विचार

इसलिए चलता है फेक न्यूज का कारोबार...

झूठ के पांव नहीं, तो पंख जरूर होते हैं। यकीन न हो तो देख लीजिए कि 21 मिलियन डॉलर वाली फरेबी बात कितनी तेजी से घूमी

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Getty Images Andrew Harnik

कहते हैं झूठ के पांव नहीं होते। नहीं होते होंगे। लेकिन पंख जरूर होते हैं। यकीन न हो तो देख लीजिए कि पिछले दो सप्ताह से देश और दुनिया में 21 मिलियन डॉलर वाला झूठ कितनी तेजी से घूमा। चाहें तो इस बहाने यह भी समझ लीजिए कि पब्लिक की आंखों में धूल झोंकने का यह गोरखधंधा चलता कैसे है।

बात शुरू हुई अमेरिका से। राष्ट्रपति बनने के बाद डॉनल्ड ट्रंप ने धन्नासेठ एलेन मस्क को जिम्मेदारी दी कि वह अमेरिकी सरकार के खर्चे में कटौती करें। मस्क के दफ्तर ने सबसे पहले अमेरिका के विदेश मंत्रालय की मार्फत दुनिया में सहायता बांटने वाली संस्था यूएसएड को बंद करने की घोषणा की। फिजूलखर्ची के सबूत के तौर पर एक लिस्ट जारी की जिसमें भारत में मतदान बढ़ोतरी के लिए दी जाने वाली 21 मिलियन डॉलर (आज लगभग 170 करोड़ रुपये) की ग्रांट रद्द करने का जिक्र था। पिछली सरकार का मखौल उड़ाते हुए राष्ट्रपति ट्रंप ने भी इसी उदाहरण को दोहराया और पूछा कि आखिर राष्ट्रपति बाइडेन की सरकार भारत के चुनाव में “किसी और” को जिताना चाहती थी।

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बस अब क्या था। भारत में इसे यूं पेश किया गया कि अमेरिकी सरकार ने पिछले लोकसभा चुनाव में दखलंदाजी करने के लिए पैसा दिया था। आरोप संगीन था। लेकिन किसी को जांच करने को फुर्सत नहीं थी। यह पूछने की भी नहीं कि आखिर नरेन्द्र मोदी सरकार की नाक के नीचे अमेरिकी सरकार भारत में मोदी को हराने के लिए पैसे भेज कैसे सकती थी? सरकार सो रही थी क्या? आनन-फानन में सभी लोग पिल पड़े।

लोकसभा में भाजपा सांसद निशिकांत दुबे, पूर्व मंत्री राजीव चंद्रशेखर, प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल और आईटी सेल के अमित मालवीय समेत पूरा सरकारी तंत्र, दरबारी मीडिया और भक्त मंडली टूट पड़ी। कांग्रेस और विपक्षी दलों पर उंगलियां उठाई गईं। यही नहीं, अमेरिकी पैसा किस-किस पत्रकार और आंदोलनजीवी के पास पंहुचा होगा, उसकी सूची और फोटो भी चल निकली। 

लेकिन हाय, जल्द ही सारा गुड़ गोबर हो गया। देश के एक अखबार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने इस खबर की जांच करने की जहमत उठाई और पाया कि सारी कहानी कपोल कल्पित थी। यानी की यूएसएड द्वारा भारत को ऐसी कोई 21 मिलियन की ग्रांट दी ही नहीं गई थी। अगर इस राशि की कोई ग्रांट थी, तो वह बांग्लादेश में चुनावी जागरूकता के लिए “नागोरिक प्रोजेक्ट” के तहत दी गई थी। शायद एलेन मस्क के दफ्तर ने बांग्लादेश और भारत में घालमेल कर दिया होगा।

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अगले दिन भारत सरकार के वित्त मंत्रालय की 2023-24 की रिपोर्ट भी मिल गई जिसमें यूएसएड की भारत में हुई सारी फंडिंग का ब्योरा है, उसमें चुनाव से जुड़ी किसी ग्रांट का जिक्र नहीं है। यही नहीं, पता लगा कि जिस यूएसएड को देश के लिए खतरा बताया जा रहा था, उससे भाजपा की केन्द्र और राज्य सरकारों का घनिष्ठ रिश्ता है, जॉइंट प्रोजेक्ट चल रहे हैं, बैठकें हो रही हैं। स्मृति ईरानी इसी यूएसएड की एम्बेसडर रह चुकी हैं। भाजपा नेताओं के यूएसएड प्रतिनिधियों के साथ दर्जनों फोटो निकल आए।

