विचार

राहुल गांधी देश की उदारवादी राजनीति के स्वाभाविक नेता, कामयाबी से भरा है कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनका सफर

राहुल गांधी अपनी दादी इंदिरा गांधी के बाद पहले कांग्रेस अध्यक्ष हैं जिन्होंने संघ से खुलकर मोर्चा लिया है। राहुल गांधी खुलकर अपने भाषणों में जनता के बीच संघ एवं कांग्रेस की अलग-अलग विचारधाराओं का उल्लेख करते हैं। यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं है।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया कामयाबी से भरा है कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी का सफर

इस देश में किसी नेता की ऐसी अग्नि-परीक्षा नहीं हुई जैसी राहुल गांधी की हुई है। कई तरह के व्यंग्य एवं अपशब्दों के साथ संघ परिवार की सोशल मीडिया टीम ने राहुल गांधी की इच्छाशक्ति को तोड़ने की कोशिश की। स्वयं प्रधानमंत्री ने 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी एवं ‘शहजादे’ के बीच एक रण बना दिया था। हद तो यह है कि इस बार पांच राज्यों के चुनाव में जब मोदी के पास कुछ नहीं बचा तो उन्होंने इस चुनाव को ‘नामदार बनाम कामदार’ में बदलने का प्रयास किया। परंतु अंतत: राहुल गांधी इस अग्नि-परीक्षा में खरे उतरे। आज ही के दिन एक साल पहले 11 दिसंबर, 2017 को कांग्रेस ने राहुल गांधी को अपना अध्यक्ष नियुक्त किया था। ठीक एक साल बाद आज तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार बनवा कर उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि वह कांग्रेस को पुनर्जीवन देने में समर्थ हैं। केवल इतना ही नहीं, यह एक सच्चाई है कि पूरी कांग्रेस में राहुल अकेले ऐसे नेता हैं जो कांग्रेस को एक नया जीवन दे सकते हैं।

निस्संदेह 11 दिसंबर राहुल गांधी के राजनैतिक जीवन में स्तंभ के रूप में बना रहेगा। राहुल गांधी केवल अब कांग्रेस के शीर्ष नेता नहीं हैं, बल्कि वे इस देश की संपूर्ण उदारवादी एवं सेकुलर जनमानस की आशा हैं। भारत अपनी स्वतंत्रता के 71 वर्ष के इतिहास में जिस मोड़ पर आज खड़ा है, वह बेहद खतरनाक है। आज भारत के संविधान पर संघ की विचारधारा का साया है। हिंदुत्व के नाम पर देश की राजनीतिक विचारधारा ही नहीं, बल्कि संपूर्ण सांस्कृतिक आधार को बदलने की चेष्टा हो रही है। हिंदू धर्म एवं हिंदू समाज सदियों से उदारवादी मूल्यों पर आधारित संस्कृति रहा है। यह वह धर्म है जिसने हर धर्म का भारत में स्वागत किया। इस्लाम, ईसाई धर्म एवं पारसी मत विदेशों से आकर इस देश में न सिर्फ फले-फूले, बल्कि आज यह अपने आप में भारतीय आकार ले चुके हैं। स्वयं इस देश में जन्मे जैन, बौद्ध एवं सिख जैसे मतों को भारत ने विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया। ऐसे उदारवादी देश में कट्टरपंथी हिंदुत्व विचारधारा को थोप कर संघ एवं बीजेपी जो प्रहार कर रहे हैं, वह इस देश के इतिहास में एक बड़ी चुनौती है।

