विचार

AI में नैतिक सोच की कमी परेशान करने वाली, व्यक्तित्व के अधिकारों की किसी को परवाह नहीं

एक अहम सवाल यह भी है कि ऐसे समय में इंसान होने का क्या मतलब रह गया है, जब मशीनों ने ऐसे तमाम कामों में महारत हासिल कर ली है, जिन्हें हम इंसान बड़े घमंड से अपने लिए खास बताया करते थे, यानी- भाषा, बुद्धिमानी से सोचने और रचनात्मक क्षमता तक।

AI में नैतिक सोच की कमी परेशान करने वाली, व्यक्तित्व के अधिकारों की किसी को परवाह नहीं
AI में नैतिक सोच की कमी परेशान करने वाली, व्यक्तित्व के अधिकारों की किसी को परवाह नहीं फोटोः सोशल मीडिया

‘अंत का खुलासा मत करो। यही एकमात्र चीज है जो हमारे हाथ में है।’ अल्फ्रेड हिचकॉक ने 1960 की अपनी ऐतिहासिक फिल्म ‘साइको’ के लिए चतुराई भरी जो मार्केटिंग रणनीति तैयार की उसके मूल में यही शब्द थे और जो अपनी कला के बचाव के लिए गढ़ी गई दुनिया की शायद पहली ‘सुरक्षा नीति’ थी। शायद पहला कारगर स्पॉइलर एलर्ट भी! अब 65 साल बाद जब हम एआई (कृतिम बुद्धिमत्ता) से तैयार डीपफेक के दौर में हैं, तो पाते हैं कि फिल्म निर्माता और दर्शक को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि फिल्म का एक खास अंत ही हो।

आनंद एल. राय की दुखांत-रोमानी फिल्म ‘रांझणा’ जब इस साल दोबारा रिलीज हुई, तो अंत पूरी तरह बदला हुआ था और जो एआई रचित था। मूल फिल्म में जहां कुंदन (धनुष) गोलियों से घायल होकर दम तोड़ देता है, वहीं एआई रचित ताजा संस्करण में फिल्म के सुखांत के साथ कुंदन बच जाता है, जिसे अस्पताल के बिस्तर पर होश में आते दिखाया गया है। अगर यह एआई के भ्रम का नतीजा होता, तो यह वैकल्पिक अंत मनोरंजक हो सकता था, लेकिन यहां तो यह कुछ भयावह लगने लगता है, खासकर तब, जब निर्देशक और अभिनेता, दोनों इस बदलाव पर सहमत न हों और निर्माता के खिलाफ उनकी सहमति के बिना इस संस्करण को बनाने और रिलीज करने के लिए कानूनी कार्रवाई पर विचार कर रहे हों।

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उनकी आपत्तियों के दो आयाम हैं। कॉपीराइट अधिनियम विशेष तरह के अधिकार (नैतिक अधिकार) को मान्यता देता है और यह अधिकार स्वामित्व हस्तांतरण के बाद भी बना रहता है। इसे ‘कृति की अखंडता का अधिकार’ जैसी अस्पष्ट अभिव्यक्ति की तुलना में कहीं ज्यादा स्पष्ट ‘पितृत्व का अधिकार’ या किसी रचना के लेखक के रूप में पहचाने जाने का अधिकार (प्रकाशक मेरी पुस्तक का कॉपीराइट तो रख सकता है, लेकिन पुस्तक के लेखक के तौर पर किसी और का नाम नहीं दे सकता) कह सकते हैं।

‘अखंडता का अधिकार’ किसी कृति की नैतिक सुसंगतता को इस तरह विकृत किए जाने, बदले जाने से सुरक्षित करता है जिससे लेखक के सम्मान या प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचती हो। यानी, आप वह खुशकिस्मत तो हो सकते हैं जो हुसैन की किसी पेंटिंग का मालिक है, लेकिन महज इसलिए आपको उस पेंटिंग को नष्ट या विकृत करके चित्रकार की उसकी कृति पर नैतिक अधिकारों के उल्लंघन का अधिकार नहीं मिल जाता। इस आधार पर, ऐसा लगता है कि आनंद एल. राय का ‘रांझणा’ के एआई जनित अंत के खिलाफ सीधा दावा बनता है।

