय किसान अपनी नायाब ट्रैक्टर रैली से दिल्ली के गिर्द जिलाये हुए थे।

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गांधी जी ने कोविड की बाबत न कुछ कहा, न लिखा। वजह यह कि उनके समय तक यह वैश्विक महामारी सामने नहीं आई थी। लेकिन उन्होंने साम्राज्यवादी राज्य के अधिकाधिक कमाने के लालच से सभ्यताओं के असभ्य बनते जाने और मशीनी सभ्यता के कुछ पुरोधाओं के बेपनाह लालच से अंत में धरती की कोख उजड़जाने के खतरे की चेतावनी जरूर दे दी थी। भारत छोड़िए, 72वां गणतंत्र मनाने के बाद कभी अढाई सौ साल हम पर हुकूमत कर चुके साम्राज्वादी इंग्लैंड पर कोविड की मार देखिए। आज भी सनकी साम्राज्यवादी हनक पाले हुए शिखर नेतृत्व का इंग्लैंड को इसी समय यूरोपीय महासंघ से अलग करने का फैसला (ब्रेक्सिट) और कोविड का नया अधिक संक्रामक विषाणु उसे लगातार खस्ताहाल बना रहा है। और (ब्रेक्सिट से असहमत आयरलैंड और स्कॉटलैंड के टूट कर महासंघ का भाग बनने की) नई आशंका तो सर उठा ही रही है। कोविड के विचित्र दौर में जब शिक्षण संस्थाएं बंद हैं, संसद का सत्र लघुकाय बना दिया गया है, और इतिहास की सबसे भीषण मंदी सर पर है, गैरजरूरी निर्माण कार्यों को लगाम देने की बजाय संकेत मिल रहे हैं, कि इस बार का बजट भी उपभोक्ता माल का उत्पादन तथा खपत बढ़ाने, नए कृषि कानूनों से खेती का रूप बदलने और परदेसी पूंजी की आवक बढ़ाने वाला होगा। दिसंबर के तिमाही नतीजे दिखाते हैं, जमीनी सच यह है कि 2020 से अब तक कोविड के बावजूद, या उसकी वजह से औसत भारतीय के उलट संगठित क्षेत्र की चंद बड़ी कंपनियों ने अकूत मुनाफा कमाया है। इससे वित्तीय उलटबांसी रंग लाई है। शेयर बाजार में भारी उछाल है, जबकि देश में मंदी का बुरा दौर। भारी बेरोजगारी और खेतिहरों की बदहाली के बीच टीबी के मरीज के गालों की लाली की तरह इस शेयर बाजार का असली भारत के स्वास्थ्य से कोई रिश्ता नहीं बनता।

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क्या आप जानते हैं कि आज भी हमारे असंगठित क्षेत्र का हमारे बड़े संगठित उपक्रमों की सफलता में कितना बड़ा हाथ है? बड़े पैमाने पर कम वेतन और बगैर नियमित भत्तों के किराये पर मोलाये गए हाथों से ही इस समय हमारी रियल्टी इंडस्ट्री तथा फार्मा से लेकर सड़क-सड़क केबल बिछाने वाले काम मेक इन इंडिया को साकार कर रहे हैं। पर 2021 का केंद्रीय बजट गांधीवादी त्याग, अपरिग्रह और स्वदेशी विचारों के आधार पर बनेगा, यह उम्मीद बेकार है। सबसे बड़े और सबसे ज्यादा रोजगारों के स्रोत हमारे कृषि क्षेत्र में उतारे तीन नए कानूनों को अंगद का पांव बनाकर पहले ही साफ कर दिया गया है कि आने वाले समय में उत्पादन और विपणन, दोनों क्षेत्रों में ड्राइवर की सीट पर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां बैठी होंगी, देसी किसान या पारंपरिक आढ़तिये नहीं।