कई लोगों को कांग्रेस की राजनीति से मतभेद हो सकते हैं। परंतु इस समय में उदारवादी, वामपंथी एवं लोकतांत्रिक शक्तियों को इस बात में कोई संदेह नहीं हो सकता कि बीजेपी-संघ के खिलाफ वैचारिक संघर्ष में कांग्रेस की ही मुख्य भूमिका हो सकती है। इस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में आप यदि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की भूमिका पर निगाह डालें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि उनका काम और संघर्ष कितना कठिन रहा है। यह मत भूलिये कि इस देश का जनमानस काफी हद तक हिंदुत्व की ओर झुक चुका है। आज भारत ही नहीं, सारे संसार में जैसी नफरत की राजनीति का चलन है, उसका उदाहरण हाल के इतिहास में नहीं मिलता। तभी तो मोदी, ट्रंप जैसे नेताओं का संसार में वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। ऐसे माहौल में राहुल गांधी के लिए राजनीतिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि वैचारिक स्तर भी देश को मध्य मार्ग पर लाना बहुत कठिन है। परंतु कांग्रेस अध्यक्ष पद ग्रहण करने के बाद आप यदि राहुल गांधी के भाषणों पर निगाह डालें तो यह बहुत स्पष्ट दिखाई देता है कि उन्हें अपने वैचारिक दायित्व का पूरा एहसास है। राहुल गांधी निस्संदेह जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गांधी नहीं हैं। उनका कद इन नेताओं के मुकाबले अभी बहुत कम है। लेकिन राहुल गांधी अपनी दादी इंदिरा गांधी के बाद पहले कांग्रेस अध्यक्ष हैं जिन्होंने संघ से खुलकर मोर्चा लिया है। राहुल गांधी खुलकर अपने भाषणों में जनता के बीच संघ एवं कांग्रेस की अलग-अलग विचारधाराओं का उल्लेख करते हैं। यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। यह राहुल गांधी के निर्भीक नेतृत्व का तो प्रमाण है ही, साथ ही इससे यह पता चलता है कि वे देश में चल रहे इस वैचारिक संघर्ष को जनता तक ले जाकर आम आदमी को भी इस संघर्ष से जोड़ने की कोशिश में हैं। इसमें भी कोई शक नहीं कि पार्टी के दबाव में राजनीतिक स्तर पर उन्होंने कुछ समझौते किए। जैसे उनकी मंदिर यात्राओं के बाद उन पर ‘नरम हिंदुवादी’ का लांछन भी लगा। लेकिन इस बहस के बीच जब एक पत्रकार ने उनसे सवाल किया कि क्या आप हिंदुवादी हैं तो उनका जवाब था “नहीं, मैं हिंदुवादी नहीं, राष्ट्रवादी हूं।”

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राहुल गांधी ने निजी बातचीत से यह स्पष्ट होता है कि वह एक बौद्धिक व्यक्ति हैं। और उससे यह भी साफ होता है कि वह भारत के उदारवादी परंपरा से किसी प्रकार का समझौता करने को तैयार नहीं हैं। केवल कांग्रेस ही नहीं, बल्कि देश को इस समय एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जो देश के सांस्कृतिक उदार मूल्यों एवं आदर्शों का संरक्षण कर सके। निस्संदेह राहुल गांधी एक ऐसे ही नेता हैं। अच्छी बात यह है कि यह देश अब राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार कर रहा है। राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की विजय राहुल गांधी की विजय है। उन्होंने इन तीनों प्रदेशों में कांग्रेस का केवल नेतृत्व ही नहीं किया, बल्कि अपने नेतृत्व में पार्टी को एकजुट रखकर संघ जैसे संगठन के दांत खट्टे कर दिए।

अब देश के सामने 2019 के लोकसभा चुनाव के महासंग्राम की तैयारी है। यह स्पष्ट है कि इस रण में बीजेपी एवं संघ रणस्थल के एक ओर हैं तो कांग्रेस के नेतृत्व में तमाम उदारवादी पार्टियां दूसरी तरफ हैं। चंद्रबाबू नायडू और ममता बनर्जी जैसे क्षेत्रीय नेताओं के साथ मिलकर इन तमाम पार्टियों को इकट्ठा करने का काम इस सप्ताह दिल्ली में शुरू हो गया। इसमें भी शक नहीं कि इस रण के कमांडर राहुल गांधी ही होंगे। यह भी एक कठिन संघर्ष है। परंतु 2004 से लेकर 2048 तक राहुल गांधी का राजनीतिक जीवन अपार संघर्ष से भरा हुआ है। ‘शहजादा’ एवं ‘नामदार’ जैसे व्यंग्य एवं संघ की ट्रोल आर्मी प्रहार से गुजर कर राहुल गांधी अब ऐसे स्थान पर पहुंच चुके हैं जहां से उनको पीछे नहीं, बल्कि आगे ही जाना है। तीन हिंदी भाषी राज्यों में कांग्रेस की विजय के बाद 2019 अब राहुल गांधी का ही वर्ष दिखाई देता है। 11 दिसंबर. 2017 से 11 दिसंबर, 2018 तक केवल एक वर्ष की अवधि में राहुल गांधी का सफर सिर्फ चौंकाने वाली ही नहीं, बल्कि कामयाबियों से भरा रहा है। यह राहुल गांधी और देश की उदार राजनीति के लिए शुभ संकेत है।

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