हाल ही में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन यानी एआईएमआईएम ने उत्तर प्रदेश के आग़ामी विधान सभा चुनाव में सौ उम्मीदवार उतारने का ऐलान किया। इसके पीछे ओवैसी की चाहे जो मंशा हो लेकिन उनके इस फैसले का विरोध करना राजनीतिक दलों के हित में नहीं है। ऐसे में राजनीतिक पार्टियां आख़िर क्या करें?
उत्तर प्रदेश में फरवरी-मार्च 2017 में विधान सभा चुनाव होने हैं। हालांकि चुनाव में अभी छह महीने से ज़्यादा का वक़्त है लेकिन राज्य में चुनावी सरगर्मियां तेज़ हो गई हैं। इस बीच असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने ऐलान किया कि वह राज्य में सौ सीटों पर चुनाव लड़ेगी। वैसे, एआईएमआईएम राज्य में पहली बार विधान सभा चुनाव लड़ने नहीं जा रही है लेकिन जिस तरह का नज़दीकी मुक़ाबला बताया जा रहा है, ऐसे में सत्ता विरोधी वोटों में बंटवारे की आशंका जायज़ है। हालांकि इस ऐलान के पीछे राज्य की मुख्य दावेदार पार्टियों पर दबाव बनाने और उनको अपने ख़िलाफ बयान देकर चर्चा में आने की नीयत साफ दिखती है।
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ओवैसी की राजनीति?
2017 में हुए विधान सभा चुनाव में ओवैसी की एआईएमआईएम कुल अड़तीस सीट पर चुनाव लड़ी थी। इनमें उसे क़रीब दो लाख, पांच हज़ार वोट हासिल हुए थे। इनमें संभल सीट पर मिले 60426 वोट शामिल हैं जहां मौजूदा सांसद और समाजवादी पार्टी नेता शफीक़ुर्रहमान बर्क़ के पोते ज़ियाउर्रहमान उम्मीदवार थे। समाजवादी पार्टी ने उनको टिकट नहीं दिया तो वह एआईएमआईएम से चुनाव लड़ गए औऱ दूसरे स्थान पर रहे। ज़ाहिर 0.2% वोट पाने वाली पार्टी को कोई दल ज़्यादा अहमियत नहीं देगा लेकिन ओवैसी लगातार बयान देकर ऐसा माहौल बना रहे हैं मानो समाजवादी पार्टी या कांग्रेस ने उनसे गठबंधन नहीं किया तो वह खेल बिगाड़ देंगे।
खेल बिगाड़ने की हैसियत
पिछला अनुभव बताता है कि ओवैसी की राजनीति सेक्युलर राजनीति कर रहे दलों पर दबाव बनाने की रही है। इसकी दो बड़ी वजह हैं। एक तो ओवैसी को बीजेपी का वोटर कभी वोट नहीं करेगा। ज़ाहिर है ऐसे में उन्हें जो भी वोट लेने हैं सेक्युलर ख़ेमे से ही लेने हैं। वह तभी मिलेंगे जब एआईएमआईएम सेक्युलर दलों को निशाना बनाएगी और उनको मुसलमान मुद्दों पर घेरेगी। लेकिन यह सेक्युलर राजनीति करने वाले दलों के लिए दोहरा ट्रैप यानी शिकंजा है। या तो मुसलमान मुद्दों की अनदेखी का आरोप झेलें और अल्पसंख्यक वोट खोने का ख़तरा उठाएं या फिर दस पांच सीट पर समझौता कर लें और फिर अपने सेक्युलर वोटों को खोने का ख़तरा मोल लें।
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सेक्युलर वोट और मुसलमान
मुसलमानों का एक बड़ा तबक़ा सेक्युलर दलों को वोट करता रहा है। हालांकि वैचारिक तौर पर यह सब सेक्युलर नहीं हैं। इनमें कई जीत के समीकरण, उम्मीदवार से नज़दीकी और सत्ता में हिस्सेदारी पाने जैसे मुद्दों पर सेक्युलर ख़ेमे में रहे हैं। सेक्युलर ख़ेमे में भी मुसलमान किसी एक पार्टी से बंधकर नहीं रहा और सहूलियत के हिसाब से वोट देता रहा है। तक़रीबन यही हाल हिंदू वोटरों का भी है। न ही सभी सेक्युलर हैं और न ही सभी साम्प्रदायिक। लेकिन जिस तरह बीजेपी के नाम से मुसलमानों का एक तबक़ा बिदकता है ज़ाहिर हिंदुओं में भी ओवैसी ब्रांड राजनीति से बहुत से लोगों को असुविधा होती है। ऐसे में यदि कोई दल ओवैसी की पार्टी से समझौता करे तो यह वोटर या तो तीसरे के पास जाएगा या घर से निकलेगा ही नहीं। यह स्थिति बीजेपी के अलावा किसी और के लिए साज़गार नहीं है। कुल मिलाकर ओवैसी से निपटना मतलब रस्सी पर संतुलन बनाकर चलने से भी भारी काम है।
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क्या वोट कटवा हैं ओवैसी?
एक बात तो साफ है, बीजेपी चाहती है कि ओवैसी हर राज्य में चुनाव लड़ें। इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई किसी दल की बी या सी टीम है। चुनाव लड़ना सभी का राजनीतिक अधिकार है। कई पार्टियां सिर्फ वोट काटने या किसी को हराने के लिए चुनाव नहीं लड़तीं बल्कि दिल्ली में घर दफ्तर पाने की लालसा और राष्ट्रीय पार्टी का तमग़ा मिलने के फायदे ऐसा करने के लिए मजबूर करते हैं। राष्ट्रीय दल बनने के लिए सिर्फ चार लोकसभा सीट जीतने के अलावा चार राज्यों में छह फीसदी वोट ही तो पाना होता है।
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बिहार में 2020 में एआईएमआईएम को 1.2 फीसदी वोट मिले। इससे पहले 2019 में पार्टी को अपने गृह राज्य तेलंगाना में सिर्फ 2.7 फीसदी वोट मिले। महाराष्ट्र में पार्टी को दो विधान सभा सीटों पर जीत मिली जबकि सिर्फ 1.34 फीसदी वोटों से संतोष करना पड़ा। संसद में एआईएमआईएम के दो ही सदस्य हैं। पार्टी को अभी तक जहां भी सफलता मिली है वहां दूसरी पार्टी के बाग़ी उम्मीदवार या उन लोगों के सहारे मिली है जो पहले से सक्रिय राजनीति में हैं। ऐसे में राष्ट्रीय पार्टी बनने का सफर पार्टी के लिए अभी लंबा है। तब तक एआईएमआईएम न चाहकर भी वोट कटवा पार्टी ही कहलाएगी।
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दूसरे दलों के सामने रास्ता
ओवैसी जिस तरह ब्लैकमेल वाली राजनीति करते रहे हैं उससे सेक्युलर राजनीति करने वाली पार्टियों के सामने कम ही रास्ते हैं। इसके बावजूद कई ऐसी बात हैं जिनसे बचा जा सकता है। पहला तो उनके बयानों पर प्रतिक्रिया देने की ज़रुरत नहीं है। सत्ता पक्ष की तरफ झुकाव रखने वाले मीडिया घराने ओवैसी को बयानों को तूल देते रहेंगे और ग़ैर बीजेपी दलों के मुंह में सवाल ठूंसकर जबरन प्रतिक्रिया हासिल करने की कोशिश करते रहेंगे। इससे बचना बेहद ज़रूरी है। दूसरी बात है ओवैसी को वॉकओवर देना बंद करना होगा।
(इस लेख के लेखक सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा हैं।)
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