विचार

गरीबों की थाली के दीवाने हुए जा रहे अमीर, लेकिन क्या आकर्षक नाम भर दे देना काफी है?

जिन मोटे अनाजों को पहले गरीबों का आहार माना जाता था, उन्हीं के पीछे अमीर दीवाने हुए जा रहे हैं। सरकार भी ‘श्री अन्न’ कहकर उन्हें बढ़ावा दे रही है। लेकिन क्या आकर्षक नाम भर दे देना काफी है? पढ़ें वरिष्ठ पत्रकार और लेखक अरुण सिन्हा का लेख।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

संपन्न भारतीय अचानक मोटे अनाज के लिए दीवाना हुए जा रहे हैं। कभी धान-गेहूं के व्यंजन इन लोगों का मुख्य आहार हुआ करते थे लेकिन अब स्थिति बदल गई है। संपन्न लोग न केवल प्रमुख मोटे अनाजों जैसे, बाजरा, ज्वार और रागी के राग अलाप रहे हैं जो पहले कुछ राज्यों में लोगों के आम खान-पान का हिस्सा हुआ करते थे; बल्कि कोदो, कुटकी और झंगोरा जैसे कम लोकप्रिय मोटे अनाज भी उन्हें लुभा रहे हैं जो ‘सभ्य’ लोगों से दूर रहने वाले आदिवासियों का आहार हुआ करते थे।

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दोपहर के भोजन की मेजबानी की जहां मोटे अनाज से बने व्यंजन परोसे गए। इसके बाद कई केन्द्रीय मंत्रियों ने मोटे अनाज के लंच आयोजित कर डाले। सेलिब्रिटी शेफ मोटे अनाज के साथ तैयार फ्यूजन रेसिपी के बारे में लिख रहे हैं। उनमें से कई तो पहले से ही पांच सितारा होटलों में मोटे अनाजों से बने व्यंजन परोस रहे हैं। कई जगहों पर ऐसे होटल खुल गए हैं जो रागी डोसा, बाजरा पास्ता, ज्वार पिज्जा और कोदो बिरयानी परोस रहे हैं। देसी-विदेशी कंपनियों ने मोटे अनाजों के ‘रेडी-टु-ईट’ व्यंजन बाजार में उतारने की घोषणा कर दी है।

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आखिर ‘मोटे’ अनाज- जो ‘असभ्य’ और ‘अपरिष्कृत’ समुदायों के खान-पान का हिस्सा थे- अचानक फैशन में कैसे आ गए? भारत में अब तक खान-पान के मामले में एक स्पष्ट वर्ग विभाजन था: अमीर चावल और गेहूं जैसे ‘महीन’ अनाज खाते थे जबकि गरीब बाजरा, रागी और ज्वार जैसे ‘मोटे’ अनाज। यह हमारे नजरिये में इतना रचा-बसा रहा कि गरीबों ने ‘सभ्य’ समाज में गिने जाने के लिए धीरे-धीरे ‘मोटा’ अनाज छोड़ ‘महीन’ अनाज खाना शुरू कर दिया।

गरीबों को अपने आहार से ‘मोटे’ अनाज को निकाल बाहर करने और ‘महीन’ अनाज को शामिल करने के लिए मजबूर करने का दोष भारत सरकार को जाता है। 1960 के दशक में पूरी आबादी का पेट भरने का तरीका खोजने के लिए बेताब सरकार ने चावल और गेहूं की ज्यादा उपज वाली किस्मों की खेती पर दांव लगाया। यह उपाय कारगर भी रहा। हरित क्रांति ने देश को खाद्य सुरक्षा दी। सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से सस्ते चावल और गेहूं की आपूर्ति करती है और इसकी वजह से गरीबों को ‘मोटा’ अनाज छोड़कर चावल और गेहूं की लत लग गई।

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गरीबों की क्या बात करें, यहां तक कि कस्बों और गांवों में निम्न मध्यम वर्ग के लोग जो पहले ‘मोटे’ अनाज खाते थे, उन्होंने भी  चावल और गेहूं को अपना लिया क्योंकि वे बाजार में आसानी से उपलब्ध थे। नतीजा यह हुआ कि देश भर में ‘मोटे’ अनाजों का रकबा 1960 के दशक के मध्य में 3.7 करोड़ हेक्टेयर से कम होकर 2010 के मध्य में 1.4 करोड़ हेक्टेयर रह गया। आईसीआरआईएसएटी (इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स) के मुताबिक, भारत में बाजरे की प्रति व्यक्ति सालाना खपत 1962 के 32.9 किलोग्राम के स्तर से गिरकर 2010 में 4.2 रह गई।

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सवाल यह उठता है कि देश अब ‘महीन’ अनाज से ‘मोटे’ अनाज की ओर क्यों जाना चाहता है? अमीर भारतीय ‘गरीब आदमी का खाना’ खाने के लिए इतने उतावले क्यों हैं? क्या इसलिए कि एक के बाद एक तमाम अध्ययनों से पता चला है कि ‘मोटे’ अनाज स्वास्थ्य के लिए सबसे अच्छे हैं? कहा जाता है कि वे प्रोटीन, विटामिन और सूक्ष्म पोषक तत्वों से भरपूर, लस (ग्लूटन) मुक्त, कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स (यह सूचकांक जितना कम होगा, खून में शुगर बढ़ाने में उतना ही कम सहायक होगा) वाले होते हैं। ‘महीन’ अनाज के विपरीत, मोटे अनाजों को ब्लड शुगर और ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करने, कोलेस्ट्रॉल कम रखने, हृदय की रक्षा करने और पाचन स्वास्थ्य में सुधार में सहायक माना जाता है।

