विचार

विष्णु नागर का व्यंग्य: 72 साल के एक अंकल अपने को 27 का दिखाने के लिए कर रहे खूब मशक्कत, लेकिन...

हमारे शहर में 72 साल के एक अंकल जी हैं, जो अपने को 27 का दिखाने के लिए खूब मशक्कत करते हैं। उन्होंने अपनी ऊर्जा शरीर को फिटफाट रखने में इतनी अधिक खर्च कर दी कि उनके पास बौद्धिक फिटनेस के लिए समय और शक्ति नहीं बची।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

मैं एक अंकल जी हूं। आप भी हो सकता है अंकल जी या आंटी जी में से एक हों। हम अंकल जी और आंटी जी लोग भांति-भांति प्रकार के होते हैं। कुछ ऐसे होते हैं, कुछ वैसे। कुछ वैसे होकर भी कभी- कभी ऐसे हो जाते हैं और कुछ ऐसे होकर भी यदाकदा वैसे हो जाते हैं मगर हमारा मूल गुण- धर्म नहीं बदलता क्योंकि हम प्रथमत: और अंततः अंकल जी और आंटी जी हैं। हम समय के साथ बदलने वाले, मौकापरस्त लोग नहीं हैं। हममें से कुछ उम्र से ज्यादा बड़े, कुछ छोटे, कुछ नन्हे-मुन्ने बच्चे बने रहते हैं। हमें हास्यास्पद होने से कोई परहेज़ नहीं। 

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हममें से कुछ के मुंह में दांत नहीं, पेट में आंत नहीं होती मगर फैशन में छोरे-छोरियों को मात देते हैं। मुंह पे झुर्रियां हैं मगर बाल काले करने का शौक गया नहीं। कुछ अपने को सोलह, कुछ अट्ठारह का समझते हैं। लड़कों में लड़का बन कर दिखाने की कोशिश करते हैं। लड़के हमारा मजा लेते हैं और हम समझते हैं कि वे हमारा साथ एन्जॉय कर रहे हैं। एक- दो बार हमें भुगतने के बाद वे दूर से देखते ही खिसक लेते हैं कि बचो, अंकल जी आ रहे हैं।

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आजकल इस देश में अंकल जी-आंटी जी होना बहुत आसान हो गया है। कोई भी, किसी का, कभी भी, किसी भी उम्र में, अंकल जी या आंटी जी हो सकता है। इसके लिए अपने आधारकार्ड को किसी से लिंक करने की जरूरत नहीं। पहले ऐसा नहीं था। पहले चाचा जी- काका जी, चाची जी-काकी जी पाए जाते थे। कुल आबादी में इनका प्रतिशत बहुत कम था। आज हम 40 से 50 फीसदी तक  हैं। तब दृष्टिकोण संकीर्ण था। तब चाचा -चाची, काका-काकी होने का दायरा परिवार और निकटस्थों तक सीमित था। अब 18 से 90 साल तक का कोई भी व्यक्ति, किसी भी क्षण, किसी का  स्थायी-अस्थायी अंकल-आंटी हो सकता है। अब चाचा, ताऊ, फूफा, मौसा, दादा, नाना, परिचित-अपरिचित सब अंकल रूपी महासागर में समाहित हो चुके हैं। आज भारत इस मामले में पूर्णतया आत्मनिर्भर हो चुका है!

हमारे शहर में 72 साल के एक अंकल जी हैं, जो अपने को 27 का दिखाने के लिए खूब मशक्कत करते हैं। उन्होंने अपनी ऊर्जा शरीर को फिटफाट रखने में इतनी अधिक खर्च कर दी कि उनके पास बौद्धिक फिटनेस के लिए समय और शक्ति नहीं बची। आज भी वह तीन- चार वर्ष के शिकायती बच्चे हैं! लोग उनकी उम्र और उनकी बुद्धि के बीच तालमेल के अभाव पर अक्सर ताली बजाते हैं और वे खुश होते हैं कि लोग उनकी बातों पर ताली बजा रहे हैं।खुशफहमी में रहनेवाले जीवों की दृष्टि से वह एक आदर्श हैं।

