विचार

परंपरागत दीपावली का विलोम बन गया दीपोत्सव

अयोध्यावासियों के लिए समझना मुश्किल हो रहा कि वे उसके पारंपरिक उल्लास को कैसे बचाएं?   

फोटो - पीटीआई
फोटो - पीटीआई 

अयोध्या की आने वाली पीढ़ियां भविष्य में जब भी इसका लेखा-जोखा करने बैठेंगी कि उन्होंने पिछले तीन-चार दशकों में पहले भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिन्दू परिषद के हड़बोंगों, फिर निरंकुश सत्ता में अपनी कौन कौन-सी और कितनी बेशकीमती विरासतें गंवा दीं, तो निस्संदेह उन्हें बहुत अफसोस होगा। क्योंकि वे मशहूर शायर मुजफ्फर रज्मी की इन पंक्तियों को सार्थक होती देखने को अभिशप्त  होंगी :

ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने,

लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई!

जो लोग उतनी ही अयोध्या से परिचित हैं, जो टीवी के पर्दे पर दिखाई जाती है, उनके लिए इस पर एतबार करना मुश्किल हो सकता है, लेकिन कड़वी होने के बावजूद सच्चाई यही है कि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा पिछले कई सालों से उत्सवों के नाम पर प्रायोजित होते जा रहे तथाकथित भव्य और दिव्य आयोजनों (जिनमें शेखचिल्लीपना ज्यादा नजर आता है) ने अयोध्या से न सिर्फ गरीबों के तीर्थ की उसकी पुरानी पहचान छीन ली है, बल्कि उसके परंपरागत मेलों और पर्वों को भी ग्रहण लगा दिया है। 

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तिस पर पिछले दिनों प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ऐतिहासिक बृहस्पतिकुंड के बहु प्रचारित जीर्णोद्धार के बाद उसका लोकार्पण करने अयोध्या पधारे तो एक और 'चमत्कार' कर डाला। उन्होंने कुंड में दक्षिण भारत के तीन संगीतज्ञों की मूर्तियों का अनावरण किया तो गुरु बृहस्पति को भूल गए! इससे, और तो और, रामजन्मभूमि की प्राप्ति में बीजेपी-वीएचपी के योगदान को स्तुत्य बताने वाले प्रतिष्ठित हनुमत निवास पीठ के चर्चित महंत आचार्य मिथिलेश नंदिनीशरण तक को चौंधियाती सरकारी जगर-मगर के बीच अपने जैसे औसत अयोध्यावासियों की आंखों की रौशनी छिनती लगने लगी। कारण यह कि उन्हें अपने इस सवाल का जवाब नहीं मिला कि सरकारी और गैर-सरकारी अतिक्रमणों के चलते हवनकुंड भर बचे बृहस्पतिकुंड में देवगुरु बृहस्पति कहां हैं? तब व्यथित होकर यह तक कहने पर उतर आए कि हम अयोध्यावासी कहां जाएं, किसके आगे रोएं और किससे पूछें?

जहां तक दूसरे अयोध्यावासियों की बात है, उनकी ट्रेजेडी यह है कि उनको समझ में नहीं आ रहा कि अपनी उस परंपरागत दीपावली को कैसे बचाएं, जो सरकारी दीपोत्सव की दिव्यता और भव्यता के बोझ तले दबी जा रही है? पिछले कई सालों से जब भी दीपावली आती है, अयोध्या में उसका सब कुछ सरकारी दीये, बाती और तेल से जलाए जाने वाले दीपों की संख्या को रिकार्ड स्तर तक पहुंचाने की निरर्थक होड़ के हवाले कर दिया जाता है और परंपरागत दीपावली के दीपों की कौन कहे, गुण और मूल्य भी कोने-अंतरों तक के मोहताज हो जाते हैं।

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गौरतलब है कि यह तब है, जब दीपावली अपने मूल रूप में न सिर्फ किसानों के घर नई फसल आने के उल्लास का पर्याय बल्कि धनतेरस और भइया दूज आदि सिद्धि एवं समृद्धि के पांच पर्वों का अनूठा गुच्छा भी है। तिस पर अयोध्या में, जिसके निवासियों ने कभी लंका पर विजय प्राप्त करके लौटे अपने आराध्य राम के स्वागत में घी के दीये जलाकर दीपावली मनाने की परंपरा डाली, उसकी परंपरागत छटा का तो कहना ही क्या! 

