विचार

पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित करने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला दलित आंदोलन की देन

सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि भारतीय समाज में जाति एक सच है और पदोन्नति में आरक्षण का मसला आर्थिक पिछड़ेपन से जुड़ा नहीं है, लिहाजा दलितों और आदिवासियों के लिये पदोन्नति में आरक्षण होना चाहिये।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया दलित संगठनों द्वारा 2 अप्रैल को किए गए भारत बंद का दृश्य

सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों और अधिकारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने की मांग पर अपना फैसला दे दिया है। कोर्ट ने 2006 के नागराज फैसले को बरकरार रखते हुए अपर्याप्त प्रतिनिधित्व को दर्शाने वाले आंकड़े एकत्र करने की शर्त हटा दी। एक तरह से देखा जाए तो कोर्ट ने अब सरकारों पर प्रमोशन में आरक्षण लागू करने का निर्णय लेने की जिम्मेदारी डाल दी है।

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति ने जिस तरह से अपने संघर्षों के बूते अपने लिए दलित और आदिवासी संबोधनों को सुरक्षित रखा है, उसी संघर्ष की यह कड़ी है कि एक लंबी लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट और बीजेपी की सरकार को पदोन्नति में कोटे को न्यायोचित ठहराने के लिए बाध्य होना पड़ा है।

दलितों और आदिवासियों के बीच से सरकारी अधिकारी बने लोगों को पदोन्नति में आरक्षण नहीं दिए जाने के फैसलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों की संवैधानिक पीठ में 30 अगस्त को सुनवाई पूरी हो गई थी और इसके फैसले का इंतजार बड़ी बेसब्री से किया जा रहा था। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट को यह लग रहा था कि दलितों और आदिवासियों के लिए सरकारी नौकरियों और पदोन्नति में आरक्षण की मांग की वजह इन समुदायों का आर्थिक और सामाजिक तौर पर पिछड़ापन हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि भारतीय समाज में जाति एक सच है और पदोन्नति में आरक्षण का मसला आर्थिक पिछड़ेपन से जुड़ा नहीं है, लिहाजा दलितों और आदिवासियों के लिये पदोन्नति में आरक्षण होना चाहिये।

न्यायालयों में पिछड़े वर्गों एवं दलित-आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था को एक ही नजर से देखने से कई तरह की राजनीतिक और सामाजिक समस्याएं खड़ी हो रही थी।

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति, जिन्हें आमतौर पर दलित और आदिवासी कहकर संबोधित किया जाता है, के अधिकारियों की पदोन्नति में आरक्षण का नये सिरे से एक विवाद 1997 में उठा था। उस वक्त कार्मिक विभाग ने पांच ऐसे ज्ञापन जारी किए जिसके जरिये देश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए जारी आरक्षण की नीति को पुरी तरह से उलट दिया गया। कार्मिक विभाग ही वह सत्ता का केन्द्र है जहां से सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को जो संवैधानिक अधिकार दिए गए है उन्हें लागू करने के लिए समय-समय पर आदेश जारी किए जाते हैं।

1997 में जारी आदेशों के बारे में संसद की अनुसूचित जातियों औरअनुसूचित जनजातियों के कल्याण संबंधी समिति ने अपने अध्ययन के बाद ससंद में यह रिपोर्ट पेश की कि कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के पांच ज्ञापनों ने पिछले 50 वर्षों में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों द्वारा प्राप्त की जा रही सुविधाओं को वापस ले लिया है। इस तरह इन पांचों ज्ञापनों ने आरक्षण नीति को पुरी तरह से पलट दिया और पदोन्नति में आरक्षण को समाप्त कर दिया गया।

अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण संबंधी समिति ने अपने अध्ययन के बाद ससंद में 2001 में जो रिपोर्ट पेश की थी उसमें भी यह कहा गया था कि सरकारी सेवाओं में क्लास वन और क्लास टू के पदों पर अनुसूचित जातियों की और सभी श्रेणी के पदों पर अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधित्व की कमी पाई गई है।