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आगे चलें। इसी दिसंबर में वित्तमंत्री जी ने आने वाले साल के यूनियन बजट से देश की अर्थव्यवस्था में ऐसी अभूतपूर्व क्रांति लाने की बात भी कही है, जो उनकी राय में भारत को सारी दुनिया के लिए ‘ग्रोथ का इंजन’ बना देगी। बैंकिंग क्षेत्र के शक्तिमान ज्ञानीजनों ने इसमें अपने सद्विचार जोड़ते हुए कहा कि उद्योग जगत को बढ़ावा देने को स्वस्थ बैंक तथा लोन बहुत जरूरी हैं। लिहाजा अनचुकाए कर्जों के बोझ से दबे हुए बैंकिंग क्षेत्र में भी भारी सुधार किए जाएंगे। इसके लिए संभव है, कि एक सरकारी ‘बैड बैंक’ बनाया जाए, जो अनचुकाये कर्ज का बैंकिंग क्षेत्र से विरेचन कर उनको अंतत: निजीकरण के लिए उपयुक्त बनाएगा। जिस तरह 18वीं सदी में मरीज को जोंक चिपका कर उसके ‘विषाक्त’ खून को चूसकर बाहर करने का नीम हकीमी इलाज होता था, यह फार्मूला क्या कुछ-कुछ उसी तरह का नहीं?

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बड़े उपक्रमों, बड़े बैंकों, बड़े मुनाफे फेंकने वाले शेयर बाजारों की मार्फत विकास का इंजन बनने की यह चाह हमको किस दिशा में ले जाएगी? उत्तर कोविड काल में हम ट्रंप के अमेरिका, पुतिन के रूस और बोल्सानारो के ब्राजील को बीमार और वहां के पर्यावरण को विषाक्त होता देखकर भी नसीहत नहीं ले रहे, पर भारत की बाबत दुनिया की जानीमानी जनहितकारी संस्था ऑक्सफैम की आंख खोलने वाली रपट ‘दि इन इक्वालिटी वायरस’ (गैरबराबरी का वायरस) आई है। इसने खुलासा किया है कि जिस दौरान कोविड की तालाबंदी की तहत भारत के 170,000 कामगार रातोंरात भुखमरी और बेदखली के शिकार बने, उसी दौरान भारत के सौ सबसे अमीर लोगों की आय में 35 फीसदी (कुल 12.97 ट्रिलियन) की बढ़ोतरी हुई। लिहाजा हमारा नेतृत्व हमको विश्वगुरुडम की बाबत जो कहे, फिलहाल आम जनता की खुशहाली नहीं, कुल 100 धनकुबेरों की आमदनी की बेपनाह बढ़त के बूते ही भारत दुनिया में (अमेरिका, चीन, जर्मनी, रूस और फ्रांस के बाद) छठी बड़ी आर्थिक ताकत बना है। यह तारीफ का विषय हो कि सर झुकाने का?

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यह भी जानने लायक है कि हमारे राज-समाज में साल भर के भीतर पहले से मौजूद जाति, संप्रदाय और लिंगगत विषमताओं की खाई पहले से कहीं गहरी हो गई है। घरों में बंद जनता के सामने अमेरिका की ही तरह भारत में भी धुर दक्षिणपंथी दलों ने नए मीडिया पर तरह-तरह से बहुसंख्यवादी हिंदुत्व का जम कर प्रचार किया। सामाजिक मिलन से दूर बैठे समाज को इसने पहले से कहीं ज्यादा बहुसंख्यवादी और अल्पसंख्य, दलित विमुख बना दिया है। निरंतर संस्कृति, शुचिता और धार्मिक दुष्प्रचार के बीच यह बात छुप सी गई कि अमीर-गरीब के बीच की खाई बढ़ने से बहुत कोशिश के बाद गरीबी रेखा से ऊपर उठ पाए लाखों परिवारों की खान-पान क्षमता ही नहीं घटी, उनके बच्चों की अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य कल्याण सुविधाओं तक सहज पहुंच भी खतम हो गई है।