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आज भी उनकी शैली, उनका अंदाज वही है,जो बच्चों में पाया जाता है। इस पर उन्हें उतना ही नाज है, जितना कभी लोगों को हिंद पर हुआ करता था। पहले उनकी मम्मी, वही होती थी, जिसे तब मां या अम्मा या अम्मी कहने का चलन था। फिलहाल भारत माता को उन्होंने अपनी मम्मी दे रखा है। वह आज भी मम्मी-मम्मी  करते पाए जाते हैं। अब भी उनका पल्लू पकडे घूमते हैं। गुस्सा होने पर अब भी पैर पटकते हैं। मम्मी के आसपास मंडराने के पीछे उनका एक ही उद्देश्य होता है- शिकायत करना। भैया, छोटी बहन, पड़ोस के बबलू और बबली की जगह अब विपक्षी दलों, खासकर कांग्रेस ने ले ली है। आज भी वह मम्मी से कुत्ते, बिल्ली, चूहे से लेकर चींटी और मच्छर तक की शिकायत करते रहते हैं। इसी को कुछ लोग इस तरह भी कहते हैं कि उन्होंने बुढ़ापे में भी अपना बचपन बचा कर रखा है।

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इन अंकल जी के बचपन के बारे में जो जानकारी मिलती है, उसके अनुसार उनके भैया उन्हें छू भी लेते थे तो वह मम्मी से शिकायत करते थे कि भैया ने मुझे मारा है। आज उसका नाम राष्ट्रविरोधी हरकत है। उन्हें उनकी पेंसिल नहीं मिल रही है, इसका सीधा मतलब होता था कि भैया या छोटी बहन ने उनके विरुद्ध साज़िश रची है। इसी तरह की शिकायतें उन्हें पड़ोस की बबली और बबलू से भी होती थी, जो पाकिस्तान के इशारे पर ऐसा किया करते थे। सार यह कि मम्मी के अलावा उन्हें दुनिया में हरेक से शिकायत रहती थी। मम्मी का उपयोग वह तब भी कंप्लेंट बाक्स की तरह किया करते थे, अब भी करते हैं। बचपन की गंदी आदतें मुश्किल से जाती हैं।

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हमारे शहर के उन अंकल जी का शरीर बुढ़ा गया है। सिर के सफेद बाल भी नदारद हो चुके हैं, दाढ़ी में एक बाल भी काला नहीं बचा है पर उनका शिकायती स्वभाव जस का तस है। उनकी मम्मी उन्हें सौ बार डांट चुकी हैं कि बेटा अब तू अब बुड्ढा हो गया है, मम्मी -मम्मी मत किया कर। इसने वो नहीं किया, तो वो हो गया। इसने वो  किया, तो वो हो गया। वो ये कर देते हैं, वो ये नहीं करने देते! मैंने ये किया तो उन्होंने मुझे गाली दी! बहुत हो चुका। अब कुछ काम कर।मम्मीवादी  छोड़। बड़ा हो जा जरा। मुझे करोड़ों बच्चों की तरफ देखना पड़ता है। तेरी तरह नहीं कि अंबानी-अंबानी की तरफ देख लिया, मतलब सब देख लिया! तेरे बचकानेपन पर सब हंसते हैं। मम्मी का वह बच्चा जवाब देता है, मम्मी, वे इसलिए हंसते हैं क्योंकि उन्हें मुझसे जलन है। उन्हें मम्मी-मम्मी करना नहीं आता। वे इतने मूर्ख हैं कि कहते हैं कि बैंगन खाने से कोई काला नहीं होता और मूली खाने से कोई गोरा नहीं होता!

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उनकी मम्मी उसकी यह बात सुनकर अपना सिर पकड़ लेती है। कहती है तू मेरे ही घर में क्यों पैदा हुआ, तुझे कोई और घर नहीं मिला? तेरी वजह से किसी को आज चैन नहीं है। तुझे खुद भी चैन नहीं है। इतना कह कर वह रोने लगती हैं। बेटा उनसे कहता है कि तू कैसी मम्मी है? सारी दुनिया मुझ पर गर्व करती है और तू रोती है? तू रो मत। मैं आज जो भी हूं, शिकायती बच्चा होने के कारण हूं। यह राजनीति है, तू मां है, इसे तू नहीं समझ सकती!

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