अलबत्ता, इस छटा के अवलोकन के लिए जानना जरूरी है कि अपने ज्ञात इतिहास में अयोध्या देश के अन्य अंचलों के अलावा अवध, बिहार और झारखंड के सदियों से गरीबी और गैरबराबरी से अभिशापित तबकों के धर्म-कर्म की नगरी भी रही है। इसलिए उसकी पारंपरिक दीपावली में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो दीन-दुखियों की वंचनाओं को लेकर उनका तिरस्कार करता या चिढ़ाता और वैभव या भव्यता का अंध अभिषेक करता नजर आए। उसकी दीपमालिकाओं का सौंदर्य भी उनकी जगर-मगर में कम सादगी में ज्यादा दिखाई देता है।  यह सादगी एलान-सा करती है कि उसका दीपावली मनाकर भगवान राम की अगवानी करना प्रजा के तौर पर उनके सामने बिछ जाना भर नहीं है। वैसे भी राम विधिवत अयोध्या के राजा अपने स्वागत में दीपावली मनाए जाने के बाद बने थे।   

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लेकिन यहां एक पेंच भी है। घी के दीयों वाले रूपकों में खोए हुए कई महानुभाव अयोध्या में चतुर्दिक भव्यता ही तलाशने लग जाते हैं तो इस सादगी के सौंदर्य का दीदार नहीं कर पाते। यह समझने के लिए तो वैसे भी शौक-ए-दीदार चाहिए कि अयोध्या के हजारों मंदिरों के गर्भगृहों में मिट्टी के बने दीये ही क्यों जलाए जाते हैं और क्यों आम लोग ये दीये जलाने भी उनके गर्भगृहों तक नहीं जा सकते? 

दरअसल, गर्भगृहों में पहले मुख्य पुजारी अपने आराध्यों को नहला-धुलाकर दीपावली के अवसर विशेष के लिए बनी नई पोशाकें पहनाते, सजाते-धजाते और पूजा-अर्चना करके दीये जलाते हैं, फिर उनके बाहर साधु-संत। हां, मंदिरों की दीपावली में पुजारियों और साधु-संतों द्वारा आरोपित बंदिशों की परंपरा जैसे ही मंदिरों के बाहर गृहस्थ समाजों में पहुंचती है, अपना अर्थ खो देती है। वहां दीये जलाए नहीं, बल्कि दान किए जाते हैं और इस दीपदान में आम तौर पर कोई भेदभाव नहीं बरता जाता। कोई न कोई दीया उस घूर गड्ढे के नाम भी किया जाता है, जिसमें यों साल भर घर गृहस्थी के उच्छिष्टों और ढोरों के गोबर आदि को सड़ाया जाता है। इससे प्रेरित एक कहावत भी है कि घूरे के दिन भी कभी न कभी बहुरते ही हैं। 

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अयोध्या में इस मुकाम तक पहुंचकर दीपावली किसी को भी अंधेरे में न रहने देने और हर किसी को उजाले से नहलाने का नाम हो जाती है। इसलिए खेत खलिहानों, कोठारों, हलों-जुआठों के साथ गायों-बैलों के बांधे जाने की जगहों, खूंटों, सानी-पानी की नांदों और चरनियों पर भी दीपदान किए जाते रहे हैं। 

बुजर्गों की मानें तो सर्वसमावेशी दीपदानों की इस परंपरा में जगर-मगर की अति की कतई कोई जगह नहीं है। इसमें बच्चे कुम्हारों के बनाए खिलौनों से खेलते हैं-बाजार से लाई गई हिंसा की प्रशिक्षक बंदूकों या प्लास्टिक के खिलौनों से नहीं। बड़ों द्वारा अपने घरों के बाहर सुदर्शन घरौंदे बनाए जाते हैं, जिनमें उनकी सुखद और सुंदर घरों की कल्पना साकार होती दिखती है।

