आज के दौर में मनुष्य ने विकास के नाम पर अपनी गतिविधियों से लगभग पूरी पृथ्वी का भूगोल बदल कर रख दिया है। आज हम हरेक जगह को, अपनी धरोहर समझने वाले सागर तट को, नदियों को, भूमि को और पहाड़ों को अपनी सुविधा के अनुसार बदलते जा रहे हैं। हालत तो यहाँ तक पहुँच गयी है कि अब इस विकास के क्रम में अंतरिक्ष और सुदूर टिमटिमाते ग्रह भी आ गए हैं।
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प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में सबसे अधिक नुकसान नदियों को पहुंचा है। नदियों से मनुष्य का नाता सभ्यता के विकास के समय से रहा है, और उसी समय से इनका दोहन भी आरम्भ हो गया था, पर आज के दौर में तो नदियों पर प्रकृति का नहीं बल्कि मनुष्य का ही नियंत्रण है।
प्रतिष्ठित वैज्ञानिक जर्नल, ‘नेचर’ के नवीनतम अंक में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार दुनिया में जितनी भी बड़ी नदियाँ हैं, उनमें से लगभग दो-तिहाई अब स्वच्छंद तौर पर नहीं बहतीं। इसके प्रभाव से नदियों में सेडीमेंट का परिवहन, मछलियों और दूसरे जीवों का जीवन और पारिस्थितिकी तंत्र में नदियों का महत्व कम होता जा रहा है।
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वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फण्ड और मोंट्रियल स्थित मैकगिल यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञों ने दुनिया की नदियों पर विस्तृत अध्ययन कर यह बताया है कि दुनिया में 1000 किलोमीटर से लम्बी 246 नदियों में से महज 90 ही स्वच्छंद तौर पर बहती हैं और ये सभी आर्कटिक, अमेज़न, और कांगो के क्षेत्र में स्थित हैं। ये सभी क्षेत्र ऐसे हैं, जहां अभी तक हमारे विकास का दौर बड़े पैमाने पर शुरू नहीं हुआ है।
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इस दल ने दुनियाभर में फ़ैली नदियों के 1.2 करोड़ लम्बे मार्ग का बारीकी से अध्ययन किया है और इसके लिए नदियों के उपग्रह से खींचे गए या फिर वायुयानों से खींचे गए चित्रों का सहारा लिया। दुनिया में बड़ी नदियों पर 60000 से अधिक बाँध हैं और 3700 से अधिक बांधों का निर्माण कार्य चल रहा है। इसका मतलब है कि और अधिक नदियाँ अब बांधी जा रही हैं।
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नदियों की सुरक्षा सतत विकास का एक पहलू है, जिसकी बात तीन दशक से लगातार की जा रही है। पर दुखद तथ्य यह है कि नदियाँ मरती जा रही है। स्वच्छंद बहने वाली नदी का मतलब यह है कि इसके उद्गम से निकला पानी भी समुद्र में मिले, पर बांधों, जलाशयों और नहरों ने नदी के बहाव को बाधित किया गया है, इसका मार्ग बदला गया है और जलीय जीवों के अस्तिस्त्व का संकट खड़ा कर दिया गया है। यही कारण है कि भूमि और महासागरों के जीवन की तुलना में मृदुजल में पनपने वाले जीवों में विलुप्तीकरण की दर दुगुनी से अधिक है।
वर्ष 1970 के बाद से मृदुजल में पनपने वाला 83 प्रतिशत जीवन विलुप्त हो चुका है। दूसरी तरफ दुनिया की 2 अरब से अधिक आबादी पानी के लिए सीधे तौर पर नदियों पर निर्भर है और इससे प्रतिवर्ष 1.2 करोड़ टन मछलियाँ निकाली जाती हैं, जिसपर बहुत बड़ी आबादी निर्भर है।
इस अध्ययन के अनुसार नदियों की समस्या केवल बाँध, बैराज या नहरें ही नहीं हैं, बल्कि नदियों के किनारों से छेड़छाड़, बाढ़ से बचाव के नाम पर बनाए गए बाँध और अंधाधुंध जल निकासी भी बड़ी समस्या है और ये सभी बहाव को प्रभावित करते हैं।
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हमारे देश में नदियों का जितना अपमान किया गया है, सम्भवतः ऐसा दुनिया में कहीं नहीं किया जाता। अहमदाबाद में साबरमती को एक नहर में परिवर्तित कर दिया गया और इसे एक ऐसे मॉडल के तौर पर प्रचारित किया गया, जिसका अनुसरण अनेक नदियों के अस्तित्व पर ही प्रश्न खड़ा कर गया। लखनऊ में आप गोमती नदी को देखिये, और फिर सोचिये कि आप कोई नहर देख रहे हैं या नदी?
इसी तरह दिल्ली में यमुना के डूबक्षेत्र में अक्षरधाम बनाना था तो आनन-फानन में बाढ़ के प्रकोप से बचाने के लिए एक बांध बना दिया गया। अक्षरधाम तो सुरक्षित हो गया पर नदी को क्या नुकसान हुआ इसका आकलन किसी ने नहीं किया। बनारस का उदाहरण तो सबके सामने है। गंगा को साफ़ करने के नाम पर घाटों पर खूब निर्माण कार्य किया गया और मलबा नदी में डाल दिया गया। इसके प्रभाव से जो गंगा घाटों से होकर बहती थी, वह अब दूर चली गयी और घाट सीढ़ियों का एक वीरान ढांचा बन कर रह गए।
आश्चर्य तो यह है कि नदियों का महत्व मानव सभ्यता के विकास के दौर में ही समझा गया था पर धीर-धीरे इसे हम भूल गए और अपनी धरोहर मान बैठे। इस पर हमने अपना मालिकाना हक़ समझ लिया और फिर इसे बर्बाद करते चले गए। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि नदियों को हमने अपनी जीवन-रेखा नहीं समझा बल्कि उसकी जीवन-रेखा हम बन गए। हम अपनी मर्जी से नदियों को मारते हैं, या फिर उसे जिन्दा रखते है।
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