वर्ष 1857-58 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का अंग्रेजी सेना और उसका साथ देने वालों के विरुद्ध अमर संघर्ष भारतीय स्वाधीनता समर के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। इस संघर्ष में जहां रानी लक्ष्मी बाई ने स्वयं अपना जीवन बलिदान किया, वहां सभी धर्मों और जातियों के अनेक बहादुर सैनिकों ने बिना किसी आपसी भेदभाव के एक-साथ लड़ते हुए अंत तक झांसी के किले की रक्षा के अथक प्रयास किए और इन प्रयासों के दौर में उनमें से अनेक ने वीरगति प्राप्त की। जिस तरह अधिक शक्तिशाली अंग्रेज सेना का मुकाबला झांसी की सेना और जनता ने किया, उससे यह जबरदस्त अहसास होता है कि किस कदर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी प्रजा और सेना में सब तरह के भेदभाव समाप्त कर विभिन्न जातियों व धर्मों की शानदार मिसाल कायम की थी। महिलाओं को भी सैन्य प्रशिक्षण दिया गया था और इन महिला सैनिकों ने बहुत बहादुरी दिखाई।
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झांसी की रानी द्वारा मुसलमान सैनिकों को बहुत महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपी गई थीं और उन्होंने अपने जीवन के अंत तक बहुत साहस से इन जिम्मेदारियों को निभाया। इन शीर्ष के सैनिकों में विशेषकर रानी लक्ष्मीबाई के मुख्य तोपची गुलाम गौस खां और उनके साथी खुदा बख्श की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। इससे पहले झांसी राज्य में डकैत समस्या के समाधान में भी गुलाम गौा खां व उनके कुछ साथियों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। गुलाम गौस खां वैसे तो पूरे तोपखाने को भी संभालते थे पर विशेषकर वे अपना निशाना ‘बिजली कड़क’ तोप से साधते थे जबकि खुदा बख्श ‘भवानी शंकर’ नाम की तोप से दुश्मन पर कहर बरसाते थे। भवानी शंकर तोप का तो मुंह ही शेर की तरह था।
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मार्च-अप्रैल 1858 में झांसी को जब अंग्रेज सेना ने घेर लिया था उस समय बहुत भीषण युद्ध हुआ था, जिसमें एक बहुत प्रमुख भूमिका तोपों और तोपचियों की थी। इस युद्ध में गुलाम गौस खां और उनके साथियों की तोपों ने एक समय तो अंग्रेजी सेना के लिए घोर संकट खड़ा कर दिया था। गुलाम गौर खां का निशाना इतना सटीक बैठता था कि अंग्रेज सेना की व्यूह रचना के लिए मुसीबत पैदा हो जाती थी।
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इस स्थिति में अंग्रेज सेना ने कुछ बहुत अनैतिक कार्य किए। एक तो उन्होंने झांसी के लोगों के पानी भरने के स्थान पर गोले दाग कर वहां के निहत्थे लोगों को मारना आरंभ किया। इस स्थिति में गौस खां की तोपों ने ऐसा हमला दुबारा न हो, इसके लिए अपनी तोपों से समुचित जवाब दिया।
दूसरा अनैतिक कार्य अंग्रेज सेना ने यह किया कि मंदिरों की आड़ लेकर अपनी तोपों को तैनात कर दिया। इस स्थिति में गौस खां और खुदा बख्श आदि तोपचियों पर एक अतिरिक्त जिम्मेदारी आ गई कि अंग्रेज सेना पर हमला किया जाए पर मंदिरों की रक्षा भी की जाए। गौस खां और उनके साथियों ने अपनी प्रसिद्ध निशोनेबाजी के आधार पर इस जिम्मेदारी को भी खूब निभाया।
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इसी युद्ध के दौरान हुए एक बड़े विस्फोट में गुलाम गौस खां और उनके सहयोगी खुदा बख्श और मोती बाई मारे गए। उनके इस अमर बलिदान को असीमित साहस और राष्ट्रीय एकता के प्रतीक के रूप में हम सदा याद रखे व नमन करें।
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