विचार

वृक्षों में वृद्धि और उन पर आधारित आजीविका के लिए लघु वन हो सकता है बेहतर उपयोग

वन-संसाधनों की लघु वन उपज जैसे फल, फूल आदि का ऐसा बेहतर उपयोग हो सकता है जिससे वन के पास रहने वाले समुदायों विशेषकर आदिवासियों को बेहतर आय टिकाऊ तौर पर मिल सके और इसके लिए किसी वृक्ष का कटान भी न हो।

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फोटो: Getty Images RICHARD BOUHET

गांवों को वृक्षों से अधिक हरा-भरा करना सदा आवश्यक रहा, पर जलवायु बदलाव और पर्यावरण के संकट के दिनों में यह और भी आवश्यक हो गया है। दूसरी ओर पर्यावरण रक्षा के साथ-साथ गांववासियों की आजीविका के आधार को और मजबूत और टिकाऊ बनाना भी जरूरी है। इसके लिए वन-संसाधनों की लघु वन उपज जैसे फल, फूल आदि का ऐसा बेहतर उपयोग हो सकता है जिससे वन के पास रहने वाले समुदायों विशेषकर आदिवासियों को बेहतर आय टिकाऊ तौर पर मिल सके और इसके लिए किसी वृक्ष का कटान भी न हो।

सृजन संस्था ने इसी सोच से देश के अनेक राज्यों में कार्य किया है। इस तरह इनके वृक्ष और वन आधारित कार्यों के दो पक्ष हैं - पहला तो गांवों को अधिक हरा-भरा करना और दूसरा पक्ष है जहां संस्था के कार्य क्षेत्र वनों के नजदीक है वहां इनकी लघु वन उपज का बेहतर उपयोग कर आदिवासियों के आजीविका व आय आधार को बेहतर करना।

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गांवों को हरा-भरा करने के लिए सृजन ने अनेक गांवों में ‘तपोवन’ नाम से मिश्रित स्थानीय प्रजातियों के वन लगाए हैं जिनका नियोजन इस आधार पर होता है कि कम भूमि में अधिक वृक्ष लगाए जा सकते हैं व इस आधार पर कि वे एक दूसरे के सहायक होते हुए एक साथ पनप सकें। इस तरह बहुत घने पेड़ों का मानव-निर्मित वन तैयार होता है जिसे प्रायः इसे किसी गांव के ऐसे स्थान पर लगाया जाता है जहां यह अधिक सुरक्षित रहे। यह पर्यावरणीय उद्देश्य से लगाया जाता है व इससे पक्षियों को अच्छा आश्रय-स्थल मिल जाता है जहां तरह-तरह के पेड़ों की हरियाली है।

तपोवन के लिए पहले भूमि को भली-भांति तैयार किया जाता है व इसमें कई तरह गोबर-गोमूत्र आधार की खाद डाली जाती है (रासायनिक खाद का उपयोग नहीं किया जाता है)। आरंभिक दौर में पौधों की देखरेख व सिंचाई बहुत महत्त्वपूर्ण होती है व यह गांववासियों के नजदीकी सहयोग से ही संभव है।

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मरखेड़ा गांव (जिला टीकमगढ़) के लोगों से बातचीत करने पर यह अहसास हुआ कि इस तपोवन से चाहे उन्हें कुछ आर्थिक लाभ न प्राप्त हो रहा हो, पर बहुत मेहनत व निष्ठा से उन्होंने इन पौधों की सेवा की व लगभग सभी पौधों को जीवित रख सके। यहां 36 स्थानीय प्रजातियों के लगभग 1800 पेड़ लगाए गए। विभिन्न गांववासियों ने बताया कि मंदिर के पास ही लगाए गए इस तपोवन के पेड़ों की सिंचाई और देखरेख के लिए उन्होंने क्या-क्या प्रयास किए। तपोवन का सिद्धान्त अकीरा मियावाकी का है और स्थानीय स्थितियों के अनुसार फैलाया जा रहा है।

तपोवन के वृक्षों की हरियाली के अतिरिक्त सृजन ने विभिन्न गांवों में फलदार पेड़ों के बगीचे भी प्राकृतिक पद्धति से लगाए हैं व इस तरह भी वृक्षों की संख्या में वृद्धि हुई है।

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हालांकि लघु वन उपज आधारित आदिवासियों की आजीविका और आय को बेहतर करने के अनेक प्रयास किए गए हैं पर इसके बावजूद अनेक स्थानों पर आदिवासियों को इस कार्य से बहुत कम आय प्राप्त हो पाती है जबकि बिक्री श्रृंखला के ऊपरी स्तर पर व्यापारियों को बहुत मुनाफा प्राप्त होता है। कुछ समय पहले तक सृजन के कार्यक्षेत्र पाली जिले (राजस्थान) के गांवों में भी ऐसी ही स्थिति थी पर सृजन के प्रयासों से अब यहां के ग्राशिया आदिवासियों की लघु वन उपज आधारित आजीविका में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। अब आगे यह प्रयास उदयपुर जिले के अनेक गांवों में भी पहुंच रहा है।

