विचार

रिटायर होने से पहले कुछ सवालों के जवाब देकर जाएं मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार

ईवीएम से जुड़े सवालों को अलग भी कर दिया जाए, तब भी राजीव कुमार को उनके जवाब देने ही चाहिए जो बार-बार उठे हैं। दरअसल चुनाव आयोग ने सवालों पर पर्दा डालने का काम किया है। चुनाव के नियम 93(2)  में संशोधन कर दिया गया है ताकि दस्तावेज सार्वजनिक न करने पड़ें।

मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार (फोटो: Getty Images)
मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार (फोटो: Getty Images) Hindustan Times

 अगले महीने मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार रिटायर हो रहे हैं। जब भी उनसे प्रेस कांफ्रेंस में सवाल पूछे जाते हैं, वह शेरो-शायरी से जवाब देते हैं। सुनते हैं कुछ तुकबंदी भी कर लेते हैं। लेकिन क्या उम्मीद की जाए कि उनके पदासीन होते हुए चुनाव आयोग की साख पर जो सवाल उठे हैं, उनका सीधा जवाब मिलेगा? फिलहाल अगर ईवीएम में हेराफेरी की आशंका से जुड़े सवालों को अलग भी कर दिया जाए, तब भी पद छोड़ने से पहले राजीव कुमार कम-से-कम उन दो बड़े सवालों का जवाब दें जो पिछले कुछ महीनों में बार- बार उठे हैं। उन्हें उठाने वालों ने सिर्फ शक ही जाहिर नहीं किया बल्कि पुख्ता सबूत भी जुटाए हैं। 

पहला सवाल मतदाता सूची में हेराफेरी को लेकर है। देश के हर वयस्क व्यक्ति को मतदान का अधिकार मिले और कोई भी नागरिक इस अधिकार से वंचित न किया जा सके, इस उद्देश्य से बहुत विस्तृत और अच्छे नियम और कानून हैं। सवाल यह है कि क्या इन नियमों को ताक पर रखकर चुनाव आयोग की नाक के नीचे भाजपा द्वारा अपनी सरकारों से मिलीभगत कर बड़ी संख्या में अपने विरोधियों के वोट कटवाए गए और बोगस वोट जोड़े गए?

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यह सवाल सबसे बड़े पैमाने पर महाराष्ट्र में उठा है। पिछले साल अप्रैल-मई में हुए लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में कुल मतदाता 92.9 करोड़ थे लेकिन नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान मतदाताओं की संख्या बढ़कर 97 मिलयन हो गई। सवाल उठता है कि छह महीने के भीतर और वह भी लोकसभा चुनाव में मतदाता सूची में हुए संपूर्ण संशोधन के बाद कोई 4.1 लाख की बढ़ोतरी कैसे हुई। यानी हर विधानसभा क्षेत्र में लगभग 14,400 नए वोटर कैसे जुड़े? जनसंख्या वृद्धि के हिसाब से इस अवधि में ज्यादा से ज्यादा 700,000 लाख नाम जुड़ने चाहिए थे।

कांग्रेस नेता प्रवीण चक्रवर्ती ने एक और सवाल पूछा है। सरकार के अपने आंकड़ों के हिसाब से 2024 में महाराष्ट्र की कुल वयस्क जनसंख्या ही 95.4 मिलियन थी जबकि राज्य विधानसभा चुनाव के लिए आधिकारिक मतदाता संख्या 97 मिलयन थी। अमूमन मतदाताओं की संख्या वयस्क जनसंख्या से कम रहती है क्योंकि चुनाव आयोग हर व्यक्ति का नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं कर पाता है। ऐसे में मतदाता सूची का वयस्क जनसंख्या से अधिक होना एक ऐसा अजूबा है जो शक को जन्म देता है।

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मामला सिर्फ महाराष्ट्र का ही नहीं है। ‘न्यूजलांड्री’ की पत्रकार सुमेधा मित्तल ने उत्तर प्रदेश के उन दो संसदीय क्षेत्रों फर्रुखाबाद और मेरठ की पड़ताल की जहां बीजेपी बहुत कम मतों से लोकसभा चुनाव जीती थी। दोनों क्षेत्रों में उनकी रिपोर्ट ने यह साबित किया है कि बीजेपी की जीत के फैसले से ज्यादा संख्या में वहां चुनाव से एकदम पहले वोट काटे गए थे। वोट उन्ही बूथों पर काटे गए थे जहां पिछले चुनाव में बीजेपी को बहुत कम वोट मिले थे और जहां यादव और मुस्लिम वोटर की बहुतायत थी। इसी तरह बीजेपी के दबदबे वाले बूथों पर बड़ी संख्या में फर्जी पते वाले बोगस वोट भी जुड़े। इस जांच ने यह भी पाया कि वोट काटते समय चुनाव आयोग द्वारा तय नियमों को ताक पर रख दिया गया था, बड़ी संख्या में वोट काटने वाले कर्मचारियों ने इसका कारण “ऊपर से दबाव” बताया।

‘द स्क्रॉल’ की जांच में भी यही बात सामने आई। आम आदमी पार्टी ने यह सवाल दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले ही उठाना शुरू किया है और यह आरोप लगाया है कि एक विधानसभा क्षेत्र में भाजपा दस हजार से अधिक नाम कटवा रही है। ऐसे में राजीव कुमार की नैतिक और संविधानिक जिम्मेदारी है कि रिटायर होने से पहले लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में मतदाता सूची के हर परिवर्तन पर श्वेत पत्र जारी करें।

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दूसरा और भी ज्यादा गंभीर सवाल चुनाव परिणाम को लेकर है। लोकसभा चुनाव के बाद परिणाम के आंकड़ों को लेकर अनेक सवाल उठाए गए। सवाल यह था कि चुनाव आयोग द्वारा मतदान वाले दिन शाम को दिए गए और अंतिम मतदान के आंकड़ों में इतना अंतर क्यों है, मतदान के अंतिम आंकड़े इतनी देरी से और वह भी अधूरे क्यों दिए गए? चुनाव आयोग ने इन सब सवालों से यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि मतदान की सारी सूचना फॉर्म 17C में दर्ज होती है और उसकी कॉपी पार्टियों को दी जाती है। लेकिन जब सूचना के अधिकार के तहत फॉर्म 17C को सार्वजनिक करने की मांग हुई, तो चुनाव आयोग चुप्पी लगा गया।

उसके बाद दो और ठोस सवाल उठे हैं। पिछले तीन दशकों से चुनावी पारदर्शिता पर काम कर रही संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म ने आंकड़े जारी कर पूछा कि चुनाव आयोग के अनुसार ईवीएम में जितने वोट डाले गए और ईवीएम के मतों की गिनती में (पोस्टल मत को छोड़कर) जितने वोट गिने गए, उसमे अंतर क्यों है? यह अंतर एक दो नहीं 543 में से 536 चुनाव क्षेत्रों में पाया गया। कई क्षेत्रों में तो जितने वोट पड़े थे, उससे ज्यादा गिने गए! हाल ही में ओडिशा में बीजू जनता दल ने चुनाव आयोग के सामने एक और बड़ी विसंगति रख उसका जवाब मांगा है।

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ओडिशा में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक  साथ हुए थे, एक ही वोटर ने एक ही जगह दो मशीनों में दो वोट डाले थे। जाहिर है दोनों वोट की संख्या एक समान होनी चाहिए थी। लेकिन एक दो जगह नहीं सभी 21 संसदीय क्षेत्रों में लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों के वोट में फर्क है। ढेंकनाल में यह अंतर 4,000 वोट से अधिक है। बीजू जनता दल ने बाकायदा फॉर्म  17C के आंकड़े पेश कर उसमें और गिने गए वोट में अंतर का प्रमाण पेश किया है। मतदान की रात के बाद मतदान के आंकड़ों के बदलाव पर सवाल उठाया है।

इन मुद्दों पर पारदर्शिता से काम लेने की बजाय चुनाव आयोग ने तमाम सवालों पर पर्दा डालने का काम किया है। यही नहीं, चुनाव के नियम 93(2)  में संशोधन कर दिया गया है ताकि चुनाव आयोग को चुनाव संबंधी सारे दस्तावेज सार्वजनिक न करने पड़ें। अब सरकार और चुनाव आयोग तय करेंगे कि उन्हें क्या सूचना सार्वजनिक करनी है और क्या नहीं। मतलब दाल में कुछ काला है। राजीव कुमार के रिटायर होने से यह सवाल रिटायर नहीं होंगे।

(साभारः नवोदय टाइम्स)

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