कायदे से तो झूठ का गुब्बारा फटने के बाद इसका प्रचार करने वालों को माफी मांगनी चाहिए थी। कम-से -कम यह फेक न्यूज बंद हो जानी चाहिए थी। लेकिन माफी मांगने की बजाय आईटी सेल अब इंडियन एक्सप्रेस के पीछे पड़ा। भंडाफोड़ होने के बाद भी विदेश मंत्रालय ने बयान दिया कि अमेरिका से आई खबर चिंताजनक है, इसकी जांच की जाएगी। गोदी मीडिया ने भंडाफोड़ की खबर नहीं छापी, विदेश मंत्रालय का बयान छापा। 

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झूठ पर लीपापोती के लिए अब भक्तमंडली ने तीन नए तर्क पेश किए। पहला तर्क यह दिया की यूएसएड की यह ग्रांट अभी आई नहीं थी, आने से पहले ही मस्क ने रद्द कर दी। तर्क हास्यास्पद था, चूंकि अगर अब तक आई नहीं थी, तो 2024 के लोकसभा चुनाव पर असर डालने का आरोप बेतुका है। इस तर्क की रही सही हवा अमेरिकी अखबार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने निकाल दी। उसने अमेरिका में यूएसएड के दफ्तर में जांच करके बताया की भारत के चुनाव से संबंधित कोई भी ग्रांट न तो दी गई थी, न ही उसका कोई प्रस्ताव था। इसलिए रद्द करने का सवाल ही नहीं होता।

ध्यान बंटाने के लिए दूसरा तर्क यह दिया गया कि असली मामला तो 2012 में कांग्रेस सरकार के दौरान यूएसएड से मिली ग्रांट का है। वॉशिंगटन पोस्ट ने उसका भांडा भी फोड़ दिया और बताया कि 2012 में यूएसएड के जरिये भारत के चुनाव आयोग को ग्रांट मिली थी लेकिन उसका भारत से कोई लेना देना नहीं था। यह ग्रांट इसलिए थी कि भारत का चुनाव आयोग अफ्रीका और अन्य देशों की चुनावी मैनेजमेंट में मदद कर सके।

अब झूठ के सौदागरों के पास एक अंतिम तर्क बचा था, आखिर खुद अमेरिका के राष्ट्रपति ने ऐसा माना है। यूएसएड के बारे में उनसे ज्यादा किसे पता होगा? यह बात भी हास्यास्पद थी, चूंकि ट्रंप और झूठ का चोली-दामन का साथ है। अमेरिका के अखबार तो बाकायदा ट्रंप के झूठ का स्कोर प्रकाशित करते हैं। एक गिनती के हिसाब से पहली बार राष्ट्रपति रहते हुए ट्रंप ने 30,573 बार झूठ बोला था, यानी हर दिन 21 बार।

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खैर, इस मामले में खुद ट्रंप ने ही सारे आरोपों की हवा निकाल दी। पहले दिन बोला कि यह पैसा भारत के चुनाव में किसी और को जिताने के लिए दिया गया था। दूसरे दिन कहा कि यह तो भारत के जरिये अमेरिका के डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं को दी गई घूस थी। तीसरे दिन बोले कि यह पैसा “मेरे दोस्त प्रधानमंत्री मोदी को चुनाव में मतदान बढ़ाने” के लिए गया। चौथे दिन 21 की बजाय 18 मिलियन डॉलर की बात की। जब मोदी का नाम ले लिया, तो गोदी मीडिया को भी सांप सूंघ गया। अब उन्हें ट्रंप में झूठ दिखने लगा। 

आप सोचेंगे कि चलिए, आखिर सच की जीत हुई। लेकिन जरा सोचिए, झूठ अगर सौ लोगों तक पहुंचा, तो उसका भंडाफोड़ पांच व्यक्तियों तक भी नहीं पंहुचा। कुल मिलाकर जनता को यही याद रहेगा की अमेरिकी पैसे वाला कुछ लफड़ा था। और कुछ नहीं, तो कम-से-कम महाकुंभ और नई दिल्ली स्टेशन में सरकारी लापरवाही से हुई मौतों की खबर दब गई। झूठ के सौदागरों का काम बन गया। इसलिए चलता है फेक न्यूज का कारोबार।

साभारः नवोदय टाइम्स

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