विचार

आकार पटेल का लेख: पूरे देश का कश्मीरीकरण और गुजरातीकरण करने की कोशिश में है मौजूदा सरकार

मौजूदा सरकार ने जिस तरह कश्मीर में तमाम किस्म की पाबंदियां लगाईं और नागरिक अधिकारों को रोका है उसी तरह की कोशिशें देशभर में हो रही हैं। इसी के साथ गुजरात की रुढ़िवादी सोच को भी पूरे देश पर थोपने की कोशिश की जा रही है।

सांकेतिक फोटो : Getty Images
सांकेतिक फोटो : Getty Images 

जाने-माने स्कॉलर प्रताप भानु मेहता ने हमें भारत के कश्मीरीकरण की चेतावनी दी है। उनका मतलब है कि कश्मीर में जिस तरह केंद्र सरकार कुछ व्यक्तिगत अधिकारों के साथ कठोर पुलिस राज्य या पुलिस स्टेट चला रही है, उसका विस्तार पूरे देश में किया जा रहा है। यदि हम हाल के दिनों की घटनाओं को देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी बात सही है। कश्मीर में अकसर इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी जाती हैं, क्योंकि सरकार अपने ही नागरिकों को सामूहिक रूप से दंडित करना चाहती है। 2020 में पूरे साल तक कश्मीरियों के पास कोई इंटरनेट नहीं था (और इसलिए कोई ऑनलाइन शिक्षा या टेली मेडिसिन की सुविधा भ उन्हें नहीं मिल सकी)।

कश्मीर में हिंसा 2001 में चरम पर थी और उस समय वहां न कोई मोबाइल टेलीफोन सेवाएं थी, और इंटरनेट तो दूर की बात है। लेकिन भारत सरकार कश्मीर में किसी तर्क के आधार पर काम नहीं करती है। जिन किसानों को सिंघू और टिकरी बॉर्डर रोक दिया गया था और उन्हें दिल्ली में दाखिल नहीं होने दिया गया था, उनका भी कश्मीर की ही तरह इंटरनेट काट दिया गया है। क्यों? हम नहीं जानते और बताया भी नहीं गया था। सरकार उन्हें भी सामूहिक रूप से दंडित करना चाहती थी और उसने ऐसा करने ताकत की हासिल कर ली है। कश्मीर में इस तरह की तानाशाही के बाद उसे लगता है कि वह अब कहीं ऐसा कर सकती है। ध्यान रहे कि 2014 के बाद भारत ऐसे देशों की सूची में अव्वल नबंर पर है जिसने अपने नागरिकों पर सबसे ज्यादा इंटरनेट प्रतिबंध लगाए। यही पूरे देश का कश्मीरीकरण है।

Published: undefined

इसी तरह, उग्रवाद के लिए बनाए गए कानून यूएपीए को भी अब आमतौर पर उन लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है जो असहमति की आवाजें उठाते हैं। इनमें शिक्षाविद, कवि और पत्रकार आदि शामिल हैं। केंद्र सरकार की ही तरह न्यायपालिका भी आंतरिक संतुलन के मुद्दे पर कश्मीर में नाकाम रही है, वैसा ही अब पूरे देश में भी न्यायपालिका की नाकामी सामने आ रही है।

देश के कश्मीरीकरण की तरह ही एक और बदलाव हो रहा है जिसे मैं भारत का गुजरातीकरण कहूंगा। गुजरातीकरण कैसे सामने आ रहा है, यह बताता हूं। इसके लिए आपको अतीत में जाना होगा कि गुजरात ने किस तरह खुद को सामने रखा। स्वतंत्रता आंदोलन के चार बड़े नेताओं में से तीन - जिन्ना, पटेल और गांधी - गुजराती थे। पटेल, जो किसान पाटीदार समुदाय से आए थे, उन्हें जिद्दी और कठोर नेता के रूप में देखा जाता है। लेकिन जिन्ना और गांधी व्यापारिक समुदायों से आए थे और उनका जोर समझौता करने पर रहता था। (इस मामले में आप विभाजन के उस नजरिए को भूल जाएं जो इन दिनों भारतीयों को सिखाया जा रहा है और जिसे सच साबित किया जा रहा है।)

Published: undefined

पाकिस्तानी पत्रकार खालिद अहमद ने गुजरातियों के इस चित्रण के बारे में लिखा है कि वे किस तरह अपनी कारोबारी जड़ों की तरह समझौता करने वाले थे। सूरत मुख्यतया मुगलों और ब्रिटिश के लिए पश्चिमी कारोबारी तट था। कारोबार एक ऐसी संस्कृति है जिसमें जिद और अड़ियल रवैया नहीं चलता। ग्रीम और रोमन दौर से ही गुजरात कारोबार के मामले में दुनिया से जुड़ने के चलते लाभान्वित होता रहा है। यही कारण है कि दुनिया के लगभग हर देश में गुजराती कारोबार करते दिखते हैं।