इस प्रयास के केन्द्र में घूमर महिला उत्पादक किसान कंपनी है जिसमें लगभग 2000 महिला शेयरधारक हैं। इनकी संख्या निकट भविष्य में और बढ़ने की संभावना है। यह कार्य अनेक वनों से एकत्रित फलों विशेषकर सीताफल, जामुन व बेर पर आधारित है। सीताफल का गूदा इस रूप में तैयार किया जाता है जिसमें यह आईसक्रीम आदि उत्पादों में उपयोग हो सके। जामुन से शीतल पेय व जामुन स्लाईस बनाए जाते हैं। बेर से लड्डू और लॉलीपाप जैसी मिठाई बनाई जाती हैं। इस तरह कई तरह के स्वास्थ्यवर्धक खाद्य तैयार किए जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त कुछ गैर-खाद्य उत्पाद भी तैयार किए जा रहे हैं जैसे पलाश के फूलों व अन्य वनस्पतियों से प्राप्त किए गए प्राकृतिक रंग, पलाश के पत्तों से बने दोना-पत्तल आदि।

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आरंभ में यह प्रयास सृजन द्वारा आगे बढ़ाए गए व जब यह मजबूत हो गए तो इन्हें अपना स्वतंत्र रूप दे दिया गया व अब यह घूमर महिला किसान उत्पादक कंपनी के रूप में आगे बढ़ रही है।

इन प्रयासों से लघु वन उपज एकत्र करने वाले आदिवासियों को कितना लाभ हुआ, इस बारे में कुछ आदिवासी महिलाओं से बातचीत करने पर पता चला कि उन्हें पिछले वर्ष 25000 से 80000 रुपए तक की आय हुई। धर्मी बाई को कुछ वर्ष पहले इस कार्य से वार्षिक आय 5000 रुपए की हो रही थी जबकि पिछले वर्ष यह आय बढ़कर 79,000 रुपए हो गई। 50000 रुपए के आसपास की वार्षिक आय अनेक महिलाएं प्राप्त कर पा रही हैं।

यह आय वृद्धि तीन तरह से प्राप्त की गई। पहली सफलता तो यह रही कि घूमर ने सीताफल जैसे वन उत्पादों के लिए व्यापारियों की अपेक्षा बेहतर कीमत देनी आरंभ की। फिर जब घूमर ने प्रसंस्करण द्वारा मूल्य वृद्धि की तो वे पहले से भी बेहतर कीमत प्राप्त कर सके। तीसरी उपलब्धि यह रही कि प्रसंस्करण या प्रोसेसिंग कार्य से रोजगार के नए अवसर उपलब्ध होने लगे। इसके लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की गई। इस प्रशिक्षण के आधार पर यह कार्य स्वच्छता की सावधानियां अपनाते हुए विकेन्द्रित ढंग से दूर के गांवों में भी हो सके।

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इस आजीविका को बढ़ाने में घूमर की ओर से यह भी ध्यान रखा जाता है कि फल या अन्य वन उपज प्राप्त करते समय कोई ऐसे तौर-तरीके न अपनाएं जाएं जिससे वृक्षों व वनों की क्षति हो। आखिर यह वन ही तो टिकाऊ आजीविका का आधार हैं व इनकी रक्षा से ही आजीविका की भी रक्षा होगी। यह बात घूमर व आदिवासी तो समझते हैं, पर दिल्ली जेसे बड़े शहरों से आने वाले एजेंट इन सावधानियों का ख्याल नहीं रखते हैं क्योंकि उनका ध्यान तो अल्प-कालीन मुनाफा अधिक कमाने पर होता है, वनों की रक्षा पर नहीं। इस तरह जल्दबाजी में फल तोड़े जाते हैं, इससे पेड़ों की क्षति होती है व फल कम समय तक मिल पाते हैं।

अतः सरकार को भी चाहिए है कि वह घूमर जैसे प्रयासों को अधिक प्रोत्साहित करे तो एक ओर आदिवासियों की आजीविका को बेहतर करते हैं तथा दूसरी ओर वनों की रक्षा पर आजीविका आधार को टिकाऊ बनाने पर भी समुचित ध्यान देते हैं। जो आदिवासी महिलाएं घूमर की सदस्य हैं, उन्हें पहले वनों व वृक्षों की रक्षा करते हुए फल प्राप्त करने का बेहतर अनुभव है व फिर उनके प्रशिक्षणों में भी इस विषय पर आगे और चर्चा होती रहती है।

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यह एक सामुदायिक प्रयास है, समुदाय के सदस्यों के आपसी संबंधों से इसे एक मजबूत आधार मिलता है। सृजन ने विभिन्न गांवों में स्वयं-सहायता समूह संगठित किए हैं जिनके पास अपनी बचत भी है। इस आधार का उपयोग करते हुए आगे और वन-उपज आधारित छोटे-छोटे उद्यम भी आरंभ हो सकते हैं। इस तरह लघु वन उपज उपयोग आधारित आजीविकाओं को टिकाऊ तौर पर सुधारने की अनेक संभावनाएं इन प्रयासों से उत्पन्न हो रही हैं।

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