अब जब संपन्न लोगों को इस बात का एहसास हो रहा है कि ये मोटे अनाज कितने फायदेमंद हैं तो वे इन्हें ‘मोटा’ नहीं कह रहे हैं। कुछ उन्हें बाजरा तो कुछ ‘पोषक अनाज’ कह रहे हैं। खाद्य व्यवसाय और सेलिब्रिटी शेफ उन्हें ‘सुपरफूड’ कह रहे हैं। केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने 2023-24 के बजट भाषण में उन्हें ‘श्री अन्न’ कहा। लेकिन क्या हम इस तरह के महिमामंडन से परे भी कुछ कर रहे हैं? ‘श्री अन्न’ के लिए क्या है सीतारमण के बजट में? बजट के पन्नों पर बेशक ‘श्री अन्न’ के लिए कुछ भी न हो, सीतारमण को तालियां तो मिल ही गईं।

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चावल और गेहूं के आदि हो चुके भारत के धनी और गरीब दोनों तबकों में स्वास्थ्य विकारों से बचने के लिए बाजरे के इस्तेमाल को बढ़ावा देना हो तो सरकार केवल ‘श्री अन्न’ के महिमामंडन से अपने दायित्वों को पूरा हुआ नहीं मान सकती। अगर ‘श्री अन्न’ वाकई दैवीय है, तो उसे हर घर और हर दिल में होना चाहिए। जब वह हर घर और हर दिल में होगा, तभी भारत भी एक स्वस्थ और मजबूत राष्ट्र होने की उम्मीद कर सकता है क्योंकि बाजरा उगाकर ही खेती को बचाया जा सकता है। मोटे अनाजों के लिए बहुत कम पानी, उर्वरक और कीटनाशक की जरूरत होती है। जहां एक किलो चावल उगाने के लिए 4,000 लीटर पानी की जरूरत होती है, एक किलो बाजरा उगाने के लिए केवल 300 लीटर की। केवल चावल और गेहूं उगाने से भूजल की कमी होगी, ज्यादा रसायनों के इस्तेमाल की वजह से मिट्टी खराब होगी और पर्यावरण पर विपरीत असर पड़ेगा। कम चावल-गेहूं और अधिक बाजरा उगाने से भूजल, मिट्टी और पारिस्थितिकी को हुए नुकसान की भरपाई करने में जरूर मदद मिलेगी। लेकिन उसके लिए सरकार को तमाशे से आगे बढ़कर पूरी ईमानदारी के साथ पांच उपायों को अपनाना होगा:

एक, बाजरे की फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर उनकी खरीद में मदद करनी होगी। ओडिशा बाजरा से अच्छी आय अर्जित करने में उत्पादकों की मदद करने वाला पहला राज्य है। कर्नाटक और छत्तीसगढ़ भी ऐसा ही कर रहे हैं। अगर केन्द्र सरकार वाकई ‘श्री अन्न’ को बढ़ावा देना चाहती है तो उसे भी ऐसे ही उपाय करने चाहिए और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में चावल-गेहूं का कोटा कम कर उसकी जगह इन्हें शामिल करना चाहिए।

दो, केन्द्र सरकार को ज्यादा उपज देने वाली बाजरा किस्मों के अनुसंधान और विकास और उन्हें उत्पादकों के बीच ले जाने पर पर्याप्त खर्च करना चाहिए। बाजरा उत्पादक कम उपज देने वाले पारंपरिक बीजों का इस्तेमाल करते हैं जिससे उनका अपना काम तो चल जाता है लेकिन अगर इसका उत्पादन बाजार के लिए करना है तो उत्पादकता बढ़ानी होगी।

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तीन, बाजरा प्रसंस्करण बहुत कठिन है। राज्य को कम लागत वाली और उपयोग में आसान तकनीकों को विकसित करना होगा और उन्हें फार्म गेट पर उपलब्ध कराना होगा।

चार, उपभोक्ता बाजरे की रेसिपी बनाना पसंद नहीं करते क्योंकि इसमें अधिक समय और मेहनत लगती है। इसके अलावा, वे चावल या गेहूं के उत्पादों की तरह स्वादिष्ट नहीं होते। फिर वे पचने में भी भारी होते हैं। इस तरह के उपभोक्ता प्रतिरोधों को दूर करने के लिए सरकार को उपाय करने होंगे।

पांचवां, खाद्य नियमन ढीला और भ्रष्ट रहा है। बाजरे की बढ़ती मांग के साथ, बाजार बाजरा उत्पादों और ‘रेडी टु कुक’ पैकेटों से पट जाने वाला है। सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि लोग जंक फूड को पौष्टिक मानते हुए इसका सेवन न करें।

अरुण सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं।

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