हालाँकि, गुजरात भी कई मायनों में संकीर्ण और रूढ़िवादी है। पूंजी का नियंत्रण कुछ समुदायों तक सीमित है और उनकी यही संस्कृति बाकी लोगों पर थोपी जाती है। गांधी जी की अहिंसा और शाकाहार जैन समुदाय जैसी थी। इससे अन्य समुदायों को छूट नहीं थी और उनके आहार में कोई रियायत नहीं दी जाती थी और जैन समुदाय खुद को सर्वोच्च मानता था।

आज यही विचार हम सब पर देश भर में थोपा जा रहा है क्योंकि देश के प्रधानमंत्री और गृह मंत्री दोनों ही सांस्कृतिक रूप से संकीर्ण और रुढ़िवादी हैं। आज के गुजरातीकरण हो चुके हो भारत में हम पूंजी जमा करने को मान्यता देते हैं और धन-दौलत का जश्न मनाते हैं। महामारी के दौरा रिकॉर्ड संख्या में अरबपति बढ़े हैं, जबकि 23 करोड़ भारतीय गरीबी में धकेल दिए गए। लेकिन इस दूसरे तथ्य को अनदेखा कर दिया गया जबकि नए अमीरों को प्रसिद्धि मिल रही है। इस बात को भी अनदेखा कर दिया गया है कि अरबपति लोगों की संख्या में जानबूझकर बढ़ोत्तरी की जा रही है।

Published: undefined

भारत का आर्थिक ढांचा 2014 के बाद से ऐसा बना दिया गया है जिसमें अमीरों को और अमीर और सशक्त बनाया जा रहा है। नोटबंदी से छोटे कारोबारियों का एक तरह से संहार किया गया और उनके हिस्से के कारोबार उन संगठित क्षेत्रों को सौंप दिए गए जिनका नियंत्रण बड़े कार्पोरेट के हाथ में है। इसी तरह बेहद जटिल जीएसटी को भी इस तरह लागू किया गया जिससे कि छोटे उत्पादक और ट्रेडर कारोबार से बाहर ही हो गए, और सरकार ऐसा करने में कामयाब रही। सरकार गर्व के साथ इस प्रक्रिया को औपचारीकरण का नाम देती है। जीएसटी के खिलाफ सूरत और अहमदाबाद में 2017 के विरोध प्रदर्शन को हम सबने अनदेखा कर दिया था। किसानों के विपरीत ट्रेडर्स में लंबे समय तक आंदोलन को चलाने की न तो इच्छा थी और न ही ताकत।

किसानों के विरोध को इस संदर्भ में तो एक तरह से मर्चेंट के खिलाफ कृषकों की बगावत के तौर पर देखी जानी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कृषि कानूनों के तहत किसानों के लिए बने कारोबार के ताने-बाने को तहस-नहस कर मर्चेंट्स के पक्ष में मोड़ देना था। किसानों ने कृषि कानूनों की इस बात को समझ लिया था और वे इसके खिलाफ जमकर खड़े रहे।

Published: undefined

पूंजी की ताकतसे किसानों को दबाने और सरकारी नियंत्रण करने की कोशिश की गई, लेकिन इससे किसानों के हौसले नहीं कम हुए (इससे गुजराती द्वय परिचित नहीं थे और उन्हें इसकी उम्मीद भी नहीं थी)। इसीलिए किसानों का आंदोलन सफल रहा।

गांधी जी के शाकाहारवाद की तरह ही, विविधता को लेकर गुजरात की कट्टर असहिष्णुता को आज भारत में फैलाए जा रहे कट्टर राष्ट्रवाद में देखा जा सकता है। कश्मीर और पूर्वोत्तर इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। लेकिन ये उस विचार के अनुरूप नहीं है कि गुजरात के हिंदू रुढ़िवादी भारतीयों को पर जबरदस्ती कुछ थोपा जाए। (यह कई बार सामने आया है कि जब भी कोई बड़ी शक्ति सीमा पर बदमाशी करती है तो गुजराती उससे आंख फेर लेते हैं और सम्मान के मुकाबले व्यवहारिकता को तरजीह देते हैं।)

इस तरह देश के कश्मीरीकरण और गुजरातीकरण का जो ट्रेंड दिख रहा है वह दीर्घकालिक असर डालने वाले हैं और फिर इन्हें खत्म करना मुश्किल होगा। यही कारण है कि हमारी अर्थव्यवस्था, लोकतंत्र, समाज और यहां तक कि हमारी राष्ट्र भक्ति तक पर 2014 के बाद से यह खुलकर सामने दिख रहा है।

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined