भूल गए कि इन्हीं हाउसिंग सोसायटी के वासियों के वोटों से भी तुम जीते थे। तुम जीते और अपने घर के खिड़की-दरवाजों पर इन्होंने अपना हक भी खो दिया! तुम क्या डरते ही रहते हो अट्ठारह घंटे? किसानों के आंदोलन से डर, धरनों-प्रदर्शनों से डर। बौद्धिकों और कवियों से डर।फिल्मों से डर, स्टैंडअप कामेडियन से डर। छात्रों से डर। बहस से डर। सूचना के अधिकार से डर। बोलने से नहीं मगर सुनने से डर!
कोई मुस्लिम पत्रकार दलितों पर अत्याचार की घटना की कवरेज करने जाए तो उसकी कलम की सच्चाई से डर। जनता का पैसा जनता पर खर्च करने से डर। इनका सबसे बड़ा नेता तो प्रेस कांफ्रेंस करने तक से डरता है! डर की भी कोई हद होती है या नहीं? अरे तुम इसी मिट्टी के बने हो? हमने तो बचपन में खूब लड़ी मर्दानी कविता पढ़ी थी। खूब डरे मर्दाने कविता नहीं पढ़ाई गई थी। पढ़ाई होती तो हम तुम्हारी कायरता के भी गीत गाते!
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इनके साहेब भी गजब। बीजेपी की राज्य सरकार के जमाने में झारखंड में आम सभा करने गए। आदेश होता है कि सभा में कोई काले कपड़े ही नहीं,काले जूते और काले मोजे तक पहन कर न आए। अब बताइए, कोई मोजे-जूते को भी काला झंडा बना कर विरोध में फहराने लगेगा, इसका इतना डर!
यह आदेश भी जारी करते कि काले बाल वाले भी न आएं क्योंकि कोई बालों का उपयोग भी काले झंडे की तरह कर सकता है! और आएं तो फिर नगपुरिया काली टोपी पहन कर आएं! कल तो तुम लोगों के काले रंग तक से डरोगे। उनके रंग का तो तुम कुछ कर नहीं पाओगे मगर तुम्हें डर रहेगा कि कोई अपनी चमड़ी के रंग को भी काला झंडा बना सकता है!
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अरे कायरों, सरकार तुम्हारी। पुलिस तुम्हारी। सेना, अर्धसैनिक बल तुम्हारे। प्रशासन तुम्हारा। न्याय तुम्हारा। चुनाव आयोग तुम्हारा। संसद का विशाल बहुमत तुम्हारा। कानून तुम्हारे, अध्यादेश तुम्हारे। मीडिया तुम्हारा। एनआईए, सीबीआई, ईडी तुम्हारी। घोटालेबाज तुम्हारे। फिर भी डर ही डर! बस ये संविधान, ये देश, इसके लोग तुम्हारे नहीं, बाकी सब तुम्हारा। ये लोकतंत्र तुम्हारा नहीं, बाकी सब तुम्हारा। प्रकृति किसी की नहीं होती वरना मौसम, हवा, सूरज, चांद, आकाश भी तुम्हारा हो जाता- बेच खाने के लिए!
इतना डर है तो घर बैठो! मालमत्ता तो खूब है तुम्हारे पास। तुम भी चैन से, हम भी। मगर तुम्हें तो सबकुछ अपनी मुट्ठी में चाहिए! काले झंडे दिखाने से, आलोचना और विरोध से, धरने और प्रदर्शन से, सड़क जाम और चक्का जाम से छवि बिगड़ने से ब्लडप्रेशर बढ़ाते रहोगे मगर घर पर चैन से नहीं बैठोगे। भारत के लोकतंत्र को कलंकित करते रहोगे, मगर चैन से घर में नहीं बैठोगे!
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कहते हो, इस सरकार ने वह कर दिखाया, जो सत्तर साल में नहीं हुआ था। बिल्कुल सही, 70 साल में आक्सीजन और अस्पतालों में बिस्तर के अभाव में सैकड़ों लोग पटापट मरे नहीं थे! बारोजगार इतनी बड़ी तादाद में बेरोजगार नहीं हुए थे। अर्थव्यवस्था गर्त में नहीं गई थी। सत्तर साल में देश बेचने का इतना बड़ा अभियान भी नहीं चला थ!
70 साल में ऐसा 'वीर' प्रधानमंत्री भी नहीं हुआ था, जिसे चीन का नाम लेने से कंपकंपी छूटती हो! जो अमेरिका में 'अबकी बार ट्रंप सरकार' का नारा लगाकर आता हो। सत्तर साल में इस देश के मुसलमान- हमारे अपने नागरिक- इतने डरते नहीं थे। सत्तर साल में भारत में कोई नीरो भी पैदा नहीं हुआ था। यह सब तुमने कर दिखाया। तारीफ करें इसके लिए तुम्हारी!
आखिरी बात लोगों से, लोकतंत्र से डरने वाला, देश का नेता नहीं हो सकता। सेठों-लुटेरों का अभिभावक हो सकता है। वह सबका सबकुछ हो सकता है, जनता का कुछ नहीं हो सकता!
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