विचार

मृणाल पाण्डे का लेख: आत्मनिर्भर वैक्सीन को लेकर इतना उतावलापन क्यों? जानकारों ने बताया ‘समझ से परे’

अब तक यह साफ हो चुका है कि कोविड-19 के रूप में वैज्ञानिक एक नई तरह के वायरस को देख रहे हैं। इसकी सही काट के लिए कारगर रोग निरोधी टीका बनाना हो तो उसके लिए तयशुदा वैज्ञानिक प्रक्रिया में राजनीतिक दबावों की तहत कोई शॉर्टकट निकालना घातक होगा।

फोटो : IANS
फोटो : IANS 

2021 की शुरुआत में लग रहा है कि शायद 2019 के लोकसभा चुनावों ने देश के लैंडस्केप से पार्टियों का ही नहीं, राजनीति में वैचारिकता, विविधता का भी लगभग सफाया कर दिया है। कई विचारों का घालमेल होते हुए भी कांग्रेस 2014 तक एक लोकतांत्रिक विचार तो थी ही। जीवंत चलती-फिरती लोकतांत्रिकता से जरूरी जन मुद्दों की बाबत जो बहस-मुबाहसे और संसदीय टकराव निकलते हैं, उनके क्षीण ही सही लेकिन प्रामाणिक दर्शन हमको हर बरस संसद सत्रों के दौरान हो ही जाते थे। बड़े उपक्रम, व्यापक मनरेगा जैसी योजनाएं और आईआईटी और एम्स जैसे तकनीकी तथा चिकित्सकीय शिक्षा के उन्नत संस्थान और साहित्य, संगीत, कला वगैरा से जुड़ी अकादमियां तब सरकार के लिए सिर्फ डींग भरी गर्व का विषय नहीं, मूलत: एक उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के हिस्से भी थे। सच है कि कांग्रेस में भीतरी टकराव और गुटबाजी तब भी थी, यह भी संभव है कि चुनाव-दर-चुनाव भीतर खाने जमीनी राजनीति के शातिर राजनीतिक जोड़-तोड़ या भाव-ताव तब भी चलते रहते हों, लेकिन इसमें शक नहीं कि तब तक वैचारिक धरातल पर मुलायम सिंह, नीतीश कुमार, प्रकाश करात, नरेंद्र मोदी और योगी जी सबके पास अपनी खास वैचारिक जमीन थी। और उसके बूते वे बहुत कुछ ऐसा सार्वजनिक तौर से ऐलानिया कहा, किया करते थे, (मसलन एमएसपी का विरोध, निर्भया रेप कांड के बहाने कानून-प्रशासन की निंदा अथवा स्वास्थ्य या शिक्षा क्षेत्र में सरकारी निवेश का समर्थन), जिसका फायदा उनको 2014 में मिला। पर आज जब वे खुद सत्ता में हैं, लगभग वही काम उसी तर्ज पर वे खुद भी कर रहे हैं। 2019 के बाद से विपक्ष की वैचारिक जमीनें कब्जाने का संघर्ष क्रमश: तीखा और कटु होता गया है। 2021 तक आते-आते सरकार के हर नुमाइंदे को सरकारी काम देश प्रेम का प्रतीक और उससे इतर खड़े नेता या किसी जनांदोलन का सरकार के इकतरफा अहम फैसलों पर सवालिया निशान लगा देना बांझ और देश विरोधी नजर आता है जिसे साम-दाम-दंड-भेद हर तरह से रोकना जायज है।

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यह एकाएक नहीं हुआ। 2004 के बाद जब मनरेगा और मिड-डे मील जैसी खर्चीली योजनाओं ने 2009 तक वोटरों, खासकर महिला वोटरों के मर्म को छू लिया था, गरीब लोगों को लगने लगा था कि इनके पीछे एक तरह की लोकतांत्रिक जिम्मेदारी का अहसास है जो अर्थव्यवस्था के खुलने के फायदों को सबसे नीचे की सीढ़ी के वोटर तक आंशिक रूप से ही सही, लेकिन पहुंचाते रहने का एक ठोस चैनल बना रही है। फिर 2014 में वैकल्पिक विचारों का एक बड़ा हाहाकार देश में उठा कर कांग्रेस को पश्चिमोन्मुखी, छद्म लिबरल और छद्म बुद्धिजीवियों को पालने वाली बताते हुए भाजपा नीत गठजोड़ ने दिल्ली का सिंहासन हासिल कर लिया। इसके बाद जो कई दक्षिणपंथी नेता, साधु-साध्वी बानाधारी भाजपा कार्यकर्ता पन्ना प्रमुख आदि बाबरी ध्वंस के बाद के बरसों में हर धार्मिक मेले हरि कथा रामचरित मानस के मोहल्ला स्तरीय अखंड पाठ के समय आपस में सुना-सुना कर कहते थे कि हाय हिंदुत्व खतरे में है, उनको भी मौका मिला कि वे अपने बड़े नेताओं को शत-शत नमन करते हुए अपनी तरह का हिंदू नीत देश रचें। और शेष धर्मावलंबियों का जो हो, यज्ञ, हवन, अखंड आरतियों, कथित वैदिक रूढ़ि-रिवाजों को हिंदुत्व प्रचार का नाम देकर संसद से सड़क तक फैला दिया जाए।

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अगर नोटबंदी, हाथरस कांड, कोविड और अब देशव्यापी किसान धरने ने 2014-21 के बीच हर भारतीय के आगे हमारी अर्थव्यवस्था ही नहीं, कानून प्रशासनऔर राजकीय स्वास्थ्य कल्याण सहित संसदीय व्यवस्था का पोलापन न उजागर कर दिया होता, तो हिंदुओं को शायद लगता कि हिंदू भारत उनके लिए सचमुच एक नई तरह की कामधेनु है। पर सरकार ने इधर कोविड की वैक्सीन को लेकर जो घोषणाएं की हैं, जिस तरह जबरन, बिना समुचित परीक्षण के प्रमाण हरी झंडी दे कर कोविशील्ड और कोवैक्सिनको ‘आत्मनिर्भर भारत’ का प्रतीक बता कर उसने साफ कर दिया है कि हिंदू राष्ट्रवादियों में तर्कसंगत वैज्ञानिकता और सही वैचारिक नुस्खे, दोनों नहीं बचे हैं। क्या आज तक बिना जरूरी उपकरणों और चिकित्सकीय परामर्श के, कोई जवान पर्वतारोही भी एवरेस्ट पर चढ़ा है? पर हम हैं कि गंभीर विश्व महामारी से जूझ रहे लाखों मरीजों और उनकी सेवा तथा इलाज करने वाले स्वास्थ्यकर्मियों को ‘आत्मनिर्भर भारत’ और देश प्रेम के नाम पर एक ऐसी वैक्सीन के लिए गिनीपिग बनाए दे रहे हैं जिसके स्नायुतंत्र अथवा ब्रेन पर कोई गंभीर स्थायी दुष्परिणामों की बाबत अभी तक कोई पक्की जानकारियां नहीं हैं। अचरज नहीं कि संयुक्त राष्ट्र संगठन की प्रतिनिधि डॉ. कांग ने सरकार और उसके चिकित्सातंत्र की ऐसी उतावली और रोग निरोधी टीके को इलाज के समतुल्य ठहराने को ‘समझ से परे’ करार दे दिया है।

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अब तक यह साफ हो चुका है कि कोविड-19 के रूप में वैज्ञानिक एक नई तरह के वायरस को देख रहे हैं। इसकी सही काट के लिए कारगर रोग निरोधी टीका बनाना हो तो उसके लिए तयशुदा वैज्ञानिक प्रक्रिया में राजनीतिक दबावों की तहत कोई शॉर्टकट निकालना घातक होगा। इसलिए हर वैक्सीन का तीन चरणों में मानवीय वॉलंटियरों पर परीक्षण करना होता है, फिर उसके नतीजों से मिला सारा डेटा पारदर्शी तरीके से अपने पेशे के अन्य विशेषज्ञों से उसको जंचवाना होता है। उनकी स्वीकृति पाने के बाद ही किसी भी दवा का मसौदा कमर्शियल उत्पादन के लिए सरकार को सौंपने का विधान है। सरकार खुद अपने विशेषज्ञों से उनकी संतुष्टि का सबूत मिलने के बाद ही उत्पादन को हरी झंडी देती है। हमारे यहां एक वैक्सीन ऑक्सफॉर्ड एस्ट्रा का भारतीय संस्करण है, जिसका पुणे में पूनावाला सीरम इंस्टीट्यूट ब्रिटिश निर्माताओं के साथ सह-उत्पादन कर रहा है। वह आपात्कालीन दशा में इस्तेमाल के लिए ब्रिटिश सरकार से ब्रिटेन में स्वीकृति पा चुकी है हालांकि1600 वॉलंटियरों पर किए गए उसके तीसरे चरण के प्रयोग का डेटा अभी सार्वजनिक होना है। लेकिन अधिक विवाद हैदराबाद की बायोटेक कंपनी और भारतीय चिकित्सा शोध परिषद द्वारा सह-उत्पादित कोवैक्सीन को लेकर हो रहा है, जिसका तीसरा चरण शुरू भी नहीं हुआ, उसके लिए अभी वॉलंटियर खोजे ही जा रहे हैं। और जिसके पहले दो चरणों का डेटा भी अभी सार्वजनिक होना है।

