नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग- दोनों जानते हैं कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर 1993 की सहमति अब कूड़ेदान में डाल दी गई है और इसी के साथ 1993, 1996, 2005, 2012 और 2015 में एलएसी से जुड़े तमाम समझौते भी बेकार हो गए हैं। चीन अब लद्दाख में 1993 की एलएसी की जगह 1960 के दावे के मुताबिक नई नियंत्रण रेखा को मानने लगा है। ऐसी स्थिति में चीन के गलवान, देपसांग, हॉट स्प्रिंग और पैंगोंग सो के हालिया कब्जा किए गए इलाकों से पीछे हटने की कोई संभावना नहीं। इन जटिलताओं से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह धारणा फैलाकर निपटने की कोशिश की कि एलएसी का कोई उल्लंघन नहीं हुआ और भारत की जमीन पर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने कोई कब्जा नहीं किया। यह और बात है कि किसी ने मोदी से यह नहीं पूछा कि वह किस एलएसी की बात कर रहे हैं- भारत और चीन के बीच 1993 में बनी सहमति वाली एलएसी या फिर 1960 के चीन के दावे के मुताबिक।
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कांग्रेस और वामदलों को छोड़कर अन्य राजनीतिक पार्टियां गतिरोध के प्रति उदासीन ही दिखती हैं और ज्यादातर मीडिया रटंत तोते की तरह सरकारी राग अलाप रहा है। गिनती के रिटायर्ड सैन्य अफसरों को छोड़कर बाकी सब सरकार की जयकार करने में लगे हैं। जो सरकारी लाइन से इधर-उधर जा रहा है, उसे राष्ट्र विरोधी करार दिया जाता है।
ऐसा लगता है कि कम-से-कम घरेलू स्तर पर भारत ने चीन के खिलाफ धारणा युद्ध जीत लिया है। किसी ने भी प्रधानमंत्री से यह नहीं पूछा कि अगर वास्तव में भारत ने कोई क्षेत्र नहीं खोया है तो विदेश मंत्री, राजनयिकों और सैन्य नेताओं के बीच विभिन्न स्तरों पर किस विषय पर बात हो रही है? चीन के साथ किस यथास्थिति की बहाली की कोशिश हो रही है? और अगर वास्तव में भारत ने कोई क्षेत्र नहीं खोया है, तो हमने लद्दाख में संघर्ष के दायरे को बढ़ाते हुए इसमें आर्थिक संबंधों को क्यों ला दिया?
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शक्ति प्रदर्शन में सरकार ने 59 चीनी मोबाइल ऐप पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसके अलावा, यह निश्चित है कि दूरसंचार क्षेत्र में हुवावेई के भारत के 5जी बाजार में घुसने पर रोक लगा दी जाएगी। राष्ट्रवाद के वर्तमान उन्माद में यह मांग तेज होती जा रही है कि सभी चीनी उत्पादों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए और अंततः दोनों देशों के व्यापार पर पूर्ण रोक लगा दी जाए। लेकिन इस तरह की दलीलों में दो महत्वपूर्ण मुद्दों को नजरअंदाजकर दिया जा रहा है: एक, वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में चीनी उत्पाद इस तरह छाए हुए हैं कि उनपर प्रतिबंध लगाने से चीन की तुलना में भारत का नुकसान कहीं अधिक होगा। चीन के कुल वैश्विक व्यापार में भारत की हिस्सेदारी केवल 2 फीसदी है। और दो, अगर लंबे समय तक गतिरोध जारी रहा और चीन से आयात पर पूरी रोक लग गई तो भारतीय एमएसएमई क्षेत्र की मौत हो जाएगी, फार्मास्युटिकल उद्योग पर प्रतिकूल असर पड़ेगा और स्थानीय अर्थव्यवस्था तबाह हो जाएगी।
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धारणा की इस लड़ाई में दो और तत्व जुड़ गए हैं। तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र (टीएआर) में पीएलए की शक्ति के बराबर तैनाती के लिए सभी मित्र राष्ट्रों- रूस, अमेरिका, इज़राइल और फ्रांस- को युद्ध की सामग्री की आपूर्ति तेज करने को कहा गया है। रूसी एस-400 वायु रक्षा मिसाइल प्रणाली के आने में देरी को देखते हुए इजराइल ने तात्कालिक उपाय के रूप में सेवा में तैनात अपनी वायु रक्षाप्रणाली देने की पेशकश की है। वैसे भी, एस-400 मिल जाने के बाद भी सेना में इसके इस्तेमाल के लिए जरूरी प्रशिक्षण वगैरह में एक साल का और समय लग जाएगा।
वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन की ओर हुई तैनाती के बराबर तैनाती करने का काम युद्धस्तर पर जारी रखने के बीच वरिष्ठ राजनयिक क्वाड देशों-अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया, के अलावा फ्रांस, दक्षिण कोरिया और ताईवान-जैसी लोकतांत्रिक शक्तियों के साथ रिश्तों को और मजबूत बनाने का सुझाव दे रहे हैं। हालांकि, इस धारणा युद्ध को जीतने में मोदी के रास्ते में दो बातें आड़े आ रही हैं- एक, वास्तविकता और दूसरा, पीएलए में मामले के निपटारे की कोई जल्दबाजी का न होना।
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मोदी को पता है कि चीन के साथ अगली झड़प बिना हथियार के नहीं होगी क्योंकि भारत ने वहां सैनिकों के परस्पर व्यवहार के नियम बदल दिए हैं। अगर भूल से भी एक गोली चल गई तो मामला बढ़ जाएगा और अंततः युद्ध में तब्दील हो जाएगा। वैसे तो दोनों पक्षों में से कोई भी युद्ध नहीं चाहता लेकिन अगर अचानक युद्ध छिड़ गया तो इसमें पीएलए को बढ़त होगी क्योंकि वह केवल युद्ध भूमि पर नहीं लड़ेगा बल्कि प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर अग्रिम मोर्चे पर तैनात सैनिकों तक के सभी दूरसंचार और कमान और नियंत्रण प्रणाली को भी नष्ट करेगा। वह साइबर, अंतरिक्ष से लेकर इलेक्ट्रो मैग्नेटिकस्पेक्ट्रम की आभासी दुनिया में भी मोर्चा खोलेगा और इस कारण भारत की युद्ध क्षमता को बुरी तरह प्रभावित कर देगा।
पीएलए ने 2018 के बाद से ही भारत से लगती एलएसी के लिए जिम्मेदार पश्चिमी थिएटर कमान के अंतर्गत जमीन, हवा, अंतरिक्ष, साइबर और रॉकेट बलों का वास्तविक संयुक्त युद्धाभ्यास करता रहा है। इनमें अपने लंबी दूरी के हथियारों की फायरिंग भी शामिल रही जो 12,000 फुट और उससे अधिक की ऊंचाई पर सटीकता के लिए जरूरी है। पीएलए के पास भारत से युद्ध की स्थिति में 2,00,000 सैनिकों के रहने, युद्ध सामग्री के भंडारण और गोला-बारूद और कल-पुर्जों सहित युद्ध रसद की निर्बाध आपूर्तिकी भी व्यवस्था है। भारतीय सेना में उपरोक्तसभी का अभाव है। सेना एलएसी पर गश्ती ड्यूटी कर रही है। पूर्व सैन्य अधिकारी युद्ध के जिस अनुभव की बात करते हैं, वह पश्चिमी मोर्चे पर आतंकी अभियानों तक सीमित है। युद्ध और आतंकवाद-रोधी अभियान में आसमान जमीन का अंतर है।
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अच्छी खबर यह है कि चीन निकट भविष्य में (2035 तक, जब पीएलए का आधुनिकीकरण पूरा होने की उम्मीद है), भारत के साथ युद्ध नहीं चाहता। इसके दो रणनीतिक कारण हैं। एक, सबसे पहले वह अपने सबसे बड़े दुश्मन अमेरिका की पश्चिमी प्रशांत में आसियान के माध्यम से नकेल कसना चाहता है। दिलचस्प यह है कि चीन इसे अलग तरह से अंजाम देने की कोशिश कर रहा है। अमेरिकी सैन्य शक्ति को चुनौती देने के बजाय बीजिंग ने अपनी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के माध्यम से आसियान पर अपनी आर्थिक पकड़ बना दी है।