यह एक प्रमाणित तथ्य है कि सरकार के उंचे पदों पर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पदाधिकारियों की संख्या न के बराबर होती है। 21 मार्च 2018 को राज्यसभा में बीजेपी के डॉ सत्यनारायण जतिया के एक प्रश्न के जवाब में सरकार ने बताया कि पीएसबी में अध्यक्ष/मुख्य प्रबंध निदेशक और क्षेत्रीय महाप्रबंधक के स्तर पर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई आरक्षण नहीं है। 28 मार्च को लोकसभा में सरकार के एक जवाब के मुताबिक 77 मंत्रालयों, विभागों और उनसे जुड़े कार्यालयों में 1 जनवरी 2016 तक अनुसूचित जाति का प्रतिनिधित्व 17.29 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व 8.47 प्रतिशत और अन्य पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व 21.5 प्रतिशत होने का दावा किया गया।

दरअसल, पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था के विरोध में जो वातावरण तैयार किया गया, उसके नतीजे के तौर पर न्यायालयों के भीतर भी उसका एक दबाव दिखाई देने लगा। 2006 में नागराज मामले के रूप में लोकप्रिय मुकदमे में न्यायालय ने यह कह दिया कि पदोनन्ति में आरक्षण के लिए पहले आंकड़े जमा किए जाने चाहिए, ताकि दलितों और अदिवासियों के पिछड़ेपन की तस्वीर सामने आ सके। जबकि दलितों और आदिवासियों के लिए केवल पिछड़ेपन की वजह से ही आरक्षण की व्यवस्था नहीं की गई है, बल्कि उनके विरुद्ध जो अछूतेपन की व्यवस्था बनी रही है, उसके आधार पर यह आरक्षण की व्यवस्था बनाई गई। सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था पिछड़े वर्ग के लिए है। लेकिन न्यायालय ने जैसे ही पिछड़ेपन की स्थिति जानने के लिए आंकड़े जमा करने की जरूरत जाहिर की, तो उसी के साथ यह भी प्रश्न खड़ा कर दिया कि दलितों और आदिवासियों के बीच क्रीमीलेयर को क्यों पदोन्नति में आरक्षण मिलना चाहिए।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट में जब यह मामला पहुंचा तो सुप्रीम कोर्ट को यह समझाने में सबसे बड़ी भूमिका इस दौरान सड़कों पर दलितों द्वारा चलाए गए आंदोलनों की रही है। अनुसूचित जाति और अनुसचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून की नये सिरे से सुप्रीम कोर्ट ने व्याख्या करके 20 मार्च को जो फैसला सुनाया था, उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट और सरकार की भूमिका को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े हुए थे। सरकार के रुख के खिलाफ दलितों का ऐतिहासिक आंदोलन 2 अप्रैल को देश भर में देखने को मिला। इसके नतीजे के तौर पर सरकार को इस कानून को फिर से पुरानी स्थिति में लाने के लिए कानून में एक नई धारा की व्यवस्था करनी पड़ी। 2 अप्रैल के बाद से दलितों के आंदोलन की धमक को सरकार महसूस कर रही है और पदोनन्ति में आरक्षण के मामले में ढिलाई बरतने की हालत में राजनीतिक दुष्परिणाम को लेकर आशंकित थी।

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2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र में बीजेपी की सरकार बनने के बाद सबसे ज्यादा विवादास्पद वे फैसले रहे हैं जो विभिन्न सरकारी कार्यालयों और न्यायालयों द्वारा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को मिल रहे अधिकारों को खत्म करने की दिशा में जारी किए गए।

बहुजनों के बीच बढ़ते असंतोष के दबाव में बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार को अपने रुख में बदलाव लाने का प्रदर्शन करने के लिए बाध्य होना पड़ा है। सुप्रीम कोर्ट में सरकार को 2019 के चुनाव को ध्यान में रखते हुए अपना रुख पदोन्नति में आरक्षण के पक्ष में दिखाना पड़ा है।

सुप्रीम कोर्ट में सरकार के रुख के बदलने के राजनीतिक कारणों का विश्लेषण करने से बेहतर यह समझना है कि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण और पदोन्नति में आरक्षण के सिद्धांत को जिस तरह से इस मामले में समझा है, वह दलित आंदोलन की देन है। भारतीय समाज को कानून की धाराओं से नहीं सामाजिक संरचना और उसकी ऐतहासिकता के मद्देनजर ही समझा जा सकता है। दलित आंदोलन से जुड़े लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई के दौरान न्यायालय के विभिन्न पक्षों के समक्ष जो तर्क और ऐतिहासिक बहसों को तथ्यों के रूप में प्रस्तुत किया, उससे पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था सुनिश्चित करने का यह फैसला संभव हो पाया है।

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