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कोविशील्ड के निर्माताओं का दावा है कि परीक्षण के दौरान उनका कोविड निरोधी टीका 70 फीसदी सफल पाया गया है जबकि भारतीय ड्रग कंट्रोलर जनरल वीजी सोमानी इसे 110 प्रतिशत सेफ बता चुके हैं। कोवैक्सीन को हरी झंडी दिए जाने की बाबत एम्स के प्रमुख डॉ. गुलेरिया का कहना है कि कोवैक्सीन का इस्तेमाल ‘फॉल बैक’ यानी आपात्कालीन स्थिति में बतौर विकल्प ही प्रयोग होगा। लेकिन उन्होंने इसकी संदिग्ध क्षमता की बाबत इतना ही कहा कि उसका प्रयोग किया गया तो सफलता संभव (लाइकली टु) है।

इस बिंदु पर जानकार लोगों के बीच भारत निर्मित वैक्सीनों को लेकर तीन मुख्य चिंताएं हैं। एक, कि रोग निरोधी टीकों का इस्तेमाल उपचार नहीं रोग निरोध के लिए किया जाता है। इसलिए जब रोग उफान पर हो बिना संपूर्ण परीक्षणों से गुजरी वैक्सीन का प्रयोग अगर सही नतीजे न दे, तो इसका जिम्मेदार कौन होगा? वे वैज्ञानिक जो इस पर काम करते रहे हैं, या वे राजनीतिक तत्वजो अपनी नाक बचाने को इसका परीक्षण पूरा होने से पहले इसका भारी मात्रा में उत्पादन जायज बना रहे हैं? दो, कोविशील्ड की बाबत एम्स के प्रमुख का कहना कि उम्मीद है वैक्सीन जब इस्तेमाल होगी तो संभवत: सफल ही होगी, क्या इस बात का परिचायक नहीं कि एक उम्दा अनुभवी चिकित्सक होने के नाते वह उसकी सफलता की पक्की गारंटी देने की बजाय उसे ‘संभावित’ बता रहे हैं। तीन, हमारे ड्रग कंट्रोलर जनरल ऐसे टीके की, जिसे अभी पूरी परीक्षाओं में खरा उतरना बाकी है, जिसका डेटा अपारदर्शी बना हुआ है, 110 प्रतिशत सफल होने की भविष्यवाणी कैसे कर रहे हैं? अगर आज सरीखे नाजुक आपात्काल में भी सरकारें सोच विचार से तलाक लेकर कानून की बजाय सनक, सिद्धांत की बजाय कंपनी विशेष की सिफारिश और जनहित की बजाय अमीरों के प्रति पक्षपात और गरीब गिनीपिगों के लिए दादागिरी दिखाते हुए ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसे नारे के आधार पर लाखों नाजुक स्वास्थ्य वाले नागरिकों को नए टीके के परीक्षण का गिनीपिग बनाना गलत न मानें, तो इसका साफ मतलब है वे ‘विचार विहीन मही मैं जानी’ की गर्वोक्ति से अपनी छाती फुला रहे हैं।

दुनिया में अगर सबसे अधिक प्रतिगामी कोई चीज़ है, तो वह विचारहीनता ही है। शायद इसी कारण निरंतर चुनावी मोड में रहने वाले राजनेताओं ने ही नहीं, हमारे गोदी मीडिया, सरकारी बाबुओं, वैज्ञानिकों और उद्योग जगत ने भी कोविड की आपदा में पीड़ित जनता के कष्ट निवारण करने की बजाय मसला ए वैक्सीन को अपने लिए कोई रत्न जटित सिंहासन या पंच हजारी ओहदा हथिया ने का नायाब अवसर बना डाला है।

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