दरअसल, गोस्वामी तुलसीदास ने अपने वक्त में अयोध्या और उसके आसपास के क्षेत्रों के जिन जीविकाविहीन लोगों की बेबसी को ‘बारे ते ललात बिललात द्वार-द्वार दीन, जानत हौं चारि फल चार ही चनक को’ जैसे शब्दों में अभिव्यक्त किया और तफसील से बताया कि वे कैसे ‘सीद्यमान सोच बस कहइं एक एकन सों कहां जाई का करी’, वे अपनी दीपावली को भव्यता की गोद में ले ही नहीं जा सकते थे। इसलिए उन्होंने सादगी और समतल का वह रास्ता चुना था, जो बिना हर्रै-फिटकरी के उनकी दीपावली का रंग चोखा कर सके। न अमावस्या की रात को किसी की आंखों को अंधेरे से पीड़ित करने दे, न ही प्रकाश के अतिरेक को इतना चौंधियाने दें कि वे अंधी-सी होकर रह जाएं।  

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दीपावली पर भी वे मदांध होकर भूल नहीं जाते थे कि अयोध्या के मठों और मंदिरों को आमतौर पर उसके आसपास के क्षेत्रों और बिहार और झारखंड की गरीबी ही आबाद करती रही है। कभी गरीबी की जाई यातनाओं, तो कभी जमींदारों और सामंतों के अत्याचारों के कारण अनेक लोग अपने रहने की जगहों से भागकर अयोध्या आते और साधु बन जाते रहे हैं। यह साधु बन जाना तब उनके निकट धर्मसत्ता द्वारा प्रदान की जाने वाली सामाजिक सुरक्षा का वायस हुआ करता था। 

तब से अब तक अयोध्या में इस लिहाज से कुछ बदला है तो यही कि तब वह जिस तरह बिहार और झारखंड के दलित-पिछड़े, पीड़ित एवं वंचित धर्मानुयायियों का ठौर हुआ करती थी, अब नहीं रह पा रही। कहना चाहिए, रहने ही नहीं दी जा रही। अवध के उन गरीब धर्मप्राणजनों की भी अब वह उस रूप में शायद ही रह पाए, जो गया-जगन्नाथ या गंगासागर की यात्रा नहीं कर पाने के कारण उस पर निर्भर करते आए हैं। 

यों, भूख से विकल अनेक लोगों के निकट अयोध्या आकर साधु बन जाने पर पेट की आग बुझने से हासिल होने वाला संतोष अयोध्या के निकट अभी भी कुछ कम उजला नहीं  है। वह इतना उजला है कि मान्यता हो गई है कि भगवान राम की अनुकंपा से अयोध्या में कोई भी भूखा नहीं सोता। 

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हां, अभी हाल के दशकों तक अयोध्या में दीपावली आती तो खील-बताशों, लइया और गट्टों की बहार आ जाती थी। बाद में चीनी के बने हाथी-घोड़े और खाने के दूसरे मीठे खिलौने भी उसका आकर्षण बन गए थे। भोले-भाले ग्रामीणों के साथ ज्यादातर संभ्रांत नागरिकों की आकांक्षाएं भी तब इतनी ही हुआ करती थीं कि साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय।

अपनी वासनाओं की तृप्ति के लिए उन्हें इससे आगे किसी महंगे भोग विलास की लिप्सा आमतौर पर नहीं ही सताती थी। वे इतने भर से ही खुश हो लिया करते थे कि अयोध्या के जुड़वां शहर फैजाबाद में रामदाने की करारी लइया, गुड़ की पट्टी और गट्टे बनाने वालों की बाकायदा एक गली हुआ करती है और आसपास के जिलों के लोग भी उसकी मिठास के दीवाने हैं। जब भी वे अयोध्या आते हैं, ये चीजें ले जाते हैं।    

दरअसल, वह ऐसे संतोष-धन का वक्त था, जिसमें धर्मप्राण प्रजाजन अपनी सारी चिंताएं उन राम के हवाले करके चैन पा लेते थे, जिनके लिए कभी उनके पुरखे घी के दीये जलाते थे। उनके निकट वे उन जैसे सारे निर्बलों के बल थे। 

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वे अभी भी अपने राम को निर्बलों और निर्धनों का बल ही बनाए रखना चाहते हैं और यह देखकर बहुत व्यथित होते हैं कि भाजपा सरकारें व्यर्थ की चकाचौंध के सहारे उन्हें अपना बल बना लेने के द्रविड़ प्राणायाम में लगी हैं। लोकसभा चुनाव में अपने जनादेश में लोगों ने इसके प्रति अपना विरोध भी दर्ज कराया था, लेकिन इन सरकारों को सद्बुद्धि नहीं आई। योगी  सरकार तो अभी भी अपने दीपोत्सव को अयोध्या की परंपरागत दीपावली का विलोम बनाने पर ही तुली हुई है।

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