चीन आसियान के साथ सालाना लगभग एक खरब अमेरिकी डॉलर का व्यापार करता है। इसे अब आपसी विश्वास और सुरक्षा और प्रतिरक्षा से जुड़े मामलों की समझ को बढ़ावा देने के लिए 2006 में शुरू हुई आसियान रक्षामंत्रियों की बैठक को मजबूत करने की जरूरत है। एक बार जब चीन आसियान को लेकर आश्वस्त हो जाता है तो वह आसियान के साथ आचार संहिता (दशकों पहले चीन ने इसके लिए आसियान से वादा किया था) संबंधी समझौते पर हस्ताक्षर करेगा। यह हो गया तो आसियान देश चीन की जगह अमेरिका को कहेंगे कि उसकी गश्त क्षेत्र में मुक्त आवागमन के खिलाफ है। चीन आसियान क्षेत्रीय मंच (एआरएफ) के साथ इसी तरह के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है जिसमें भारत और रूस भी शामिल हैं।
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भारत में रूसी राजदूत, निकोले कुदाशेव के अनुसार, “रूसी अध्यक्षता में आरआईसी रक्षामंत्रियों के बीच पहली त्रिपक्षीय बैठक साल के अंत तकहो सकती है। हम मानते हैं कि आरआईसी प्रारूप बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह तीनों देशों के बीच संबंधों को विस्तार देने में मदद करता है। यह सहयोग किसी के खिलाफ नहीं बल्कि यूरेशिया क्षेत्र में विश्वास और स्थिरता का माहौल बनाने के लिए है।”
भारत और चीन के बीच शांति रूस के लिए बड़ा विषय है। रूस ने बीआरआई और शंघाई सहयोग संगठन में भारी निवेश कर रखा है और अपने अलग-अलग एजेंडे के साथ रूस और चीन एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षातंत्र विकसित करने और अमेरिका को चुनौती देने के मामले में एकपाले में हैं। दूसरा रणनीतिक कारण है कि चीन भारत के साथ युद्ध नहीं चाहता है क्योंकि इससे बीआरआई के माध्यम से शांतिपूर्ण विस्तार का उसका सपना चूर हो जाएगा। इससे उसके एशिया-प्रशांत रणनीति पर भी असर पड़ेगा। चीन के नाराज होने की एक वजह भारत द्वारा लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश के हिस्से के तौर पर अक्साई चीन को दिखाना भी है। इसी कारण पीएलए ने लद्दाख में जमीन पर यथास्थिति बदल दी। 1993 के एलएसी को उसने बलपूर्वक बदलते हुए 1960 की दावा रेखा को नया एलएसी मान लिया।
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इन सब बातों के मद्देनजर मानकर चलना चाहिए कि आने वाले समय में चीन भारत के साथ छोटे स्तर के सीधे युद्ध के विकल्पों पर काम करेगा। पीएलए ने पूर्वी क्षेत्र में एलएसी के पास भारी तैनाती कर रखी है और भारत को मजबूर किया है कि वह भी ऐसी ही तैनाती करे लेकिन भारत अभी रूस और इजराइल से गोला-बारूद मिलने की प्रतीक्षा कर रहा है। पीएलए के पास साइबर हमले से पूरे भारत को निशाना बनाने का भी विकल्प है। उसकी अंतरिक्ष क्षमताएं भी प्रभावशाली हैं। हालांकि उसके एंटी-सैटेलाइट बैलेस्टिक मिसाइल के इस्तेमाल की उम्मीद नहीं लेकिन हालात बिगड़ने पर वह ऐसा कर सकता है। पीएलए के पास शक्तिशाली इलेक्ट्रॉनिक जैमर हैं जो भारतीय उपग्रह को ठपकर सकते हैं। सबसे खतरनाक स्थिति भारत और पाकिस्तान के बीच सीमित युद्ध की है जो उत्तरी लद्दाख में पीएलए के परोक्ष समर्थन में सकता है।
मोदी सरकार ने नए नक्शे में पाकिस्तान के कब्जे वाले गिलगिट और बालतिस्तान को लद्दाख का हिस्सा दिखाया है। चीन के पास 35 सैटेलाइट हैं और पाकिस्तान एक मात्र ऐसा देश है जिसके पास इसके सैन्यरिजॉल्यूशन को इस्तेमाल करने का अधिकार है इसलिए पाकिस्तानी मिसाइलों के हमले एकदम सटीक होंगे। पाकिस्तान ने इन इलाकों में अतिरिक्त सेना तैनात कर दी है। दूसरी ओर, पीएलए ने दरबुक-श्योक-दौलतबेग ओल्डी(डीबीओ) रूट से भारतीय सेना को मदद पहुंचने का रास्ता बंद कर दिया है और देपसांग के मैदान में काफी अंदर तक घुस आई है। ऐसे में , खतरा यह है कि सही समय देखकर पाकिस्तान सियाचिन पर हमला कर सकता है। लद्दाख संकट के बाद भारत के विकल्प कम होते जा रहे हैं। यही हकीकत है।
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