लव जिहाद का हौवा पूरे समाज में खड़ा किया जा रहा है। कैसे, यह हमारे सामने है। आए दिन सरकार और पार्टी के प्रभावशाली लोग, इसकी बात करते दिख जाते हैं। सवाल उठता है क्यों, तो इसकी बड़ी साफ सी वजह है- हिन्दुओं को ध्रुवीकृत करने के लिए। लेकिन जब बात रिकॉर्ड पर रखने की आती है तो सरकार का रुख बदल जाता है। 4 फरवरी, 2020 को केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री जी. कृष्ण रेड्डी ने लोकसभा में कहा- न तो शब्द ‘लव जिहाद’ मौजूदा कानूनों के तहत परिभाषित किया गया है और न ही किसी भी सेंट्रल एजेंसी ने लव जिहाद का कोई मामला दर्ज किया है।
लोकसभा में सरकार ने जो कहा, वह स्वाभाविक ही समझ में आने वाली बात है। भारत दुनिया का ऐसा देश है जहां उदारवादी और संपन्न लोग भी अपनी उपजातियों में ही विवाह करते हैं और ऐसे में यह सोचना भी बेतुका है कि यहां किन्हीं दो धार्मिक समुदायों के बीच बड़ी तादादमें शादी हो रही है। इसके बावजूद कुछ ही दिन पहले हरियाणा लव जिहाद के खिलाफ कानून बनाने वाला सातवां बीजेपी शासित राज्य बन गया है। सवाल यह उठता है कि एक ऐसी घटना के खिलाफ कानून क्यों बनाए जा रहे हैं जो मौजूद ही नहीं है? जाहिर तौर पर इसका यही जवाब है कि ताकि भारतीय समाज को विभाजित रखते हुए उसमें तनाव को बनाए रखा जाए। बीजेपी की सबसे बड़ी सियासी पूंजी देश के राजनीतिक माहौल में जहर घोलने की उसकी कभी शांत न होने वाली भूख है।
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हालिया विधानसभा चुनावों में बीजेपी को जो बेहतरीन नतीजे मिले, यह उसी भूख की वजह से हो सका। देश-समाज बंटा रहा और इसका फायदा बीजेपी को सियासी तौर पर मिला। फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के जरिये बीजेपी, उससे संबंधित संगठन तथा उनके समर्थक जिस तरह का माहौल बना रहे हैं, वह सबके सामने है। जो लोग बीजेपी का विरोध कर रहे हैं, उनका कहना है कि सरकारी आंकड़ों से परिभाषित अर्थव्यवस्था और बेरोजगारी की स्थिति अपने आप में एक घटिया प्रदर्शन दिखाती है इसलिए शासन पार्टी की लोकप्रियता का आधार नहीं हो सकता। जो लोग पार्टी का समर्थन करते हैं, उनका दावा है कि कल्याण योजनाओं से सीधे लाभ मिलने की वजह से बीजेपी को चुनावी सफलता मिली।
अगर ऐसा ही है तो बीजेपी उसी पर ध्यान केन्द्रित करके सांप्रदायिक राजनीति से बाज नहीं आ जाती? इसका जवाब है नहीं क्योंकि वह ऐसा करना ही नहीं चाहती। और वह इस वजह से ऐसा नहीं करना चाहती कि उसे पता है कि उसकी लोकप्रियता का आधार क्या है। भविष्य में इस तरह की और चीजों के लिए हमें खुद को तैयार करना होगा। हमारे लिए सबसे बड़ा सवाल यही है कि बीजेपीऔर इसके नेताओं की लोकप्रियता और उनके प्रभाव को देखते हुए अगले कुछ साल हमारे लिए कैसे रहने वाले हैं? बीजेपी आज अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए चार तरह की चीजों का इस्तेमाल कर रही है।
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सबसे पहले कानून के जरिये। बीजेपी शासित राज्य 2014 से ही मुस्लिमों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को निशाना बना रहे हैं। किसी के पास से बीफ मिल जाए तो अपराध। किसी को तलाक-तलाक-तलाक कह दो तो अपराध। ऐसी स्थिति आ गई है कि हिन्दू बस्तियों में मुस्लिमों को न तो कोई किराये पर घर दे रहा है और न ही उन्हें खरीदने दे रहा है। गुजरात में तो यह कानून है कि घर को बेचते वक्त पड़ोसी की राय जरूरी है। बीजेपी शासित राज्यों ने इस तरह का माहौल बना दिया है। वहीं केन्द्र की बीजेपी सरकार ने नागरिकता कानून के मामले में मुस्लिमों के साथ भेदभाव किया है।
दूसरा तरीका नीतियों के जरिये है। कर्नाटक में हिजाब पर प्रशासनिक प्रतिबंध लगा दिया जाता है। गुजरात के चार शहरों में खाने-पीने के स्टॉल से अंडे और मांस पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। गुड़गांव में प्रवासी मुस्लिम मजदूरों को नमाज के लिए आवंटित जगह को रद्द कर दिया जाता है। इन घटनाओं पर गौर कीजिए, ये क्या बताती हैं?