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लेकिन फिर धनुष का क्या? वह इस फिल्म में अभिनेता है, लेकिन उसका कोई कॉपीराइट अधिकार नहीं। हालांकि परफॉर्मर्स को भी कुछ खास तरह के अधिकार हासिल हैं, लेकिन यह सवाल कि क्या परफॉर्मर्स को अपनी परफॉर्मेंस पर नैतिक अधिकार का दावा करने का हक है, कहीं ज्यादा पेचीदा मामला है। पिछले कुछ सालों में हमने ऐसे कई मामले देखे हैं जब सेलिब्रिटीज ने एआई कंपनियों (जो बिना अनुमति डीपफेक के जरिये उनका हमशक्ल बनाती हैं या किसी गायक की आवाज और शैली की नकल के लिए भाषा के किसी बड़े मॉडल का इस्तेमाल करती हैं) द्वारा गलत इस्तेमाल के खिलाफ अपने ‘पर्सनैलिटी के अधिकार’ की रक्षा के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। अमिताभ बच्चन, उनके बेटे अभिषेक और बहू ऐश्वर्या से लेकर रजनीकांत और अरिजीत सिंह तक, कई सेलिब्रिटी इसी आधार पर एआई से बनी नकल के खिलाफ कोर्ट से राहत पाने में सफल रहे हैं।

अवधारणा की दृष्टि से ‘व्यक्तित्व का अधिकार’ एक दिलचस्प अधिकार है क्योंकि यह बौद्धिक संपदा सिद्धांत के भीतर प्रायः परस्पर टकराने वाली विविध दार्शनिक परंपराओं को भी एक साथ लाने का काम करता है। कॉपीराइट में मोटे तौर पर दो सिद्धांत हैं। एक, एंग्लो-सैक्सन मॉडल जिसके बेहतरीन उदाहरण हैं जॉन लॉक। यह प्रोत्साहन के आर्थिक तर्क पर जोर देता है जो कहता है कि अगर अमूर्त चीजों के मामले में विशिष्ट अधिकार नहीं हुआ तो कुछ भी नया बनाने की प्रेरणा नहीं बचेगी। यह सिद्धांत मुख्यतः आर्थिक प्रकृति का है और आईपी को प्रॉपर्टी राइट के तौर पर देखता है। दूसरा है, यूरोपीय सिद्धांत जो इमैनुएल कांट से प्रेरणा लेते हुए रचनाकार के अमूर्त व्यक्तित्व के महत्व को स्वीकारता है और कॉपीराइट को एक ऐसी व्यवस्था के रूप में सही ठहराता है जो रचनाकार की पहचान की स्वायत्तता की रक्षक है, और आईपी को रचनाकार के अधिकार के रूप में देखता है।

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‘व्यक्तित्व का अधिकार’ इन दो सिद्धांतों के बीच अजीब तरह से फंसा हुआ है। यह मुख्य रूप से व्यक्तित्व स्वायत्तता की कांटवादी परंपरा से लिया गया है और निजता के अधिकार का विस्तार करता है। एक तरफ तो तकनीकी तौर पर यह हर व्यक्ति के लिए उपलब्ध है और इसका मकसद किसी व्यक्ति की पहचान की अखंडता की रक्षा करना है। वहीं, कानूनी अधिकार के तौर पर इसका इस्तेमाल सिर्फ वही व्यक्ति कर सकता है जिसकी पहचान की कोई व्यावसायिक कीमत हो यानी कोई सेलिब्रिटी।

यह अधिकार मुख्यतः सेलिब्रिटी संस्कृति के वैश्विक उभार, मीडिया के असर और उन्नत डिजिटल तकनीक आधारित सतत दुरुपयोग से बढ़ा है। इस अधिकार का मानक औचित्य कई विरोधाभासों पर आधारित है- एक विचार यह है कि ‘पहचान’ एक ऐसी चीज है जिसे व्यक्ति विशेष से अलग नहीं किया जा सकता, भले ही उसका कानूनी दर्जा किसी की पहचान को ‘उत्पाद’ बनाने की क्षमता पर टिका हो। बेशक यह व्यावसायिक तौर पर किसी सेलिब्रिटी के पब्लिक स्टेटस से जुड़ा हो, लेकिन इसके मूल में निजता का अधिकार ही है।

