विचार

कुश्ती के अखाड़े से राजनीति के मैदान में उतरे मुलायम ने अपने विरोधियों को कई बार दी पटखनी, लेकिन चित भी हुए

कुश्ती के अखाड़े से राजनीति के मैदान में उतरे मुलायम सिंह यादव ने अपने विरोधियों पर खूब चरखा दांव लगाए और कभी अपने दांवों से चित भी हुए। जो भी हो, मंडल-पश्चात तीन दशकों की उत्तर भारतीय राजनीति को गहरे प्रभावित करने वाले नेताओं में वे बराबर गिने जाएंगे।

फोटो: Getty Images
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राममनोहर लोहिया के सहयोगी और 1962 में जसवंतनगर सीट से विधान सभा का चुनाव लड़ चुके नत्थू सिंह ने एक बार मैनपुरी के एक दंगल में मुलायम सिंह यादव को कुश्ती लड़ते देखा। कुश्ती वे अच्छी लड़ते थे और इलाके के चैंपियन थे। पता नहीं नत्थू सिंह ने मुलायम के कुश्ती के दांव-पेंचों में क्या देखा, लेकिन लोहिया से कहकर उन्हें 1967 में इटावा की जसवंतनगर सीट से प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का टिकट दिलवा दिया। उस चुनाव में मुलायम जीते और विधान सभा में सबसे कम उम्र के विधायक (28 साल) बने।

यहां से मुलायम सिंह यादव ने लोहिया के नेतृत्व में समाजवाद की राह पकड़ी। गैर-कांग्रेसवाद का नारा देने वाले लोहिया से वे पहले से प्रभावित थे ही। 1967 का साल चुनाव कुछ राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनने का साल था। उत्तर प्रदेश में ‘संविद’ (संयुक्त विधायक दल) की जो सरकार बनी उसमें भारतीय जनसंघ (आज की बीजेपी का पूर्व अवतार) भी था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी। लोहिया की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और अन्य दल तो थे ही।

गैर-कांग्रेसवाद के जोश में जनसंघ का साथ लेने की यह रणनीति लोहिया का प्रयोग ही नहीं, मुलायम सिंह की राजनीतिक पाठशाला का भी प्रस्थान बिंदु भी बनी। 1975 में तब की कांग्रेस (कांग्रेस आई) को हराने के लिए बनी रणनीति में यही विरोधाभासों से भरी रणनीति जयप्रकाश नारायण ने अपनाई। मुलायम तब भी उस जनता पार्टी के साथ थे जिसमें जनसंघ भी बराबर की हिस्सेदार थी।

लोहिया के निधन के बाद मुलायम ने किसानों के पक्षधर बड़े नेता चौधरी चरण सिंह को अपना गुरु बनाया, लेकिन रिश्ता दूर तक नहीं जा सका। जनता पार्टी की टूट के दौरान और उसके कुछ समय बाद तक वे चंद्रशेखर (समाजवादी जनता पार्टी) के साथ रहे। इस बीच उत्तर प्रदेश की राजनीति में वे अपना दम-खम दिखा चुके थे। 1989-91 के 'जनमोर्चा' और 'जनता दल' जैसे प्रयोगों तथा उनकी अस्थिर सरकारों के पतन के बाद जब अंतत: जनता पार्टी टूटी।

उसके बाद 1992 में मुलायम सिंह यादव ने अपनी 'समाजवादी पार्टी' का गठन किया, जिसने कालांतर में उत्तर प्रदेश की राजनीति में काफी प्रभाव छोड़ा। यह पिछड़ी जातियों को 27 फीसदी आरक्षण देने वाली मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद समाज और राजनीति के पूरी तरह बदलने का दौर था। कांशीराम के अथक प्रयासों से 1984 से राजनीतिक पार्टी के रूप में उभर रही बहुजन समाज पार्टी के भी ताकतवर होने का यही समय था।

जेपी आंदोलन से चमके लालू यादव और नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में छाने लगे थे। हिंदूवादी राजनीति को चमकाने की कोशिश में, 'जनसंघ' अपने नए अवतार 'बीजेपी' के रूप में अपने लिए जमीन तलाश कर रहा था। 'मंडल' से परेशान कांग्रेस को नया आधार देने की कोशिश या गफलत में राजीव गांधी ने अयोध्या से 'मंदिर तुरुप' क्या खेला, बीजेपी के हाथ में वह इक्का आ पड़ा जिसने राजनैतिक-सामाजिक समीकरणों की बाजी ही पलट दी और इस देश के ताने-बाने को बहुत गहराई तक तार-तार करना शुरू कर दिया था।

जिस गैर-कांग्रेसवाद के सिद्धांत से मुलायम की राजनीति शुरू हुई थी, उसकी धीरे-धीरे जरूरत ही खत्म होती गई। उनके सामने प्रदेश में बीएसपी के अलावा बीजेपी भी खड़ी हो गई थी। बीएसपी से वे हाथ मिला  सकते थे, मिलाया भी और लड़े भी, लेकिन बीजेपी-विरोध उनकी राजनीति का मुख्य केंद्र बिंदु बनता गया। 1992 के बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद मुसलमानों को अपनी पार्टी का पूरा संरक्षण देने में मुलायम ने देर नहीं की। यादव-मुस्लिम वोट बैंक उनकी ताकत बना।

उत्तर-प्रदेश के 18-19 प्रतिशत मुसलमानों को अपना वोट बैंक बनाए रखने के लिए मुलायम ने हर पैंतरा चला और कई बार सीमाएं भी पार कीं। 'मौलाना मुलायम' का तमगा पाकर वे प्रसन्न ही हुए। यह अलग बात है कि इस प्रयास में वे बीजेपी को फलने-फूलने के लिए पूरा खाद-पानी देते रहे। वे जितना ही मुसलमानों के सरपरस्त होते गए, बीजेपी को 'तुष्टीकरण' के बहाने हिंदू-ध्रुवीकरण का पूरा अवसर मिलता गया। इसी कारण एक दशक का दौर यूपी में ऐसा रहा जब बीजेपी और सपा (समाजवादी पार्टी) में सी-सॉ जैसा खेल चला रहा। दोनों एक-दूसरे को पछाड़ने के नाम पर उभरने का अवसर ही दे रहे थे। बीच-बीच में बीएसपी दोनों का खेल बिगाड़ती या बनाती रही।

लालू यादव भी बिहार में ऐसी ही यादव-मुस्लिम राजनीति करते रहे। वहां बीएसपी जैसी तीसरी ताकत न होने से दलितों के वोट बैंक पर भी उनका एकाधिकार बना रहा। लालू और मुलायम दोनों बीजेपी विरोधी राजनीति के केंद्र में बने रहे। बीजेपी का उभार उत्तर भारत से हो रहा था और पिछड़ी जातियों एवं अल्पसंख्यकों के सरपरस्त बने ये दोनों क्षत्रप उसका मुकाबला करने को डटे थे। इस दौरान कांग्रेस उत्तर प्रदेश और बिहार में कमजोर होने लगी थी।

इस तरह बीजेपी-विरोधी जो राजनैतिक स्पेस बन गया था, उस पर काबिज होने के लिए दोनों में प्रतिद्वंद्विता भी चलती थी। लालू ने तब बाजी मार ली थी जब आडवाणी का राम-रथ बिहार में रोककर उन्होंने आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया। मुलायम की पूरी राजनीति को ध्यान में रखते हुए आज यह कहना कठिन है कि लालू तब आडवाणी को बिहार में गिरफ्तार न करते तो मुलायम यूपी में आने पर उनके साथ क्या सलूक करते, हालांकि मुलायम लगातार यही कहते रहे थे कि 'अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकता।' लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि उनका ही राज था जब 1990 में पहली बार उपद्रवी भीड़ बाबरी मस्जिद के गुम्बदों पर चढ़कर प्रतीकात्मक तोड़-फोड़ कर आई थी।

बहरहाल, 1990 का दशक भारतीय राजनीति, अंतरराष्ट्रीय राजनय और अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के लिए भी बहुत महत्त्वपूर्ण रहा। नरसिंह राव की अल्पसंख्यक सरकार के पांच साल चलने के अलावा बाकी दशक राजनैतिक उठापटक और अस्थिर सरकारों का रहा। मुलायम और लालू दोनों ने केंद्र सरकारों में अंदर या बाहर से अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाईं। इसी दौर में मुलायम का डोलायमान रुख और लालू की एकनिष्ठता भी सामने आने लगी। मुलायम कभी केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ खड़े हुए तो कभी उसे समर्थन भी देते रहे। कभी अपने रुख में वे पलटी मार जाते।

अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिरने के बाद 1999 में जब सोनिया गांधी ने केंद्र में सरकार बनाने का दावा राष्ट्रपति के समक्ष पेश किया तो मुलायम पलटी मार गए। सोनिया का उन्होंने विदेशी कहकर भारी विरोध किया, जबकि सोनिया उनसे समर्थन मांग रही थीं। अमेरिका से परमाणू समझौते और अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाने के मामले में भी उन्होंने पहले किए वादे से पलटी मार दी थी। कभी यूपीए के साथ गए तो कभी अचानक एनडीए के साथ खड़े हो गए। वाम मोर्चे के साथ भी वे खड़े दिखना चाहते रहे।

बीच-बीच में प्रधानमंत्री बनने का उनका सपना भी जोर मारता। इसके उलट लालू यादव ने न केवल सोनिया गांधी का पूरा साथ दिया बल्कि, विपरीत परिस्थितियों में भी बिहार में कांग्रेस को अपने गठबंधन में साथ बनाए रखा। मुलायम की तरह उन्होंने पलटी नहीं मारी। बल्कि, कई बार लगता है कि लालू को अपनी धुर-बीजेपी विरोध की राजनीति की भारी कीमत चुकानी पड़ी है।

भ्रष्टाचार और राजनीति में अपराधियों को बढ़ावा देने के लिए भी मुलायम खूब चर्चा में रहे। उनके खिलाफ, बल्कि उनके पूरे परिवार के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे। नौबत यहां तक आ गई थी कि शायद उनके खिलाफ भी लालू यादव की तरह सख्त कार्रवाई हो, लेकिन वे अपनी डोलायमान राजनीति का लाभ लेकर आधी-अधूरी क्लीन चिट हासिल कर ले गए।

शुरु में समाजवादी राजनीति के मूल्यों से बंधे मुलायम अपने परिवार को राजनीति में लाने के विरुद्ध थे। अखिलेश यादव को उन्होंने अपनी राजनैतिक छाया से दूर ही रखा था, लेकिन बाद में वे पुत्र-मोह में इतना फंसे कि सदा सहायक भ्राता शिवपाल को नाराज कर अखिलेश को मुख्यमंत्री बनवा दिया। उनका पूरा कुनबा राजनीति में है। अपराधियों को राजनीति में लाने का श्रेय अकेले मुलायम को नहीं दिया जा सकता, लेकिन वे सदा संगीन अपराधों से घिरे बाहुबलियों का बचाव कर उन्हें महत्त्व देते और मंच पर अपने साथ बैठाते रहे। उनके शासनकाल में अपराध बहुत बढ़ जाते हैं, यह आरोप उनके साथ ही नहीं, आज अखिलेश यादव की छवि के साथ भी चिपका हुआ है, जिसका लाभ बीजेपी ने खूब उठाया।

अपने राजनैतिक जीवन की संध्या में उन्होंने एक और चौंकाने वाला कारनामा किया। सोलहवीं लोकसभा की विदाई वेला में उन्होंने सदन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करने में शब्दों की कोई कंजूसी नहीं की। यहां तक कह दिया कि मैं कामना करता हूं कि वे जीतकर फिर प्रधानमंत्री बनें। उनकी पलटी मारने की राजनीति के बावजूद यह बहुत आश्चर्यजनक बयान था जिसकी लानत-मलामत होनी ही थी। एक बार वे लखनऊ में मोदी के सार्वजनिक मंच पर उपस्थित होकर उनके कान में कुछ फुसफुसाकर भी हास्यास्पद रूप से चर्चित हो चुके थे।

कुश्ती के अखाड़े से राजनीति के मैदान में उतरे मुलायम सिंह यादव ने अपने विरोधियों पर खूब चरखा दांव लगाए और कभी अपने दांवों से चित भी हुए। जो भी हो, मंडल-पश्चात तीन दशकों की उत्तर भारतीय राजनीति को गहरे प्रभावित करने वाले नेताओं में वे बराबर गिने जाएंगे।   

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