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स्वास्थ्य क्षेत्र में विषमता छुपाने का सरल सरकारी तरीका है कि नकारात्मक रुझान दिखाने वाला डेटा सार्वजनिक ही नहो। लिहाजा हमारे पास आज इस बात के कोई आंकड़े नहीं कि कोविड विषाणुओं ने हमारे विविधताओं के पिटारे देश के अलग-अलग वर्गों, समुदायों को कब, कितना और किस हद तक प्रभावित किया है। यह तो ऑक्सफैम के शोध के दौरान ही जाहिर हुआ कि कोविड काल में सबसे गरीब 20 फीसदी आबादी की साफ पेयजल तथा गैर साझा जल-मल व्ययन तक पहुंच सिर्फ 25.9 फीसदी थी, जबकि संपन्न वर्ग में यह प्रतिशत 65 के पार पाई गई। पहले से मौजूद लैंगिक असमानता भी बढ़ी है। रोजगार बंद हुए तो परिवार तथा कार्य क्षेत्र में हर कहीं सबसे नीचे खड़ी भारतीय महिलाओं पर घरेलू हिंसा बढ़ी, अनचाहे गर्भ तथा रेप बढ़े और उनमें से असंगठित क्षेत्र की 18 फीसदी महिलाएं रोजगार खो बैठीं। जो काम पा गईं उनमहिलाओं का भी वेतन इस दौरान कम हो गया है तिस पर स्वास्थ्य भी बिगड़ा। आंगनवाड़ी तथा अन्य सरकारी स्वास्थ्य केंद्र चूंकि कोविड की आपात्सेवाओं से जोड़ दिए गए गर्भवती, चाहे अनचाहे गर्भपात की शिकार और टीबी या कैंसर जैसे रोगों की पीड़िताएं भी जरूरी इलाज से वंचित रहीं। इससे एक साल में पहले घट रही मातृ मृत्युदर फिर से बढ़ी पाई गई। घर-बाहर दिन-रात खटने वाली महिलाओं पर कोविड की मार का आर्थिक नतीजा देश की सकल आय में भी पड़ा है जिसमें 8 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई।

शिक्षा पर कोविड की मार और भी चिंताजनक है। तालाबंदी की वजह से स्कूल- कॉलेज बंद हुए तो तेजी से निजीकरण की राह पर दौड़ाए गए शिक्षा क्षेत्र को विकसित देशों की तर्जपर ऑनलाइन डिजिटल शिक्षा की राह पर भेजा गया। इसी के साथ घरों के भीतर खुराफाती उम्र के स्कूली बच्चों के साथ बंद अभिभावकों के सामने अर्द्धशिक्षित नेतृत्वने गला फाड़ ऐलान शुरू करा दिया कि कैसे हमेशा से नई तकनीकी में अव्वल रहा डिजिटली तरक्की शुदा भारत विश्वगुरु बनने जा रहा है। डिजिटल शिक्षा के लिए उपकरण चाहिए। पर सरकारी स्कूलों का सच यह है कि आज भी वहां पढ़ने वाले कई बच्चों के (जो देश की 20 प्रतिशत सबसे गरीब आबादी से आते हैं), परिवारों की कंप्यूटर तक सिर्फ 3 फीसदी, और मोबाइल रखने के बावजूद इंटरनेट तक मात्र 9 फीसदी की ही पहुंच है। सो तमाम सरकारी प्रचार के बाद भी कोविड काल में शैक्षिक गुणवत्ता की बजाय विषमता बहुत बढ़ी और बढ़ती जा रही है। इससे अधिकतर गरीबों के बच्चे कुंठित होकर पढ़ाई अधबीच छोड़ काम खोजने को मजबूर हो रहे हैं।

हाल में हम सबने बंगाल के चुनावी महाभारत के रण में तमाम दलों के विदेशी पूंजी को लाल कार्पेट बिछाकर न्योतते हाउडी मार्का नेताओं को, बांग्ला तर्ज के परिधानों में संस्कारी शिक्षा, बांग्ला संस्कृति और कविता पर सुललित व्याख्यान देते हुए सुना। इससे याद आया कि गांधी जी से किसी ने अंग्रेजी सभ्यता की बाबत उनकी राय पूछी थी। बापू का जवाब था कि खयाल तो सुंदर है। कोविड के सालभर बाद कोई मौजूदा भारतीय गणतंत्र की बाबत हमारी राय पूछे तो हम भी यही कहेंगे कि वह बस एक सुंदर खयाल बन चुका है।

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