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एआई के इस दौर में व्यक्तित्व के अधिकार से जुड़े विरोधाभासों को हम कैसे देखें? अगर सेलिब्रिटी के आर्थिक हितों के सवाल से आगे बढ़कर यह पूछा जाए कि क्या आम दर्शक के नजरिये से भी इस अधिकार का कोई आयाम है, तो कैसा परिप्रेक्ष्य सामने आएगा? एक अहम सवाल यह भी है कि ऐसे समय में इंसान होने का क्या मतलब रह गया है, जब मशीनों ने ऐसे तमाम कामों में महारत हासिल कर ली है, जिन्हें हम इंसान बड़े घमंड से अपने लिए खास बताया करते थे, यानी- भाषा, बुद्धिमानी से सोचने और रचनात्मक क्षमता तक।

इस सवाल का एक रूप सिनेमा में दिखने वाले एक काल्पनिक परफॉर्मेंस से भावनात्मक तौर पर जुड़ने की हमारी काबिलियत के हैरान करने वाले अनुभव में दिखता है। यह दर्शन और सौंदर्यबोध का एक शाश्वत प्रश्न है जो कला की उस गहरी ताकत को दिखाता है जिससे एक ऐसी भावनात्मक सच्चाई गढ़ी जा सकती है जो असल घटनाओं से ज्यादा असली लगे। एक बढ़िया परफॉर्मेंस वह होती है जिसमें हम यह जानते हुए भी उससे भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं कि यह असलियत नहीं। यहां ‘आनंद’ में राजेश खन्ना या हैरी पॉटर सीरीज में डंबलडोर की मौत को याद कर सकते हैं।

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किसी कृति का अर्थ क्या है, इसकी व्याख्या पाठक और दर्शक हमेशा से अपनी-अपनी तरह से करने के साथ ही उस व्याख्या पर दावा भी जताते रहे हैं, लेकिन एआई से तैयार अलग अंत से हमें जो बेचैनी महसूस होती है, वह रचनात्मक व्याख्या से बिल्कुल अलग है। क्या हमारी चिंता सिर्फ मूल अनुभव में हेरफेर को लेकर है? ‘ब्लेड रनर’ या ‘शोले’ जैसी मशहूर फिल्मों के लिए ‘डायरेक्टर कट’ का होना इस दावे को गलत साबित करता है। लेकिन ऑनलाइन दुनिया में डिजिटल हेरफेर, यानी मशहूर फिल्मों के एआई रचित तमाम दिलचस्प और अक्सर परेशान करने वाले संस्करणों (शोले का ऐसा ठाकुर जिसके हाथ साबुत हों… वगैरह) के ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे।

शीत युद्ध के दौरान, रूस और अमेरिका की सेंसरशिप व्यवस्थाओं के बारे में कहा जाता था कि रूस में कुछ नहीं चलता क्योंकि वहां सब कुछ मायने रखता है, जबकि अमेरिका में सब कुछ चल जाता है क्योंकि वहां कुछ भी मायने नहीं रखता। ऐसा लगता है कि हमारी परेशानी फिल्म के दूसरे संस्करण से नहीं, बल्कि बनाने के तरीके से जुड़ी है। एआई में इंसानी इरादे, हमदर्दी और नैतिक सोच की कमी हमें परेशान करती है। हम कह सकते हैं कि आदित्य चोपड़ा के लिए मायने यह रखता है कि डीडीएलजे के क्लाइमेक्स में अमरीश पुरी काजोल का हाथ छोड़ दें, ताकि वह आजादी से अपनी जिंदगी जी सके; हमारे लिए यह मायने रखता है कि शोले में जय अपने दोस्त वीरू के लिए जान दे देता है, लेकिन क्या यह एआई के लिए भी कोई मायने रखता है और क्या यह आज के समय में किसी काम की ईमानदारी का मुख्य पैमाना हो सकता है?

(लेखक लॉरेंस लियांग वकील और शिक्षाविद हैं। उन्होंने आईपीआर पर विषद कार्य किया है)

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