
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत की मौजूदगी में राम मंदिर (जिसका उद्घाटन कुछ साल पहले हुआ था ) के शिखर पर झंडा फहराते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि यह ध्वजारोहण इस बात का प्रतीक है कि राममंदिर का निर्माण पूर्ण हो गया है। उन्होंने कहा कि "सदियों पुराने जख्म भर रहे हैं, राहत महसूस हो रही है और सैकड़ों साल पहले लिए गए संकल्प पूरे हो रहे हैं!"
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उन्होंने राम का नाम कई बार लिया और एक ऐसे देश की स्थापना का आव्हान किया जो हमारे अंतर्मन में विराजे राम और रामराज्य की परिकल्पना से प्रेरित हो। इस कार्यक्रम से समाज के कुछ वर्गों में जश्न का माहौल बना और मोदी के संगी-साथी काशी, मथुरा, संभल और अन्य मंदिरों के निर्माण की योजनाएं बनाने लगे। राम से प्रेरणा लेने का आव्हान करते हुए और मुस्लिम राजाओं द्वारा दिए गए जख्मों की ओर इशारा करते हुए प्रधानमंत्री ने लार्ड मैकाले द्वारा स्थापित की गई शिक्षा प्रणाली की भी चर्चा की जिसने हम में हीनता का भाव और स्थाई औपनिवेशिक मानसिकता पैदा कर दी।
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जहां वे यह कह रहे हैं कि मंदिरों के निर्माण से सदियों पुराने जख्मों की पीड़ा में कमी आई है, वहीं भारत के सामाजिक एवं आर्थिक सूचकांकों में तेज गिरावट आ रही है और वैश्विक स्तर पर धार्मिक, अभिव्यक्ति, प्रेस की स्वतंत्रता सहित अन्य पैमानों पर भारत की स्थिति बदतर होती जा रही है।
लगभग उसी समय प्रधानमंत्री के संगी-साथी ( जो राजस्थान में सत्ता पर काबिज हैं) 6 दिसंबर को शौर्य दिवस मनाए जाने के मुद्दे की चर्चा कर रहे थे। यह वह दिन था जिस दिन संघ परिवार ने बाबरी मस्जिद को ढ़हा दिया था। इस दिन को मोदी के विश्व हिन्दू परिषद के सहयोगी शौर्य दिवस के रूप में मनाते हैं। उनकी दृष्टि में बाबर द्वारा मंदिर तोड़ने और उस स्थान पर मस्जिद बनाने का 'गढ़ा गया आख्यान‘ हिंदुओं के लिए एक जख्म की तरह रहा है. इस आख्यान को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में सही नहीं बताया है और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निष्कर्षों के तथ्यात्मक विश्लेषण से भी इस नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता।
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सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्तियां रखना एक जुर्म था। वीएचपी/आरएसएस ने एक वीडियो पेश किया जिसमें दिखाया गया था कि 23-24 दिसंबर की आधी रात को भगवान राम मस्जिद में प्रकट हुए। अपने प्रसिद्ध वृत्तचित्र ‘राम के नाम‘ में आनंद पटवर्धन ने महंत राम शरण दास का एक साक्षात्कार लिया है जिसमें दास बताते हैं कि उन्होंने कुछ अन्य लोगों के साथ मिलकर वहां मूर्ति रखी थी, उन्हें गिरफ्तार किया गया और बाद में उन्हें जमानत मिली। उनके अनुसार जिला मजिस्ट्रेट के. के. नैयर, जो बाद में भाजपा के पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ से सासंद बने, मूर्तियां रखवाने में सबसे बड़े सहयोगी थे।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह भी कहा कि जो भी मस्जिद के विध्वंस से जुड़े हुए थे वे सभी दोषी हैं। इनमें देश को बांटने में अग्रणी लालकृष्ण अडवाणी, एमएम जोशी एवं उमा भारती भी शामिल थे. इन्हें दंडित नहीं किया गया. अडवाणी की रथयात्रा के पूरे मार्ग में मुस्लिम-विरोधी हिंसा हुई। मस्जिद ढहाए जाने के बाद दुबारा देश के कई हिस्सों में जबरदस्त अल्पसंख्यक विरोधी हिंसा हुई, जिसका भीषणतम रूप मुंबई, सूरत और भोपाल में देखा गया।
हिंसा और उसके परिणामस्वरूप हुए ध्रुवीकरण से बीजेपी को अभूतपूर्व चुनावी लाभ हुआ और अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केन्द्र में उसकी सरकार कायम हुई। बाद में दस साल की गैर-भाजपाई सरकार के बाद मोदी अच्छे दिन, विकास और विदेशों से काला धन वापिस लाने और उस राशि में हर व्यक्ति को 15 लाख रूपये देने और हर साल 2 करोड़ रोजगार देने के वायदे के साथ सत्ता पर काबिज हुए।
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सारे वायदे महज जुमले थे, जैसा कि मोदी की सेना के उपसेनापति अमित शाह ने स्वयं स्वीकार किया। देश के आम लोग भयावह आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं और मुफ्त मिलने वाले 5 किलो राशन पर जिन्दा हैं।
प्रधानमंत्री खुश हैं कि संघ परिवार द्वारा निर्मित नैरेटिव ( जिसे सरकार की शान में कसीदे काढने वाले मीडिया ने जबरदस्त हवा दी) ने समाज के एक बड़े और विविध हिस्से को गहरे तक प्रभावित किया है और अब मोदी जी यह कह सकते हैं कि भारत में रामराज्य का आगाज़ हो गया है। मोदी की राजनीति मुख्यतः शब्दों की बाजीगरी है। भगवान राम को अलग-अलग लोगों ने अपने-अपने तरीके से देखा। कबीर उन्हें कण-कण में व्याप्त एक भाव मानते थे। बीसवीं सदी के महानतम हिन्दू महात्मा गांधी ने 1929 में कहा था, "रामराज्य से मेरा तात्पर्य हिंदू राज्य नहीं हैं बल्कि ईश्वरीय राज्य से, भगवान के राज्य से है....मेरे लिए राम और रहीम एक बराबर हैं। मैं सत्य और सदाचार के अतिरिक्त कोई और ईश्वर स्वीकार्य नहीं है.... रामराज्य का प्राचीन आदर्श निस्संदेह एक सच्चा लोकतंत्र है जिसमें क्षुद्रतम नागरिक भी लंबी-चौड़ी और महंगी प्रक्रिया के बिना शीघ्र न्याय पा सकता है।”
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मोदी का रामराज्य, रहीम के अनुयायियों से नफ़रत पर आधारित है। वह न्याय की अवधारणा के खिलाफ है। अयोध्या मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय 'लोकविश्वास' पर आधारित था, जिसे इस अंधाधुंध प्रचार के जरिए गढ़ा गया था कि भगवान राम का जन्म ठीक उसी स्थान पर हुआ था जहाँ बाबरी मस्जिद थी। यह इस तथ्य के बावजूद कि सन 1885 में अपने निर्णय में अदालत ने कहा था कि वह ज़मीन सुन्नी वक्फ बोर्ड की सम्पति है। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का अयोध्या मामले में फैसला क़ानून पर नहीं बल्कि भगवान द्वारा सपने में उन्हें दिए गए निर्देशों पर आधारित था क्योंकि इस बात का कोई सुबूत नहीं है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण राममंदिर को तोड़ कर किया गया था।
हमारा देश एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है जिसे धार्मिक कार्यकलापों को धर्मगुरुओं पर छोड़ देना चाहिए। मगर हमारे गैर-जैविक प्रधानमंत्री शासक भी है, और पुजारी भी। वे योगी भी हैं और सरकार भी। यहां यह दोहराना समीचीन होगा कि तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन अपनी व्यक्तिगत हैसियत से किया था, भारत के राष्ट्रपति बतौर नहीं।
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महात्मा गांधी के चेले नेहरु ने भाखड़ा-नंगल बांध का उद्घाटन करते हुए "मंदिर" शब्द को पुनर्परिभाषित किया था। उन्होंने कहा था कि बांध, आधुनिक भारत के मंदिर हैं। मगर हमारे आज के शासकों के लिए मंदिरों का निर्माण एक राष्ट्रीय परियोजना बन गई है। आरएसएस के मुखिया के यह कहने के बावजूद कि हमें हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग नहीं खोजना चाहिए, ठीक यही काम बदस्तूर जारी है। सदियों से जो समुदाय हाशिये पर रहे हैं, उनके साथ न्याय करने का काम अधूरा पड़ा हुआ है। वर्तमान शासक भारत के संविधान को कमज़ोर करना चाहते हैं – उस संविधान को जो भारत को स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा स्थापित करने की राह पर चलने की बात करता है।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसाइटी एंड सेकुलरिज्म के अध्यक्ष हैं)
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