तीसरा तरीका है राजनीतिक बहिष्कार। बीजेपी मुसलमानों को नहीं चाहती और यह बात बड़े सपाट शब्दों में उन्हें बता भी देती है। द हिन्दू अखबार के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में बीजेपी के 1,000 विधायकों में से केवल 4 मुस्लिम थे लेकिन मेरे अंदाज से यह तादाद अब तो सिर्फ 1 रह गई है। लोकसभा में तो पार्टी का एक भी मुस्लिम सांसद नहीं ही है।
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चौथा तरीका है अपने नेताओं और सहयोगियों द्वारा मुसलमानों के खिलाफ बयानबाजी कराना और यहां तक कि उनके खिलाफ हिंसा के लिए उकसाना। यह काम होता तो रहा ही है, ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने इसे कई गुना बढ़ा दिया है।
बीजेपी को जो राजनीतिक सफलता मिली है, उसके पीछे इन्हीं चार रणनीतियों का हाथ है। और हमें मानकर चलना चाहिए कि आने वाले समय में यही सब बरकरार रहने वाला है। लेकिन कब तक? यह एक टेढ़ा सवाल है। कागजों पर तो भारत अब भी एक बहुलवादी और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र है। यह बीजेपी पर कुछ तो बंदिशें लगाता है। विपक्ष बेशक कमजोर है लेकिन है। न्यायपालिका ढुलमुल है लेकिन वैसे यह स्वतंत्र है और संवैधानिक और मानवाधिकारों की रक्षा करने की क्षमता रखती है। नागरिक समाज पस्त है लेकिन यह नहीं कह सकते कि वह जीवंत नहीं है। गलत रास्ते पर जाने से रोकने की उम्मीद जगाने वाले ये साधन हैं। जो लोग भी अपने आसपास हो रही चीजों से निराश हैं, उन्हें इन बातों पर गौर करना चाहिए।
हम एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था से जुड़े हुए हैं जहां हम एक प्रमुख ताकत नहीं हैं और जहां हम अपनी आवाज में वजन डालना चाहते हैं। इससे भी हम पर अंकुश लगता है और हम अपने आंतरिक मामलों में भी उतना ही कर सकते हैं जितने में दुनिया का ध्यान हम पर केन्द्रित न हो जाए। ये सब सकारात्मक पक्ष हैं।
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इसका बुरा पक्ष यह है कि आज हम जितने बंटे हुए हैं, उसे स्वीकार करना होगा। हमें निश्चित रूप से उम्मीद करनी चाहिए कि यह विष किसी ठोस भौतिक रूप में हमारे बीच में न आ जाए। लेकिन हमारा इतिहास तो यही सीख देता है इस तरह की उम्मीद बेमानी है। एक बार जब यह जिन्न बोतल से निकल जाता है तो उसे वापस बंद करना मुश्किल होता है। हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि आखिर विफलता का इनाम क्यों दिया जा रहा है। सरकारी आंकड़े ही कहते हैं कि 2014 की तुलना में आज कम लोगों के पास काम है, प्रति व्यक्ति जीडीपी में हम बांग्लादेश से भी पिछड़ चुके हैं और 60% आबादी को मुफ्त अनाज दिया जा रहा है क्योंकि उनके लिए जीवित रहने के लिए यह जरूरी है। यह असफलता का जीता-जागता नमूना है। उसके बाद भी चुनाव में इस तरह की सफलता? हमें भविष्य में इस हकीकत के साथ रहने के लिए तैयार रहना होगा। कब तक के लिए? यह वास्तव में अहम सवाल है। इसका जवाब यह है कि जब तक ज्यादातर लोगों को यह महसूस न होने लगे कि आर्थिक बर्बादी की कीमत पर सांप्रदायिक बंटवारे के लिए उन्हें वोट नहीं देना चाहिए।
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यह मान लेना तर्कसंगत है कि एक न एक समय ऐसा ही होगा। लेकिन वह समय कब आएगा? शासन में गिरावट और सांप्रदायिकता में वृद्धि- दोनों की ही रफ्तार तेज है। वे हमें किसी निर्णायक मोड़ की ओर ले जा रहे हैं। कई मायनों में बाहरी दुनिया भी एक कारक है। यह मेरी अगली पुस्तक का विषय है और मेरे विचार से हमें अधिक से अधिक और एक दशक तक इसी तरह के दौर से गुजरना पड़ सकता है। उसके बाद चीजें बेहतर होंगी क्योंकि जिस तरह के मध्ययुगीनवाद से भारत गुजर रहा है, आधुनिकता उसके लिए बेहद क्रूर होती है और उसे खत्म कर देती है।
(लेखक एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया प्रमुख हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
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